BSc 2nd Year Botany V Cytology Genetics Evolution And Ecology Long Notes

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खण्ड ‘ब’ 

प्रश्न 1 – गुणसूत्र की संरचना का संक्षेप में वर्णन कीजिए। 

उत्तर – गुणसूत्र (Chromosome)

जीवाणुओं एवं नील-हरित शैवालों के अतिरिक्त सभी जीवित प्राणियों एवं पौधों में, आनवंशिकी पदार्थ केन्द्रक में उपस्थित कुछ धागेनुमा रचनाओं में उपस्थित रहते हैं। इन धागेनुमा रचनाओं को गुणसूत्र (chromosomes) कहते हैं। होफमीयस्टर नामक वैज्ञानिक ने सन् 1848 में सबसे पहले गुणसूत्र देखे।

प्रत्येक गुणसूत्र में एक धंसा हुआ भाग उपस्थित रहता है जिसे सेन्ट्रोमियर (centromere) कहते हैं। सेन्ट्रोमियर गुणसूत्र को दो भुजाओं में विभाजित करता है। सेन्ट्रोमियर से दूर सैटेलाइट (satellite) उपस्थित होता है। एक nucleolar organizer द्वारा गुणसूत्र केन्द्रिक (nucleolus) से लगे रहते हैं (चित्र)।

प्रत्येक गुणसूत्र में निम्नलिखित भाग होते हैं – 

  1. क्रोमोनिमेटा (Chromonemata)—ये गुणसूत्र में पाए जाने वाली लम्बी रचनाएँ होती हैं। एनाफेज अवस्था में ये निम्नतम संख्या में होती हैं।
  2. क्रोमोमियर (Chromomeres)-ये गुणसूत्रों पर उपस्थित दाने की तरह की रचनाएँ होती हैं। इन रचनाओं को सर्वप्रथम Balbiani (1876) ने देखा था।
  3. मैट्रिक्स (Matrix)-क्रोमोनिमेटा मैट्रिक्स (matrix) नामक पदार्थ में उपस्थित रहते हैं। मैट्रिक्स एक निश्चित झिल्ली से घिरा रहता है। यह non-genetic पदार्थ का बना होता है।
  1. सेन्ट्रोमियर (Centromere)-यह गुणसूत्र का स्पष्ट धंसा हुआ भाग होता है। यह भाग गुणसूत्र को दो भागों में विभाजित करता है।
  2. सेकण्डरी कंस्ट्रिक्शन (Secondary Constriction)-कुछ गुणसूत्रों की मुजाओं पर एकाधिक extra constrictions उपस्थित होती हैं। ये सेकण्डरी कंस्ट्रिक्शन कहलाती हैं।

6. सैटेलाइट (Satellite)-सबसे ऊपर का अलग हुआ भाग सैटेलाइट कहलाता है।

  1. केन्द्रिक ऑर्गेनाइजर (Nucleolar Organizer)-क्रोमोसोम का वह भाग जो कि केन्द्रिक (nucleolus) से लगा रहता है, केन्द्रिक ऑर्गेनाइजर कहलाता है।
  2. जीन्स (Genes)—गुणसूत्रों पर लम्बाई में लगी हुई आनुवंशिकी की इकाइयों को – जीन्स कहते हैं।

प्रश्न 2 – केन्द्रिक पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए। 

उत्तर – केन्द्रिक (Nucleolus) 

इसकी खोज सर्वप्रथम फोन्टेना (Fontana) नामक वैज्ञानिक ने सन् 1781 में की थी। बोमेन (Bowman) ने सन् 1840 में इसे न्यूक्लिओलस (nucleolus) कहा। यह संरचना केन्द्रक में उपस्थित होती है। यह गोल, अण्डाकार तथा अम्लरागी (acidophilic) होती है। केन्द्रिक (nucleolus) के ऊपर कोई कला (membrane) नहीं होती है। यह केन्द्रक द्रव्य तथा क्रोमैटिन के सीधे सम्पर्क में होती है। साधारण सूक्ष्मदर्शी से देखने पर यह समांगी संरचना लगती है, इसे पार्स अमोआ (Pars amorpha) नाम दिया गया है। परासूक्ष्मदर्शी से देखने पर पता चला कि यह दो भागों का बना होता है-(चित्र)

(1) कणिकामय (Granular)—इसे पार्स ग्रेन्यूलोसा (Pars granulosa) कहते हैं। 

(2) तन्तुमय (Fibrillar)—इसे पार्स फाइब्रिलोसा (Pars fibrilosa) कहते हैं। इसको न्यूक्लिओनीमा (nucleonema) भी कहते हैं।

न्यूक्लिओलस पायरोनीन (pyronine) से स्टेन किया जाता है। कुछ कोशिकाओं में या एक से अधिक भी हो सकती है। केन्द्रिक से सम्बद्ध हेटरोक्रोमैटिन का अंश पर न्यक्लिओलर ऑर्गनाइजर (nucleolar organizer) बनाता है। इस भाग में ORS. 5.8S RNA के जीन मिलते हैं। ये तीनों RNA केन्द्रिक के भीतर ही बनते हैं। के मैटिक्स (matrix) में जिसे पार्स अमोर्फा (pars amorpha) कहते हैं RNA. DNA, 

विभिन्न विकर जैसे न्यूक्लियोसाइड, फॉस्फोरिलेज (nucleoside, phosphorylase) आदि मिलते हैं। इस क्षेत्र का घनत्व कम होता है। केन्द्रिक निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

  1. प्लास्मोसोम (Plasmosome)-ये प्रकृति में उच्च सान्द्रतारागी (osmophilic) ने हैं। अत: अम्लीय स्टेन लेते हैं। इनका बाहरी भाग रंगहीन होता है, इसे हैलो (halo) कहते हैं तथा अन्दर का भाग गहरा रंग लेता है।
  2. कैरियोसोम (Karyosome or Ogater)-ये केन्द्रिक क्षाररागी (basophilic) होते हैं। इन्हें क्रोमैटिन न्यूक्लिओलस (chromatin nucleolus) भी कहते हैं। ये कोशिका विभाजन के समय गुणसूत्र से जुड़े रहते हैं।
  3. उभयकेन्द्रिक अथवा एम्फीन्यूक्लिओली (Amphinucleoli)-कभी-कभी प्लास्मोसोम तथा कैरियोसोम एक-साथ ही मिलते हैं और द्विक केन्द्रिक या उभयकेन्द्रिक बनाते हैं। साधारणतया ऐनेलिडा तथा मॉलस्का समूह के अण्डों में पाए जाते हैं। 

केन्द्रिक के कार्य (Functions of Nucleolus)

  1. प्रोटीन संश्लेषण में (In protein synthesis) केन्द्रिक में राइबोसोम का RNA संश्लेषित होता है तथा राइबोसोम प्रोटीन संश्लेषण में एक महत्त्वपूर्ण घटक है। जिन कोशिकाओं में प्रोटीन संश्लेषण तीव्र गति से होता है, उनमें देखा गया है कि केन्द्रिक भी बहुत बड़ा होता है।
  2. सूत्री विभाजन में (In mitosis)-कुछ टिड्डों में देखा गया है कि केन्द्रक में दो कान्द्रक होते हैं। यदि किसी प्रकार एक केन्द्रिक को घायल (injured) या नष्ट कर दें तो सूत्री विभाजन रुक जाता है। इसका अर्थ यह है कि सूत्री विभाजन में केन्द्रिक का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

प्रश्न 3 – गॉल्जी तन्त्र के कार्यों का वर्णन कीजिए। 

उत्तर -.गॉल्जी तन्त्र के कार्य

(Functions of Golgi Apparatus) 

गाॉल्जी तन्त्र को ER तथा बाह्यकोशिकीय अवकाश (extracellular space), जिसके तर पदार्थों जैसे-द्रव, वृहत् अणु, कोशिका भित्ति तक मिलता है, के मध्य का तत्त्व या है। इसकी प्रक्रियाओं के मध्य विभिन्न कलाओं का विभेदन भी होता रहता है। 

1. लिपिड्स व प्रोटीन्स का ग्लाइकोसाइडेशन (Glycosidation of lipids proteins)-गॉल्जी तन्त्र में लिपिड्स व प्रोटीन्स का ग्लाइकोसाइडीकरण सापड तथा ग्लाइकोप्रोटीन के रूप में होता है। ग्लाइकोसिल ट्रांसफरेस शर्करा के अण तरण करते हैं। ग्लाइकोप्रोटीन का स्रावण होता है तथा लाइसोसोम अलग कोशिका पहुचाया जाता है। लिपिड के ग्लाइकोसाइडीकरण से गैंगलियोसाइड व सालापड संश्लेषण होता है जो कभी कैन्सर कोशिकाओं में बदल जाते हैं।

  1. प्राथमिक लाइसोसोम का निर्माण (Primary lysosome formation)बहत-से लाइसोसोम के विकर ग्लाइकोप्रोटीन्स हैं तथा इनका ग्लाइकोसाइडीकरण गॉल्जी तन्त्र में होता है। गॉल्जी तन्त्र के मेच्यूरिंग फेस में GERL (गॉल्जी एण्डोप्लाज्मिक रेटीकुलम लाइसोसोम) क्षेत्र है जहाँ एसिड फॉस्फेटेज (लाइसोसोम का लाक्षणिक विकर) उपस्थित होते हैं। नोवीकोफ (Novikoff) के अनुसार गॉल्जी तन्त्र का GERL मिलेनिन ग्रेन्यूल (melanin granule) के निर्माण में लिप्त होता है।
  2. स्त्रावण ग्रेन्यूल्स की कलाओं का एण्डोसाइटोसिस व पुनर्चक्रण (Endocytosis and recycling of membranes of secretory granules) – अन्तराकोशिकीय कलाओं की आयु अपेक्षाकृत अधिक होती है तथा इनका प्रयोग स्रावण की प्रक्रिया में अधिक होता है। एण्डोसाइटोसिस व एक्सोसाइटोसिस दोनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ होती हैं। पुनर्चक्रण (recycling) की क्रिया कोटेड गर्त व वेसीकल पर निर्भर करती है जो सेलेक्टिव एण्डोसाइटोसिस क्रिया के द्वारा कला के भागों (patches of membrane) को जीवद्रव्य कला (plasma membrane) से विलग करती है।
  3. इन्सुलिन का जैवसंश्लेषण (Insulin biosynthesis):-बहुत-से स्रावित प्रोटीन्स पहले जैव निष्क्रिय प्रीकर्सर (biologically inacting precursor) के रूप में संश्लेषित होते हैं। वे सक्रिय तब होते हैं जब उनसे पॉलिपेप्टाइड की श्रृंखला अलग कर दी जाती है जैसे पैंक्रियास (अग्न्याशय) द्वारा विमोचित ग्रेन्यूल केवल तब ही सक्रिय होता है जब वह कोशिका के बाहर स्रावित हो जाता है। पॉलिपेप्टाइड हॉर्मोन निष्क्रिय प्रोहॉर्मोन के रूप में उत्पादित होते हैं। ये गॉल्जी तन्त्र के प्रोटियोलिटिक विकर के रूप में अथवा परिवर्तन के पश्चात् ही सक्रिय होते हैं। उदाहरण के लिए प्रोटीन्स जैसे—प्रोग्लूकागन, प्रोइन्सुलिन आदि। प्रोइन्सुलिन हॉर्मोन में दो शृंखलाएँ होती हैं-A (21 ऐमीनो अम्ल) तथा B (30 ऐमीनो अम्ल) जोबन्ध से जडे रहते हैं। १ इन्सुलिन हॉर्मोन के दो प्रीकर्सर होते हैं—प्रिप्रोइन्सुलिन व प्रोइन्सुलिन। स्रावी प्रोटीन की निर्माण क्रिया (processing) गॉल्जी तन्त्र में होती है।
  4. कोशिका भित्ति का निर्माण (Cell wall formation) गॉल्जी तन्त्र से हेमीसेलुलोस का स्रावण होता है जो कोशिका भित्ति का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।
  5. हॉर्मोन का उत्पादन (Production of hormone)-अन्तःस्रावी ग्रन्थियों द्वारा स्रावित हॉर्मोन गॉल्जी तन्त्र द्वारा कार्य के विभिन्न स्थानों पर पहुँचाया जाता है; जैसेथायरॉक्सिन।
  6. स्पर्मेटोजेनेसिस के समय एक्रोसोम का निर्माण (Formation of acrosome during spermatogenesis)-परिपक्व शुक्राणु एक्रोसोम में गॉल्जी तन्त्र बहुत संख्या में मिलते हैं। इनके स्रावण के कारण ही शुक्राणु अण्ड की भित्ति को गलाकर उसमें प्रवेश कर पाते हैं।’
  7. अवशोषण (Absorption)-गॉल्जी तन्त्र विभिन्न यौगिकों जैसे शर्करा, Cu, Fe, Au, B आदि के अवशोषण में सहायता करता है।

10.टेन्टेकल द्धारा स्त्रावण (Secretion from tentacles) – START (Drosera) व अन्य कीटभक्षी पादपों के टेन्टेकल में गॉल्जी तन्त्र द्वारा स्रावण होता है।

गॉल्जी तन्त्र कोशिका की रक्षा करता है। इसे कोशिका की ‘ट्रैफिक पुलिस’ (traffic police) भी कहते हैं। पदार्थों का उनके उत्पादन के स्थान से कार्य के स्थान तक पहुंचाने का कार्य भी गॉल्जी तन्त्र के वेसीकल व वैक्योल का है।

प्रश्न 4 – राइबोसोम क्या होते हैं? इनकी संरचना का विस्तार से वर्णन कीजिए। 

उत्तर – राइबोसोम

(Ribosomes) 

राइबोसोम साइटोप्लाज्म की वे रचनाएँ होती हैं, जो एण्डोप्लाज्मिक रेटिकुलम पर लगी रहती हैं। रॉबिन्सन एवं ब्राउन (1953) नामक वैज्ञानिकों ने इन्हें सर्वप्रथम पौधों की कोशिकाओं में खोजा था। इसके बाद Palade (1955) नामक वैज्ञानिक ने इनको ‘ribosome’ का नाम दिया। इस खोज से यह निष्कर्ष निकला कि राइबोसोम पौधों तथा जन्तुओं दोनों की कोशिकाओं में मिलते हैं। ये प्रोटीन संरचना के स्थान कहलाते हैं। ये प्रोकैरियोटिक (prokaryotic) तथा यूकैरियोटिक (eukaryotic) दोनों प्रकार की कोशिकाओं में होती हैं। Escherichia coli नामक जीवाणु कोशिका में 15,000 तक राइबोसोम उपस्थित होते हैं।

आकार, माप तथा sedimentation coefficient के आधार पर राइबोसोम विभिन्न प्रकार के होते हैं; जैसे-50s राइबोसोम, 70S राइबोसोम, 60S राइबोसोम तथा 80S राइबोसोम। 

राइबोसोम की संरचना (Structure of Ribosomes) ___ 

ये छोटी गोल रचनाएँ होती हैं। इनका व्यास 150 A से 250 A के बीच होता है। प्रत्येक राइबोसोम में दो सह-इकाइयाँ होती हैं। इनमें से एक सह-इकाई (subunit) बड़ी होती है तथा इनमें एक शंकु के आकार की रचना होती है, जबकि दूसरी सह-इकाई छोटी होती है तथा टोपीनुमा रचना बनाती है। कोशिका के अन्दर कार्यिक जीवित इकाई 70S कणों की होती है। इस 70S राइबोसोम में दो सह-इकाइयाँ (subunits) होती हैं, एक 50s तथा दूसरी 30Si 50S इकाई बड़ी तथा 30S इकाई छोटी होती है। 80S राइबोसोम की दो सह-इकाइयाँ 60S तथा 40s होती हैं। राइबोसोम की दोनों सह-इकाइयाँ आपस में उच्च सान्द्रता वाले Mg ++ आयनों से जुड़ी रहती हैं। प्रोटीन संरचना के समय mRNA के माध्यम से बहुत-से राइबोसोम आपस में जुड़े रहते हैं। इस तरह के जुड़ने से अन्त में पॉलिसोम्स (polysomes) अथवा पॉलिराइबोसोम्स (polyribosomes) बनते हैं।

70S राइबोसोम की अतिसूक्ष्म रचना को Nanninga (1967) नामक वैज्ञानिक ने बताया है। उनके अनुसार इस राइबोसोम की 50S सह-इकाई आकार में pentagonal होती है तथा इसका व्यास 160 से 180 A के बीच होता है। इस सह-इकाई के केन्द्र में एक 40-60A मोटा गोल क्षेत्र होता है। इस सह-इकाई में कुछ छिद्रनुमा पारदर्शक क्षेत्र भी होते हैं। 

राइबोसोम का रासायनिक संघटन (Chemical Composition of Ribosomes)

राइबोसोम्स में मुख्य रूप से राइबोसोमल प्रोटीन (ribosomal protein, 60%) तथा राइबोसोमल RNA (40%) होता है। राइबोसोम में कुछ वैज्ञानिकों ने कुछ लिपिड के कणों की।

उपस्थिति को भी दिखाया है। Escherichia coli नामक जीवाणु में प्रोटीन तथा RNA का अनुपात 37 : 63 होता है। चूहे के यकृत में पाए जाने वाले राइबोसोम्स में प्रोटीन (50-55%), RNA (40%) तथा लिपिड (5-10%) होते हैं। 

राइबोसोम्स के कार्य (Functions of Ribosomes)

राइबोसोम्स की प्रोटीन संरचना में अत्यावश्यक भूमिका होती है। 

साइटोप्लाज्म में DNA से प्राप्त संदेश को प्रोटीन के रूप में अनुवादित करने की क्रिया को ट्रांसलेशन कहते हैं। यह कार्य राइबोसोम की दोनों सह-इकाइयों में उपस्थित A तथा P साइट पर होता है। – 

प्रश्न 5 – सूत्री विभाजन (माइटोसिस) का वर्णन कीजिए। अथवा उपयुक्त चित्रों की सहायता से सूत्री विभाजन की प्रक्रिया को समझाइए तथा इसकी महत्ता का वर्णन कीजिए। 

उत्तर – (Mitosis) 

इस प्रकार का कोशिका विभाजन लगभग सभी कायिक व जनन कोशिकाओं में मिलता है। फ्लेमिंग (Flemming) ने 1881 में सर्वप्रथम इस क्रिया की खोज की। वृद्धि क्षेत्र । अथवा विभज्योतक क्षेत्र व कोशिकाओं (meristematic cells or meristematic Fregion) में सर्वाधिक कोशिका विभाजन होता है। इस क्रिया में केन्द्रक का विभाजन होता है, ‘परन्तु पुत्री कोशिका की गुणसूत्र संख्या जनन कोशिका (parent cell) के बराबर ही रहती है। विभाजन से पूर्व की अवस्था को इन्टरफेस (interphase) कहते हैं। इस अवस्था में क्रोमैटिन जाल के रूप में केरियोलिम्फ अथवा केन्द्रक द्रव्य में फैला रहता है। क्रोमैटिन पदार्थ पतला धागेनुमा कुण्डली के रूप में रहता है।

विभाजन की मुख्य अवस्था (1) कैरियोकाइनेसिस अर्थात् केन्द्रक का विभाजन तथा (2) साइटोकाइनेसिस अर्थात् कोशिका द्रव्य का विभाजन है।

  1. कैरियोकाइनेसिस (Karyokinesis)

इस क्रिया की 4 अवस्थाएँ हैं (चित्र)। प्रत्येक अवस्था में गुणसूत्र की स्थिति, अवस्था तथा तर्क तन्तुओं के संगठन में परिवर्तन आता है। _ 

(i) प्रावस्था (Prophase)—यह इन्टरफेस के पश्चात् कोशिका विभाजन के प्रारम्भ की पहली अवस्था है। सर्वप्रथम क्रोमैटिन संघनित होकर छोटा व मोटा (thick) दृश्य गुणसूत्र (visible chromosome) बनाता है। यह सरल सूक्ष्मदर्शी से भी दिखाई देता है। प्रत्येक

गुणसूत्रं पर एक संकीर्णन मिलता है, जिसे काइनेटोकोर (kinetochore) कहते हैं। यह संरचना सेन्ट्रोमियर अथवा गुणसूत्र केन्द्र के चारों ओर बनती है तथा यह वह भाग है जहाँ गुणसूत्र तर्क से जुड़ता है। जन्तुओं में जिस समय क्रोमैटिन संघनितं (condense) होकर गणसन्न (chromosome) बनाते हैं उसी समय सेन्ट्रोसोम विभाजित होकर सूत्री तर्कु तन्तु (mitotic spindle) बनाते हैं। इस प्रकार के सूत्री विभाजन को एस्ट्रल माइटोसिस (astral tacid) कहते हैं। पौधों में सेन्ट्रोसोम नहीं मिलता है इसे एनस्ट्रल (anastral) माइटोसिस

कहते हैं। प्रत्येक गुणसूत्र लम्बवत् दो पतले धागेनुमा संरचनाओं में टूटता है इन्हें अर्द्धगुणसूत्र अथवा क्रोमैटिड कहते हैं। क्रोमैटिड पर मोतीनुमा (beaded) संरचनाएँ मिलती हैं, जिन्हें. क्रोमोमियर (chromomere) कहते हैं। क्रोमोमियर को जीन (gene) भी कहा जाता है। क्रोमैटिड गुणसूत्र केन्द्र (centromere) पर जुड़े रहते हैं। .

(ii) मध्यावस्था (Metaphase)-मध्यावस्था के आरम्भ में केन्द्रक कला नष्ट हो जाती है तथा गुणसूत्र तर्कु तन्तु (spindle fibre) से जुड़ जाते हैं। माइक्रोट्यूब्यूल एक छोटे से काइनेटोकोर से सम्पर्क करते हैं। सभी गुणसूत्र इक्वेटर प्लेट (equator plate) पर व्यवस्थित हो जाते हैं। गुणसूत्र की भुजाएँ ध्रुवों (poles) की ओर होती हैं। मध्यावस्था के अन्त में तर्कु तन्तुओं द्वारा सिकुड़न बल (contraction force) का प्रयोग किया जाता है जिससे दोनों ओर के त• अपने-अपने ध्रुवों की ओर सिकुड़ते हैं। इस क्रिया में सेन्ट्रोमियर को दोनों ओर के तर्क अपनी ओर खींचते हैं, जिससे सेन्ट्रोमियर बीच में से टूट जाता है तथा दोनों ध्रुवों की ओर एक क्रोमैटिड चलता है। जन्तुओं में एस्टर व तर्क सेन्ट्रिओल को घेर लेते हैं। तर्कु तन्तु ” तीन प्रकार के तन्तुओं से बनता है

(a) क्रोमोसोमल अथवा गुणसूत्रीय तन्तु (Chromosomal fibre) 

(b) सतत तन्तु (Continuous fibre) —

(c) अन्तक्षेत्रीय तन्तु (Interzonal fibre)।

इन्टरजोनल तन्तुओं को पश्चावस्था (anaphase) तथा अन्त्यावस्था (telophase) में पुत्री गुणसूत्रों (daughter chromosomes) के मध्य देखा जा सकता है।

(iii) पश्चावस्था (Anaphase)-दोनों क्रोमैटिड प्रतिकर्षण बल (repulsion force) के कारण अलग होते हैं। दोनों क्रोमैटिड अपने-अपने ध्रुवों की ओर खिंचते हैं। इस समय इनका आकार V, L, J अथवा I रूप में सेन्ट्रोमियर की स्थिति के आधार पर देखा जा । सकता है। गुणसूत्र केन्द्र अथवा सेन्ट्रोमियर इक्वेटर की ओर होते हैं तथा भुजाएँ ध्रुवों की ओर। इस अवस्था में गुणसूत्रों का चलन बहुत धीमी गति से होता है। लगभग 1um मिनट से भी कम। धीरे-धीरे ये गुणसूत्र खिंचते हुए ध्रुवों तक पहुँच जाते हैं।

(iv) अन्त्यावस्था (Telophase)-ध्रुवों पर गुणसूत्र धीरे-धीरे खुलना आरम्भ करते हैं। तर्कु तन्तु समाप्त हो जाते हैं। केन्द्रक कला फिर से निर्मित होती है। गाल्जी तन्त्र, एन्डोप्लाज्मिक रेटीकुलम का निर्माण होता है तथा केन्द्रिक भी दिखने लगता है। इस प्रकार दो पुत्री केन्द्रक (daughter nuclei) बन जाते हैं। काइनेटोकोर के माइक्रोट्यूब्यूल क्रोमोसोम के तकै तन्तु के सापेक्ष संरचनाएँ हैं। सूत्री विभाजन की विभिन्न अवस्थाओं में माइक्रोट्यूब्यूल बनते व बिखरते हैं। ट्यूब्यूलिन का जुड़ना ध्रुवों व काइनेटोकोर द्वारा नियन्त्रित होता है। Ca++ ट्यूब्यूलिन का बहुलीकरण (polymerization) अवरुद्ध (inhibit) करता है। ER कैल्सियम की सान्द्रता का नियमन (regulation) करता है। केल्माड्यूलिन (calmodulin), माइक्रोट्यूब्यूल व Cat+. सान्द्रता आदि माइटोटिक तन्त्र (mitotic. apparatus) के बनने व बिखरने की क्रिया में महत्त्वपूर्ण है।

  1. साइटोकाइनेसिस – (Cytokinesis).

केरियोकाइनेसिस के समापन के साथ ही साइटोकाइनेसिस की क्रिया आरम्भ होती हैं। पादपों में कुछ माइक्रोटयूब्यूल (microtubule) इक्वेटर पर संगलित (fuse) होकर । फ्रेग्मोप्लास्ट (phragmoplast) बनाते हैं। यही फ्रेग्मोप्लास्ट कोशिका पट्ट (cell plate) के रूप में कोशिका के मध्य भाग से बाहर की ओर दोनों तरफ बनती हुई कोशिका भित्ति से । मिल जाती है। कोशिका पट्ट मिडिल लेमेला (middle lamella) के रूप में रूपान्तरित हो । जाती है। इसके दोनों ओर प्राथमिक कोशिका भित्ति (primary cell wall) बनती है। इस प्रकार दो पुत्री कोशिकाएँ (daughter cells) बन जाती हैं। _

जन्तु कोशिकाओं में कोशिका पट्ट नहीं बनता है। कोशिका कला अन्तर्वेशित (invaginate) होकर मध्य तक पहुँच कर मिल जाती है तथा कोशिका दो भागों में बँट जाती है।

सूत्री विभाजन की क्रिया कम ताप पर धीमी गति से, परन्तु अधिक ताप पर तीव्र गति से. होती है।

सूत्री विभाजन की महत्ता

(Significance of Mitosis) : 

माइटोसिस कोशा विभाजन के परिणामस्वरूप एक कोशा के नाभिक के क्रोमोसोम्स दो समान भागों में विभाजित हो जाते हैं तथा दोनों daughter nuclei व daughter cells में क्रोमोसोम्स की संख्या parent cell or nucleus के समान रहती है। इस विधि द्वारा किसी भी जीव के गुण अनिश्चित काल तक सुरक्षित रह सकते हैं। इस विधि द्वारा वर्षी प्रजनन (vegetative reproduction) द्वारा उगाए गए पौधों से parent plant के गुण सुरक्षित रहते हैं।

कमाइटोसिस द्वारा कोशा विभाजन से पौधों में वृद्धि होती है तथा कोशाएँ आकार एवं संख्या में बढ़ती रहती है।

प्रश्न 6 – ER के कार्य लिखिए। – 

उत्तर – ER के कार्य (Functions of ER)

ER दो प्रकार की होती हैं-SER व RER. 

(A) SER व RER के सामान्य कार्य (General Functions of SER and RER)

(1) कोशिका को सहारा देने के लिए परासंरचनात्मक जालिका कंकाल प्रस्तुत करना। 

(2) विसरण, परासरण तथा सक्रिय अभिगमन द्वारा अणुओं का विनिमय। 

(3) बहत-से विकर की उपस्थिति के कारण संश्लेषण व उपापचयी क्रियाओं में सरलता

या विकर की क्रिया के लिए अधिक सतही क्षेत्र उपलब्ध कराना। 

(4) यह संवहन तथा अभिगमन तन्त्र की तरह कार्य करता है। जैसे RER – SER → गॉल्जीकाय → लाइसोसोम अथवा स्रावी कण।

(5) ER कला अन्तःकोशिकीय संवेदों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाता है जैसे . सार्कोप्लाज्मिक रेटीकुलम सतही कलाओं से संवेद (impulse) को मांसपेशियों के भीतरी क्षेत्र तक पहुँचाता है। 

(6) जोन्स व फासेट (Jones and Fawcett, 1966) के अनुसार ER

डिटॉक्सीफिकेशन की प्रक्रिया द्वारा कोशिका की रक्षा विभिन्न प्रकार के आविष (toxins) से करता है। टॉक्सिकेन्ट को फीनोबार्बिटॉल (phenobarbitol) कहते हैं। यह ER के विकर को सक्रिय करता है; जैसे-NADPHAI . 

(B) RER के मुख्य कार्य (Chief Functions of RER) 

(1) यह प्रोटीन संश्लेषण के लिए राइबोसोम को स्थान प्रदान करता है। राइबोसोम्स,

प्रोटीन का संश्लेषण अन्त:कोशिकीय कोशिकांग अथवा बाह्य ,कोशिकीय प्रयोग के

लिए करते हैं। 

(2) प्रोटीन्स ER द्वारा कोशिका के बाहर गॉल्जीतन्त्र तथा स्रावी कणिकाओं के रूप में पहुँचाए जाते हैं। 

(C) SER Dyer dref (Chief Functions of SER)

(1) लिपिड संश्लेषण (Lipid synthesis)-क्रिस्टेन्सन (Christensen, 1961) तथा क्लाउड (Claude, 1968) के अनुसार SER लिपिड के संश्लेषण व उपापचय से सम्बन्धित है।

(2) ग्लाइकोजन का संश्लेषण (Glycogen synthesis)-पोर्टर (Porter, 1961) तथा पीटर (Peter, 1963) ने बताया कि SER ग्लाइकोजीनोलाइसिस (ग्लाइकोजन का पाचन) से सम्बन्धित है तथा ग्लाइकोजिनेसिस (ग्लाइकोजन का संश्लेषण) से नहीं।

(3) कोलेस्टेरॉल, ग्लिसराइड, हॉर्मोन, टेस्टोस्टेरोन तथा प्रोजेस्टेरोन का संश्लेषण।

(4) रेटिना की पिग्मेंट एपीथीलियल कोशिका का SER (Smooth endoplasmic . reticulum) Vc AA के विजुअल पिग्मेंट का संश्लेषण करता है।

प्रश्न 7 – प्लाज्मा झिल्ली की संरचना का वर्णन कीजिए। 

उत्तर – प्लाज्मा झिल्ली

(Plasma Membrane) 

यह एक पतली तथा लाइपोप्रोटीन की बनी (lipoproteinaceous) जीवित झिल्ली होती है, जो कि साइटोप्लाज्म को बाहर से घेरे रहती है। इसे कोशिका झिल्ली (cell membrane), प्लाज्मा झिल्ली (plasma membrane), साइटोप्लाज्मिक झिल्ली. (cytoplasmic membrane), schis ficît (unit membrane) 37701 WICHITHI (plasmalemma) आदि नामों से भी पुकारा जाता है। यह पौधों तथा जीव-जन्तुओं दोनों की कोशिकाओं में पायी जाती है। यह लगभग 75 4 से 100 A मोटी होती है। यह झिल्ली इस बात का निर्धारण करती है कि किन पदार्थों को कोशिका के अन्दर प्रवेश करना है तथा किन पदार्थों को नहीं। पौधों में प्लाज्मा झिल्ली के बाहर एक कोशिका भित्ति (cell wall) भी होती है। ” – कोशिका भित्ति जन्तु कोशिका में नहीं मिलती है।

प्लाज्मा झिल्ली का रासायनिक संघटन (Chemical Composition of Plasma Membrane).

प्लाज्मा झिल्ली लिपिड्स (lipids) तथा प्रोटीन्स (proteins) की बनी होती है। लिपिड्स फॉस्फोलिपिड्स (phospholipids) के रूप में रहते हैं तथा प्रोटीन्स स्ट्रोमेटिन (stromatin) के रूप में रहते हैं। प्लाज्मा झिल्ली में दो लिपिड की परतों के बीच में एक प्रोटीन की परत रहती है।

लिपिड्स (Lipids)-प्लाज्मा झिल्ली के लिपिड्स वाली परतों में पाँच प्रकार के फॉस्फोलिपिड्स की पहचान हो चुकी है। ये हैं— phosphatidic acid, choline, inositol, ethanolamine तथा serinel प्रत्येक लिपिड के कण में एक सिर (head) तथा दो पूँछ (tails) होती हैं, लेकिन इनकी पूँछ पानी में अघुलनशील होती हैं।

प्रोटीन्स (Proteins)-स्ट्रोमेटिन, ग्लाइकोप्रोटीन _Phosphatidic acid तथा म्यूकोप्रोटीन प्लाज्मा झिल्ली में पाए जाने वाले कुछ मुख्य प्रोटीन्स होते हैं। प्रोटीन की प्रतिशतता 20 से 70 के बीच में होती है। प्रोटीन की प्रकृति अम्लीय होती है। 

प्लाज्मा झिल्ली की संरचना 

(Structure of Plasma Membrane)

इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी तथा X-रे डिफ्रेक्शन की विधियों के प्रयोग से प्लाज्मा झिल्ली की रचना समझने में काफी सहायता मिली है। डेनिएली (1940) नामक वैज्ञानिक ने बताया कि प्लाज्मा झिल्ली की रचना में लिपिड़ कणों की दो परतें प्रोटीन्स की दो परतों से घिरी रहती हैं। प्रोटीन तथा लिपिड ‘डबल रोटी के बीच में मक्खन’ की तरह आपस में लगे रहते हैं। इनमें वसा (fat) की परत 35 A मोटी होती है तथा इसके दोनों ओर प्रोटीन की एक परत 20 A मोटी होती है। प्लाज्मा झिल्ली कुल मिलाकर लगभग 75A मोटी होती है।

‘मक्खन तथा डबल रोटी’ के प्लाज्मा झिल्ली के मॉडल को चित्र. में दिखाया गया है। इनमें प्रत्येक परत में वसीय अम्लों (fatty acids) की पूँछ अन्दर की ओर रहती है तथा वसीय अम्लों के सिर (head) बाहर की ओर होते हैं। ____

रॉबर्टसन (Robertson, 1962) नामक वैज्ञानिक ने प्लाज्मा झिल्ली के लेमेलर मॉडल (larmellar model) का आविष्कार किया। उनके अनुसार प्रोटीन की प्रत्येक परत 15A मोटी होती है। दो परतों वाला वसा का भाग (lipid region) लगभग 45A मोटा होता है। इस प्रकार प्लाज्मा झिल्ली लगभग 75A मोटी होती है। अपनी खोजों के आधार पर रॉबर्टसन ने अपने ख्याति प्राप्त ‘इकाई-परत वाद’ (unit-membrane concept) को जन्म दिया और इस

‘S’ अवस्था (‘S’ phase)-इसे DNA संश्लेषण (DNA synthesis) अवस्था भी कहते हैं। यह अवस्था G1 अवस्था के बाद आती है। यहाँ DNA, हिस्टोन प्रोटीन आदि का संश्लेषण होता है। गुणसूत्रों में क्रोमैटिड बनते हैं। यह भी इन्टरफेस की ही अवस्था है।

G2 अवस्था (Ga phase)-यह कोशिका विभाजन की प्रारम्भिक अवस्था है जहाँ कोशिका, विभाजन से पहले स्वयं को तैयार करती है।

‘M’ अवस्था (M phase)—यह कोशिका चक्र की अन्तिम अवस्था है जहाँ सूत्री – विभाजन (प्रावस्था, मध्यावस्था, पश्चावस्था व अन्त्यावस्था) सम्पूर्ण होता है तथा दो पुत्री कोशिकाएँ बनती हैं। . .

इस प्रकार यदि देखा जाए तो विभाजन से पूर्व की तैयारी में 90% समय लगता है तथा विभाजन की क्रिया 10% समय में पूर्ण हो जाती है।

जन्तु कोशिका में सेन्ट्रोसोम मिलता है जो कि पादप कोशिका में नहीं मिलता है। सेन्ट्रिओल से एस्टर किरणें (aster rays) निकलती हैं। जन्तुओं में सूत्री विभाजन एस्ट्रल व पादपों में एनस्ट्रल होता है, क्योंकि इनमें सेन्ट्रिओल से एस्ट्रल किरणें नहीं बनती हैं। पादपों में विभाजन के पश्चात् कोशिका पट्ट बनता है, जो जन्तुओं में नहीं बनता। . 

कोशिका चक्र का नियन्त्रण 

(Control of Cell Cycle)

यदि कोशिका विभाजन के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं हों तो कोशिका GO अवस्था में चली जाती है। इस अवस्था में यह महीनों या सालों तक रह जाती है। कोशिका, कोशिका चक्र को G की अन्तिम अवस्था में ‘S’ अवस्था से पहले अथवा G2 अवस्था में सूत्री विभाजन आरम्भ होने से पहले छोड़ सकती है। – 

यदि कोशिका चक्र पर से नियन्त्रण समाप्त हो जाता है तो कैन्सर (cancer) भी हो – सकता है। एक कोशिका में अनियमित विभाजन की दशा में अविभेदित (undifferentiated) .. कोशिकाओं का समूह (callus) बनता है जिसे ट्यूमर (रसौली) कहते हैं। यह ऑन्कोजीन (oncogene) अथवा ट्यूमर सप्रेसर जीन (tumour suppressor gene) की क्रिया में परिवर्तन के कारण हो सकता है। विषाणुओं से भी कैन्सर हो सकता है क्योंकि इनमें ऑन्कोजीन के उत्परिवर्तित (mutant) प्रकार मिलते हैं। ट्यूमर संदमन जीन (tumour suppressor .. gene) सामान्यतः कोशिका विभाजन अवरुद्ध करती है। इस जीन को PE जीन भी कहते हैं।

प्रश्न 10 – कोशिका भित्ति की संरचना का संक्षेप में वर्णन कीजिए। 

उत्तर – कोशिका भित्ति

(Ceil Vaii)

सभी जीव-जन्तुओं तथा पौधों की कोशिका (cell) में प्रोटोप्लाज्म के बाहर एक कोशिका “झिल्ली (cell membrane) या प्लाज्मा झिल्ली (plasma membrane) होती है। केवल पौधों की कोशिकाओं में कोशिका झिल्ली के बाहर एक भित्ति होती है जिसे कोशिका भित्ति (cell wall) कहते हैं। कोशिका भित्ति जन्तुओं की कोशिकाओं में नहीं होती है। कोशिका भित्ति की बनावट कठोर होती है तथा इसका मुख्य कार्य कोशिका की रक्षा करना होता है। कोशिका

कोशिका भित्ति की अतिसूक्ष्म रचना (Ultra-structure of Cell Wall)

इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी में देखने पर पता चलता है कि कोशिका भित्ति में दो निम्न प्रकार की रचनाएँ होती हैं –

(1) फाइब्रिल्स (Fibrils), 

(2) मैट्रिक्स (Matrix)। – 

फाइब्रिल्स मुख्य रूप से सेलुलोस तथा कभी-कभी काइटिन (chitin) के बने होते हैं। ये लगभग 100 A व्यास के होते हैं। प्रत्येक फाइब्रिल की मोटाई लगभग 30 A होती है। इन्हें माइक्रोफाइब्रिल्स (microfibrils) भी कहते हैं। ये सभी दिशाओं में लगे रहते हैं। फाइब्रिल्स सदा मैट्रिक्स (matrix) में फंसे रहते हैं।

प्रश्न 11 – अर्द्धसूत्री विभाजन पर लेख लिखिए। 

उत्तर – अर्द्धसूत्री विभाजन (Meiosis)

अर्द्धसूत्री विभाजन केवल उन जीवों में मिलता है जिनमें लैंगिक प्रजनन पाया जाता है। लैंगिक प्रजनन की दो मुख्य अवस्थाएँ हैं-(i) युग्मकों का निर्माण (formation of gametes) तथा (ii) निषेचन (fertilization)

यह द्विजनकीय (biparental) वंशागति (inheritance) है। मियोसिस का अर्थ है मियोम (meioum) अथवा छोटा करना (to make smaller)। इस क्रिया में दो विभाजन होते हैं। पहला विभाजन गुणसूत्र संख्या को आधा कर देता है तथा दूसरे विभाजन के परिणामस्वरूप 4 कोशिकाएँ बनती हैं जिनमें गुणसूत्र संख्या जनक कोशिका से आधी होती है। .: 

जाइगोटिक अथवा आरम्भिक मियोसिस (Zygotic or Initial meiosis)-इस प्रकार का अर्द्धसूत्री विभाजन केवल निम्न पादपों में मिलता है जो युग्मकोद्भिद् (gametophyte) होते हैं। यहाँ अर्द्धसूत्री विभाजन युग्मनज (zygote, 2X) बनने के बाद होता है। युग्मनज विभाजित होकर 4 अगुणित मियोस्पोर (meiospore) बनाता है।

बीजाणुजनन की प्रक्रिया से लघु व गुरु (micro and macro) बीजाणु बनते हैं, जबकि युग्मकजनन की प्रक्रिया से नर व मादा (male and female) युग्मक (gamete) बनते हैं। 

अर्द्धसूत्री विभाजन का विस्तृत रूप (Details of Meiosis) – 

अर्द्धसूत्री विभाजन में 2 कोशिका विभाजन होते हैं मियोसिस I तथा मियोसिस II। प्रथम मियोसिस (meiosis I) प्रावस्था बहुत लम्बी होती है। इसमें चार अवस्थाएँ पूर्वावस्था I, . मध्यावस्था I, अन्त्यावस्था I तथा पश्चावस्था I होती हैं। उसमें समजात गुणसूत्री पहले जोड़े बनाते हैं तथा उनमें कुछ आनुवंशिक पदार्थ का विनिमय (exchange of genetic material) भी होता है। मियोसिस II साधारण माइटोसिस के समान होती है। 

  1. पूर्वावस्था I (Prophase I)

पूर्वावस्था I लम्बी अवस्था है तथा इसमें 5 स्थितियाँ मिलती हैं लेप्टोटीन Nantotene), जाइगोटीन (zygotene), पैकीटीन (pachytene), डिप्लोटीन (diplotene) तथा डाइकाइनेसिस (diakinesis) आदि।

(i) लेप्टोटीन (Leptotene)-यह मियोसिस में प्रोफेस I की प्रारम्भिक अवस्था है। इसमें गुणसूत्र बहुत पतले तथा जाल के रूप में फैले रहते हैं। केवल लिंग गुणसूत्र (sex chromosome) को ही सघन (compact) हेटरोपिक्नोटिक (heteropychnotic) काय , . (body) के रूप में पहचाना जा सकता है। लेप्टॉस (laptos) का अर्थ है पतला (thin) तथा नीमा (nema) का अर्थ है धागा (thread)। अतः इस अवस्था को लेप्टोटीन अथवा लेप्टोनीमा कहते हैं। इस अवस्था में पतले धागेनुमा गुणसूत्र (क्रोमेटिन) मिलते हैं। केन्द्रक का आमाप (size) बढ़ जाता है। इस अवस्था में वैसे तो DNA द्विगुणन आरम्भ होकर दो क्रोमैटिड बनने लगते हैं, परन्तु गुणसूत्र एक ही दिखाई देता है, जिस पर मोतीनुमा (beaded) संरचनाएँ, क्रोमोमियर (chromomere) मिलते हैं। क्रोमोमियर का आमाप, संख्या, स्थिति (position) आदि किसी गुणसूत्र पर निश्चित व लाक्षणिक (characteristic) होती है। लेप्टोमेरिक गुणसूत्रों में निश्चित ध्रुवीकरण (polarization) मिलता है। ये केन्द्रक कला की ओर एक छोर (end) से जुड़ते हैं तथा दूसरा छोर सेन्ट्रिओल की ओर गुलदस्ता अथवा bouquet कहते हैं.. (चित्र)।

(ii) जाइगोटीन (Zygotene)-इस अवस्था को कुछ वैज्ञानिक जाइगोनीमा (zygonema) भी कहते हैं। इसमें समजात गुणसूत्र आस-पास आकर जोड़े (pairing of… homologous chromosomes) बना लेते हैं। इस क्रिया को साइनेप्सिस (synapsis of chromosome) कहते हैं। साइनेप्सिस उच्च विशिष्ट (specific) क्रिया है। इसमें विशिष्ट संरचना सिनेप्टोनीमल सम्मिश्र (Synaptonemal complex) अथवा युग्मसूत्र सम्मिश्र बनती है। जोड़े बनाते समय दोनों समजात गुणसूत्र आपस में संलयित नहीं होते हैं। इनमें 0.15-2.04 तक की दूरी बनी रहती है।

इस क्षेत्र में सिनेप्टोनीमल कॉम्प्लैक्स बनता है। मोजेज (Moses) ने 1556 में बताया … कि सिनेप्टोनीमल कॉम्प्लैक्स 2 पार्श्व भुजाओं (lateral arms) तथा एक केन्द्रीय अथवा मध्य तत्त्व (central of medial elements) से बना हुआ होता है। जोड़े बनना कहीं से भी आरम्भ हो सकता है, परन्तु टीलोमियर (telomere) सामान्यत: केन्द्रक कला में धंस जाते हैं। सिनेप्टोनीमल कॉम्प्लैक्स का मुख्य तत्त्व प्रोटीन है। – 

अर्द्धसूत्री गुणसूत्र (meiotic chromosome) का वृहत अणु (macromolecular). संगठन (organization) सूत्री गुणसूत्र (mitotic chromosomes) के समान ही होता है जिसने 20 – 30 m क्रोमैटिन तन्तु न्यूक्लिओसोम (nucleosome) से ही बनते हैं। प्रावस्था के प्रारम्भ में तन्तु कहीं-कहीं (discrete) लूप बना लेते हैं। साइनेप्टोनीमल कॉम्प्लैक्स स्थल पर प्रोटीन सघन होते हैं। पूरे मियोटिक प्रोफेस के समय लूप का पेकिंग बढ़ जाता है। कुछ लूपों पर जो सक्रिय जीन के सापेक्ष (corresponding) होती है। RNA अनुलेखन . (transcription) भी मिलता है। . 

(iii) पैकीटीन (Pachytene)-गुणसूत्रों का जोड़े बनाना समाप्त हो जाता है तथा गुणसूत्र छोटे व मोटे (shorter and thicker) हो जाते हैं। गुणसूत्र युग्मन (pairing) से युग्म गुणसूत्र अथवा बाइवेलेन्ट .(bivalent) बनते हैं। इससे गुणसूत्रों की संख्या आधी जान

पड़ती है। इन युग्म गुणसूत्रों (bivalent) के प्रत्येक गुणसूत्र दो अर्द्ध गुणसूत्र (chromation

होते हैं, जिससे इन्हें गुणसूत्र चतुष्क (tetrad) भी कहते हैं। प्रत्येक चतुष्क में 4 काइनेटोकोर __(दो समजातीय व दो सिस्टर क्रोमैटिड) बनते हैं। प्रत्येक क्रोमैटिड का अपना काइनेटोकोर (kinetochore) होता है। प्रत्येक समजात गुणसूत्र के दो क्रोमैटिड को भगिनि अर्द्धगुणसत्र (sister chromatid) कहते हैं। मियोसिस I में सिस्टर क्रोमैटिड के काइनेटोकोर भी क्रियात्मक इकाई (function unit) की तरह कार्य करते हैं। सभी गुणसूत्र युग्मन का कार्य समाप्त कर लेते हैं तथा सिनेप्टोनीमल कॉम्प्लैक्स के द्वारा जो क्षेत्र घेरा जाता है वो इसी प्रकार बना रहता है। – 

पैकीटीन के दौरान दो क्रोमैटिड समजात गुणसूत्र से (nonsister chromatids).

आपस में खण्ड विनिमय (exchange of segment) करते हैं। इसे पुनर्योजन (recombination) भी कहते हैं।

पैकीटीन में सिनेप्टोनीमल कॉम्प्लैक्स रीकम्बीनेशन नोड्यूल अथवा बार (bar) का भी प्रदर्शन करता है जो क्रॉसिंग ओवर के निश्चित स्थल (site) होते हैं।

लेप्टोटीनजाइगोटीन की प्रक्रिया कुछ घण्टों में समाप्त हो जाती है, परन्तु पैकीटीन के समाप्त होने में कुछ दिन का समय भी लग सकता है।

(iv) डिप्लोटीन (Diplotene)-इस अवस्था में युग्म गुणसूत्र प्रतिकर्षण का भाव दिखाते हुए एक-दूसरे से अलग होने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु वे कुछ स्थान में जुड़े रहते हैं, जहाँ खण्ड विनिमय होता है, उसे कियाज्मा (Chiasma) अर्थात् Cross कहते हैं। कियाज्मा क्रोसिंग ओवर अथवा पुनर्योजन (recombination) के स्थल हैं। 

  1. इस अवस्था में गुणसूत्र खण्डों का विनिमय (exchange) समजात युग्मों के मध्य होता है। कम-से-कम एक कियाज्मा प्रति बाइवेलेन्ट अथवा युग्म बनता है। कियाज्मा की संख्या 1-अनेक तक हो सकती है। यह गुणसूत्र भुजा की लम्बाई पर आधारित है। डिप्लोटीन में युग्म (bivalent) के चारों क्रोमैटिड दिखाई देने लगते हैं तथा सिनेप्टोनीमल कॉम्प्लैक्स नहीं दिखाई देता है, क्योंकि यह बाइवेलेल्ट से अलग हो जाता है। प्रत्येक कियाज्मा पर सिनेप्टोनीमल कॉम्प्लैक्स का कुछ भाग रह जाता है जो बाद में अलग हो जाता है तथा उस स्थान पर क्रोमैटिन ब्रिज (chromatin bridge) बनता है। गुणसूत्र खण्ड के विनिमय से ही जीन का विनिमय होता है तथा माता-पिता के गुणों का मिश्रण होता है। इसके कारण ही संतति में अन्तर दिखाई देता है। डिप्लोटीन एक लम्बी अवस्था है जो इसी प्रकार बहुत वर्षों तक भी रह सकती है। कुछ मत्स्य, एम्फीबिया, सरीसृप तथा पक्षी वर्ग ने ऊसाइट में गुणसूत्र इस अवस्था में अकुण्डलित (uncoil) होकर लूप बना लेते हैं तथा इसी प्रकार लैम्पब्रश गुणसत्र (lampbrush chromosome) के रूप में रहते हैं।

(v) डाइकाइनेसिस (Diakinesis)-इस क्रिया में गुणसूत्र सिकुड़ते हैं। पार्श्व भाग केन्द्रक में समान रूप से वितरित रहते हैं। केन्द्रिक अलोप हो जाता है। कियाज्मा की संख्या कम हो जाती है। इस प्रक्रिया के अन्त में समजात गुणसूत्र केवल अपने सिरों (ends) से ही जुड़े . रहते हैं। इस क्रिया को टर्मिनेलाइजेशन (terminalization) कहते हैं।

  1. मध्यावस्था I (Metaphase I)

इस अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते गुणसूत्र पूरी तरह से संघनित (condense) हो चुके होते हैं। केन्द्रक कला टूट जाती है तथा तर्कु माइक्रोट्यूब्यूल (spindle microtubules) काइनेटोकोर से जुड़ जाते हैं। प्रत्येक समजात गुणसूत्र एक ध्रुव की ओर अपने इक्वेटर (equator) से जुड़ा रहता है। सिस्टर क्रोमैटिड एक सक्रिय इकाई (one functional unit) की तरह कार्य करती है। गुणसूत्र इक्वेटर पर व्यवस्थित हो जाते हैं। मियोसिस I के मध्यावस्था I में समजात गुणसूत्र कियाज्मेटा से जुड़े रहते हैं तथा काइनेटोकोर तर्क से जुड़े रहते हैं। इन काइनेटोकोर को ध्रुवों की ओर तर्कु खींचते हैं। 

  1. पश्चावस्था I (Anaphase I) 

प्रत्येक समजात गुणसूत्र अपने दोनों क्रोमैटिड से काइनेटोकोर पर जुड़े रहते हैं तथा तर्कु तन्तु के सिकुड़ने के कारण अपने-अपने ध्रुवों की ओर खिंचते हैं। छोटे गुणसूत्र जिसमें कियाज्मा अन्तस्थ (terminal) होता है, तेजी से खिंचता है, परन्तु लम्बा गुणसूत्र अलग होने में देर करता है। अलग होते समय पितृ (नर) व मातृ (मादा) समजात गुणसूत्र अपने-अपने क्रोमैटिड के कुछ भाग का विनिमय कर पुनर्योजन के कारण मिश्रित हो जाते हैं। 

  1. अन्त्यावस्था I (Telophase I)

कुछ समय तक गुणसूत्र संघनित अवस्था में रहते हैं। दो पुत्री केन्द्रक बन जाते हैं, परन्तु इनमें गुणसूत्र संख्या जनक कोशिका से आधी रह जाती है। केन्द्रक कला फिर से बनती है।

साइटोकाइनेसिस मियोसिस I के पश्चात् हो भी सकती है और नहीं भी। यदि साइटोकाइनेसिस हो तो दो पुत्री कोशिकाएँ बन जाएँगी यदि नहीं तो एक कोशिका में दो पत्री केन्द्रक होते हैं। 

  1. मियोसिस II (Meiosis II)

यह क्रिया मियोसिस I के समाप्त होने के साथ-साथ आरम्भ हो जाती है। इस क्रिया में प्रत्येक पुत्री कोशिका में विभाजन सूत्री विभाजन के समान ही होता है। मियोसिस II सूत्री विभाजन ही है। इसे इक्वेशनल डिवीजन (equational division) भी कहते हैं। इसमें पूर्वावस्था II, मध्यावस्था II, पश्चावस्था II तथा अन्त्यावस्था II अवस्थाएँ होती हैं।

इस मियोसिस II के पश्चात् साइटोकाइनेसिस अवश्य होता है। अन्त में 4 कोशिकाएँ बनती हैं। चारों पुत्री कोशिकाओं में गुणसूत्र संख्या जनक गुणसूत्र संख्या से आधी रह जाती है, परन्तु चारों कोशिकाओं के गुणसूत्र का आनुवंशिक संघटन (genetic constitution) अलग-अलग होता है। यह खण्डों के विनिमय (exchange of segments) के कारण होता है।

वास्तव में मियोसिस I ही अर्द्धसूत्री विभाजन (reduction division) है। यहीं पर गणसत्र संख्या आधी रह जाती है। मियोसिस I में समजात गुणसूत्र के काइनेटोकोर अलग होते हैं, परन्तु मियोसिस II में सिस्टर क्रोमैटिड के काइनेटोकोर अलग होते हैं। प्रत्येक पुत्री कोशिका में चतुष्क (tetravalent) का एक-एक क्रोमैटिड ही मिलता है।

प्रश्न 12 – गॉल्जीकाय की परासंरचना तथा उत्पत्ति का वर्णन कीजिए। 

उत्तर – गॉल्जीकाय

(Golgibodies) ये ट्यूब्यूल्स तथा वेसीकिल्स की बनी हुई संयुक्त रचनाएँ हैं। इन्हें कोशिकाओं में सर्वप्रथम Camilio Golgi नामक वैज्ञानिक ने सन् 1898 में खोजा और उन्हीं के नाम के कारण इनको ‘Golgibodies’ के नाम से पुकारा जाता है। इनको Dictyosomes. Golgi Complex, Golgi apparatus, Idiosomes, Lipochondria 371f नामों से भी पुकारा जाता है। 

इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से ये काय (bodies) काफी स्पष्ट रूप में देखी जा सकती हैं। कछ जीवाणुओं को छोड़कर गॉल्जीकाय लगभग सभी invertebrates में तथा पौधों की कोशिकाओं में देखी जा सकती हैं। 

गॉल्जीकाय की परासंरचना 

(Ultrastructure of Golgibodies)

भिन्न-भिन्न प्रकार की कोशिकाओं में इनकी बनावट भिन्न-भिन्न होती है। सामान्यत: गॉल्जीकाय दो प्रकार की रचनाओं की बनी होती हैं–सिस्टर्नी (cisternae) तथा वेसीकल्स (vesicles)। सिस्टर्नी को सेक्यूल्स (sacules) भी कहते हैं। ये लम्बी नली के आकार की झिल्लीदार रचनाएँ होती हैं। इसके विपरीत वेसीकल छोटी रचनाएँ होती हैं, जो कि सिस्टर्नी के अग्रभागों पर लगी दिखाई देती हैं। ऐसा माना जाता है कि सिस्टर्नी में से ही छोटी-छोटी कलियाँ निकलकर वेसीकल बनाती हैं। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार एक गॉल्जी समूह में सिस्टर्नी तथा वेसीकल्स के अतिरिक्त एक तीसरी रचना भी होती है जिसे वैक्योल (vacuole) कहते हैं। वैक्योल्स सदा सिस्टर्नी के बीच में उपस्थित होते हैं।

गॉल्जी एपेरेटस के प्रत्येक स्टैक को एक डिक्टियोसोम (dictyosome) भी कहते हैं। सेक्यूल्स की संख्या 4 से 8 तक होती है तथा प्रत्येक के बीच में लगभग 200 A का अन्तर होता है। प्रत्येक सेक्यूल की झिल्ली लगभग 75 A मोटी होती है। सिस्टर्नी के अग्र भागों से बहुत-सी नलीनुमा रचनाएँ निकलती हैं। इनमें सामान्य रूप में शाखाएँ भी निकली रहती हैं, जो कि एक जालनुमा रचना बना लेते हैं। प्रत्येक वेसीकल (vesicle) की झिल्ली या तो चिकनी होती है या उस पर बहुत-से उभार निकले रहते हैं। डिक्टियोसोम पादप में मिलते हैं, इनकी संख्या एक कोशिका में 1 या 2 होती है। 

गॉल्जी एपेरेटस के बाहर की दो परतों वाली झिल्ली प्लाज्मा झिल्ली (plasma membrane) से काफी मिलती है। 

गॉल्जीकाय का रासायनिक संघटन 

(Chemical Composition of Golgibodies)

गॉल्जीकाय फॉस्फोलिपिड्स, प्रोटीन्स तथा एन्जाइम्स से भरी रहती हैं। इनमें पाए जाने वाले प्रमुख एन्जाइम्स में हैं—thiamine pyrophosphatase, galactosyl transferase, NADH-Cytochrome, C-reductase, ADPase, ATPase, CTPase आदि। कुछ विटामिन, फैटी अम्ल तथा कैरोटिनॉयड भी इनमें उपस्थित होते हैं।

गॉल्जीकाय की संरचना। गॉल्जी तन्त्र की उत्पत्ति (Origin of Golgi Apparatus) 

बहुत-से कोशिका वैज्ञानिकों जैसे-पैलाडे (1955) के अनुसार गॉल्जी तन्त्र की उत्पत्ति SER से होती है जो RER से बनते हैं। कुछ अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार पहले से उपस्थित गॉल्जी तन्त्र के सिस्टर्नी में लम्बवत् विभाजन से भी नया गॉल्जी तन्त्र बनता है।

गॉल्जी तन्त्र (डिक्टियोसोम) की उपस्थिति पादप कोशिका में सूत्री विभाजन के पश्चात् कोशिका पट्ट (cell plate) के पास होने के कारण कुछ वैज्ञानिक उसकी उत्पत्ति फ्रेग्मोप्लास्ट से स्वतः (denovo) उत्पत्ति के रूप में मानते हैं, परन्तु इस वाद को अधिक मान्यता नहीं मिली है।

मैक ऐलियर (Mc Alear, 1963) के अनुसार गॉल्जी तन्त्र केन्द्रक कला (nuclear , membrane) से उत्पन्न होता है।

प्रश्न 13 – केन्द्रक की संरचना का विस्तार से वर्णन कीजिए। 

उत्तर – केन्द्रक (Nucleus) 

केन्द्रक क्या होता है (What is Nucleus)-यह कोशिका का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग होता है। इसमें आनुवंशिकी का सम्पूर्ण तन्त्र समाहित रहता है। केन्द्रक में chromatin, nucleolus तथा न्यूक्लियोप्लाज्म होते हैं तथा इन सबके बाहर एक केन्द्रक भित्ति (nuclear membrane) होती है। कोशिका में प्रजनन तथा वृद्धि केन्द्रक द्वारा ही होती है। .. 

केन्द्रक की रचना तथा रासायनिक बनावट (Structure and Chemistry of Nucleus)-सभी यूंकैरियोटिक कोशिकाओं में केन्द्रक के बाहर एक केन्द्रक भित्ति (nuclear membrane) होती है। यह दो परतों वाली होती है तथा इसकी प्रकृति lipoproteinaceous होती है। इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से देखने पर यह पता चला है कि केन्द्रक भित्ति की बाहरी परत एण्डोप्लाज्मिक रेटीकुलम के साथ जुड़ी होती है। केन्द्रक भित्ति में बहुत-से छिद्र (pores) भी होते हैं। इन छिद्रों की सहायता से न्यूक्लियोप्लाज्म तथा साइटोप्लाज्म में सीधा सम्बन्ध जुड़ा रहता है (चित्र)।

केन्द्रक भित्ति के अन्दर न्यूक्लियोप्लाज्म (nucleoplasm) भरा रहता है। Nucleoplasm के अन्दर बहुत-से गुणसूत्र (chromosomes) होते हैं। गुणसूत्रों में DNA, RNA, प्रोटीन तथा हिस्टोन होते हैं। केन्द्रक में इनका अनुपात इस प्रकार से होता है –

प्रोटीन-70%, DNA-19%, RNA-2-3%, फॉस्फोलिपिड-3-5%

केन्द्रक भित्ति (Nuclear membrane)—यह दो परतों की बनी ऐसी रचना होती है, जो कि केन्द्रक के सभी अंगों को बाँधकर रखती है। इसकी प्रकृति प्लाज्मा झिल्ली की तरह की

ही होती है। इसकी प्रत्येक परत लगभग 75A मोटी होती है। इसकी बाहरी परत में छिद्र होते हैं, – अन्दर की परत में नहीं।

केन्द्रिक (Nucleolus)-यह केन्द्रक के न्यूक्लियोप्लाज्म में कुछ गहरे कणों का भाग होता है। ये कण प्रोटीन रचना में सहायता करते हैं। न्यूक्लियोलाइ के बाहर कोई परत अथवा झिल्ली नहीं होती है। इनकी रचना दो प्रकार के कणों से होती है- (i) पार्स ग्रेन्यूलोसा (Pars granulosa) तथा (ii) पार्स फाइब्रोसा (Pars fibrosa)। इनमें लिपिड्स, कार्बोहाइड्रेट्स तथा प्रोटीन्स भी होते हैं। विभाजन की late प्रोफेज अवस्था में nucleoli नहीं दिखाई देते, लेकिन telophase अवस्था में ये फिर दिखाई देने लगते हैं।

गुणसूत्र (Chromosomes)-ये लम्बे पतले धागे की तरह की संरचनाएँ होती हैं। प्रत्येक गुणसूत्र में क्रोमैटिड्स का एक जोड़ा होता है। इसमें एक centromere भी होता है जिसके स्थान पर गुणसूत्र झुके रहते हैं। गुणसूत्रों में DNA, RNA तथा प्रोटीन्स होते हैं। DNA की कोर के बाहर प्रोटीन्स लगे रहते हैं।

DNA एक बड़ी, double helical रचना होती है, जो कि अविभाजित होने वाले कणों की बनी होती है। इसका अणुभार (molecular weight) बहुत अधिक होता है। यह बहुत-से nucleotides का बना होता है। प्रत्येक nucleotide में पेन्टोस deoxyribose sugar, फॉस्फोरिक अम्ल तथा एक nitrogenous base होता है। नाइट्रोजीनस क्षारकों में 2 purines होते हैं तथा 2 pyrimidines होते हैं। DNA के purines, adenine तथा guanine होते हैं तथा इसके pyrimidines, cytosine तथा thymine होते हैं।

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