Genus Puccinia Graminis Tritici BSc Botany Notes
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प्रश्न 11 – गेहूँ पर पक्सीनिया प्रैमिनिस ट्रिटिसाई की विभिन्न अवस्थाओं का सचित्र वर्णन कीजिए।
अथवा ‘पक्सीनिया प्रैमिनिस ट्रिटिसाई‘के जीवन–चक्र का वर्णन कीजिए।
उत्तर –
वंश–पक्सीनिया प्रैमिनिस
(Genus : Puccinia graminis tritici) Notes
गेहूँ का काला किट्ट (Black Rust) रोग पक्सीनिया प्रैमिनिस ट्रिटिसाई (P. graminis tritici) के द्वारा होता है। इटली के कवकविज्ञ टी० पक्सीनी (T. Puccini) के नाम पर इसको पक्सीनिया नाम दिया गया। सर्वप्रथम पियरसन (1797) ने इस रोग की कवक द्वारा उत्पत्ति की पुष्टि की।
पक्सीनिया की 3000-4000 जातियाँ परजीवी रूप में आवृतबीजी पादपों पर मिलती हैं। Butler तथा Bisby (1958) ने भारत में इसकी 262 जातियाँ बतायी हैं। यह कवक एक अविकल्पी परजीवी (obligate parasite) है। इसकी अनेक जातियाँ अनाज वाली फसलों पर भयानक किट्ट रोग (Rust diseases) उत्पन्न करती हैं। इसे गेरुआ के नाम से भी जाना जाता है। परपोषी पादप के वायवीय भागों पर लोहे के जंग जैसे चूर्ण के समान धब्बे रोग के लक्षण होते हैं।
कवक द्वारा गेहूँ में तीन प्रकार का किट्ट रोग होता है
(i) काला या स्तम्भ किट्ट (Stem Rust)-यह पक्सीनिया प्रैमिनिस ट्रिटिसाई द्वारा होता है।
(ii) पीला या स्ट्रिप्ड लीफ रस्ट (Yellow or Striped Leaf Rust)—यह पक्सीनिया स्ट्रिफॉर्मिस (P. striformis) से होता है।
(iii) ब्राउन या ऑरेन्ज रस्ट (Brown or Orange Rust)-यह पक्सीनिया रिकोन्डिटा (P. recondita) द्वारा होता है।
गेहूँ पर पक्सीनिया प्रेमिनिस ट्रिटिसाई की अवस्थाएँ
(Stages of Puccinia graminis tritici on Wheat) Notes
- यूरीडियल अवस्था (Uredial Stage) ___
- टीलियल अवस्था (Telial Stage). ___
I.यूरीडियल अवस्था (Uredial Stage)
रोग के लक्षण दीर्घ वृत्त (oblong), लाल–कत्थई (reddish-brown) पस्ट्यूल (pustules) के रूप में तने पर दिखाई देते हैं। रोग के पुराना होने पर पस्टियूल पर्ण आच्छद (leaf sheath), पर भी दिखाई देने लगते हैं। यह रोग की यूरीडियल अवस्था (uredial stage) होती है। एक पस्ट्यूल (pustule) में अनेक यूरीडोसोराई (uredosori) मिलते हैं। सामान्यत: यूरीडोसोराई लम्बाई में एक-दूसरे से मिल जाते हैं। परिपक्व अवस्था आने पर यूरीडोसोराई फट जाते हैं तथा कत्थई चूर्ण के रूप में यूरीडोस्पोर मुक्त होकर वायुमण्डल में
बिखर जाते हैं। प्रत्येक यूरीडोस्पोर (uredospore) दीर्घवत्त या अण्डाकार एककोशिकीय वृन्तयुक्त, द्विकेन्द्रकी होता है। यूरीडोस्पोर्स पोषक की बाह्यत्वचा के नीचे स्थित होते हैं। बाह्यत्वचा के फटने पर यूरीडोस्पोर्स अपने वृन्त से पृथक् होकर हवा में एक स्थान से दूसरे स्थान को जा सकते हैं। यूरीडोस्पोर की भित्ति द्विस्तरीय होती है. बाहरी भित्ति को एक्सोस्पोरियम तथा अन्दर की भित्ति को एण्डोस्पोरियम कहते हैं. बाहरी भित्ति छोटे काँटेयुक्त कत्थई रंग की होती है। बाहरी दीवार में मध्य रेखा (eauator) पर चार अंकुर र (germ pores) मिलते हैं जो एक-दूसरे से बराबर दूरी पर स्थित होते हैं यूरीडास्पोर का
प्रोटोप्लाज्म तेलीय तथा कत्थई रंग का होता है। परपोषी (host) की सतह पर जल की बूंद या पतली फिल्म मिलने पर यूरीडोस्पोर अंकुरित होते हैं। इनमें अंकुरण के फलस्वरूप एक्सोस्पोर को भेदकर एण्डोस्पोर एक नाल के रूप में बाहर निकलती है जो परपोषी की बाह्यत्वचा में रन्ध्र के पास पहुँचती है रन्ध्र पर पहुँचकर अंकुरण नाल का सिरा फूलकर लगनांग (appressorium) बनाता है। लगनांग में प्रोटोप्लाज्म इकट्ठा हो जाता है तथा एक पट द्वारा अंकुरण नाल से पृथक् हो जाता है। लगनांग (appressorium) के बीच में एक कीलिका (peg) रन्ध्र में होकर नीचे के इण्टरसेलुलर स्थानों में पहुँच जाती है। इस कालिका (peg) का सिरा फूलकर वेसीकिल (vesicle) बनाता है। वेसीकिल में प्रोटोप्लाज्म एकत्रित हो जाता है। इसमें से कवकसूत्र निकलकर परपोषी के इण्टरसेलुलर स्थानों में प्रवेश करते हैं। कवकजाल चूषकांग (haustoria) द्वारा भोजन परपोषी से लेता है तथा तेजी से वृद्धि करता है। यह नया कवकजाल फिर यूरीडोस्पोर का निर्माण करता है और ये फिर से फसल को संक्रमित करते हैं। नए यूरीडोस्पोर बनने में 6-10 दिन का समय लगता है। इस प्रकार अनेक बार यूरीडोस्पोर बनते हैं, अत: इनको रिपीटिंग स्पोर भी कहा जाता है। यूरीडोस्पोर बनने में बाह्यत्वचा के नीचे स्थित सघन हाइफी की द्विकेन्द्रकीय बेसल कोशिकाओं की एक कतार होती है। प्रत्येक बेसल कोशिका विभाजित होकर ऊपरी तथा निचली पुत्री कोशिका बनाती है। निचली पुत्री कोशिका विभाजित नहीं होती है तथा पाद कोशिका कहलाती है। ऊपरी पुत्री कोशिका विभाजित होकर वृन्त तथा यूरीडोस्पोर्स बनाती है। _
यूरीडोस्पोर्स तेजी के साथ रोग फैलाते हैं तथा पूरी फसल को संक्रमित कर देते हैं। 95°-100° फारेनहाइट तक इसकी जीवनक्षमता (viability) होती है। गर्मी के दिनों में तापमान इससे अधिक हो जाता है। अत: यूरीडोस्पोर्स नष्ट हो जाते हैं। गर्मी में 3200-4500 फीट ऊँचाई पर पहाड़ों में ये सुरक्षित रहते हैं। बहुत अधिक ठण्ड में इनकी जीवन क्षमता सुरक्षित नहीं रहती है।
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टीलियल अवस्था (Telial Stage) ___
जब ताप अधिक हो जाता है तथा गेहूँ की फसल पकने लगती है, तब कवक का द्विकेन्द्रकी कवकजाल यूरीडोस्पोर्स के स्थान पर वृन्तयुक्त, द्विकोशिकीय, टेल्यूटोस्पोर्स बनाता है। आरम्भ में टेल्यूटोस्पोर्स, यूरीडोस्पोर्स अलग बनने लगते हैं। ये देखने में अनियमित. लम्बे, गहरे, कत्थई या काले पपड़ी जैसे (crust like) धब्बों के रूप में होते हैं। ये स्पोर्स फसल के अन्तिम समय में बनते हैं। अत: टीलियोस्पोर (teliospores) कहलाते हैं। इनका सोरस टीलियोसोरस कहलाता है। ये बाह्यत्वचा के नीचे बनते हैं। परिपक्व टीलियोस्पोर बाह्यत्वचा को भेदकर बाहर निकलते हैं।
बाह्यत्वचा के नीचे एकत्रित हुए द्विकेन्द्रकी कवकजाल के उदग्र कवकसूत्रों (vertical hyphae) के सिरे की कोशिका टीलियोस्पोर कहलाती है। यह कोशिका विभाजन के पश्चात् दो कोशिकाएँ बनाती है। निचली कोशिका विभाजित होकर वृन्त तथा ऊपरी कोशिका विभाजित होकर दो- दो केन्द्रक मिलते हैं। इसके कोशिकाद्रव्य में तेल तथा रिक्तिकाएँ भी शाशकाएं बनाती है। दोनों कोशिकाएँ पट द्वारा बिल्कुल अलग नहीं होती हैं।
इन दोनों का बाहरी दीवार एक ही होती है। केवल मध्य पट के स्थान पर संकीर्णन ion) द्वारा टीलियोस्पोर द्विकोशिकीय प्रतीत होता है। टीलियोस्पोर की दोनों म दो-दो केन्द्रक मिलते हैं। इसके कोशिकाद्रव्य में तेल तथा रिक्तिकाएँ भी मिलती हैं। इनकी बाह्यभित्ति मोटी तथा गहरे कत्थई रंग की होती है। टीलियोस्पोर लम्बे, सिरों पर पतले तथा बीच में चौड़े होते हैं। सिरे पर भित्ति अधिक मोटी होती है। ऊपरी कोशिका के सिरे पर तथा नीचे की कोशिका में पट के ठीक नीचे एक तरफ अंकुर छिद्र (germ pore) होता है। टीलियोस्पोर की लम्बाई 49 – 60u तथा चौड़ाई 15 – 20u तक होती है। अति दुर्लभ (rarely) अवस्था में टीलियोस्पोर एककोशिकीय हो सकता है, तब इसे मीसोस्पोर कहते है। इनके बनने का अनुकूल तापमान 70-75°F है।
टीलियोस्पोर्स के कारण गेहूँ की पत्तियों तथा तने पर काले रंग की धारियाँ बन जाता है। ये टीलियोसोराई (teliosori) कहलाते हैं। टेल्यूटोस्पोर्स शरद् ऋतु में प्रसुप्तावस्था . (dormant stage) में पड़े रहते हैं जो गेहूँ में लूंठों (stubbles) तथा टिलर्स (tillers) पर मिलते हैं।
परिपक्व अवस्था में टीलियोस्पोर की भित्ति अधिक मोटी तथा गहरे कत्थई रंग की हो जाती है। प्रत्येक कोशिका के दोनों केन्द्रक संयुक्त (fuse) होकर द्विगणित केन्द्रक बनाते हैं। टीलियोस्पोर्स विश्रामकाल (resting period) के पश्चात् पानी की बूंद या ओस में अंकुरित हो सकते हैं। अंकुरण से पहले शीत तापमान (freezing temperature), मिलना आवश्यक है, परन्तु टैल्यूटोस्पोर्स को अंकुरण के लिए परपोषी की आवश्यकता नहीं हाती हैं।
बेसीडियोस्पोर (Basidiospore)
अनुकूल परिस्थितियों में टीलियोस्पोर का प्रोटोप्लाज्म सक्रिय हो जाता तथा स्पोर की दोनों कोशिकाओं के अंकुरछिद्रों से होकर एक नाल समान संरचना प्रोमिसीलियम बाहर निकलती है, इसको बेसीडियम कहते हैं। द्विगणित केन्द्रक मियोसिस द्वारा चार अगुणित केन्द्रक बनाता है। प्रत्येक पूर्वसूत्र (promycelium) पट द्वारा चार एक केन्द्रक वाली कोशिकाओं में बँट जाता है। बेसीडियम की प्रत्येक कोशिका से पट के ठीक नीचे तथा अग्र कोशिका में सिरे पर एक स्टेरिग्मा बनता है। प्रत्येक स्टेरिग्मा पर एक बेसीडियोस्पोर विकसित होता है, इसको स्पोरीडियम (sporidium) भी कहते हैं। पक्सीनिया एक विषमजालिक (heterothallic) कवक है, इसलिए इसमें दो प्लस तथा दो माइनस स्ट्रेन के बेसीडियोस्पोर्स बनते हैं। ये स्पोर्स रूपान्तरित होते हैं।
ये बेसीडियोस्पोर स्टेरिग्मा से शीघ्र अलग होकर वायु द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाए जा सकते हैं। ये अब गेहूँ पर आक्रमण नहीं करते हैं। ये दूसरे एकान्तरित परपोषी (alternate host) बरबेरिस पर ही अंकुरित हो सकते हैं। कभी-कभी उचित परपोषी के अभाव में बेसीडियोस्पोर्स एक छोटी अंकुरण नाल बनाते हैं। बीजाणु का केन्द्रक विभाजित होकर अनेक केन्द्रक बनाता है तथा ये अंकुरण नाल के सिरे में एकत्रित हो जाते हैं। सिरा फूलकर गोल संरचना द्वितीयक बेसीडियोस्पोर या द्वितीयक स्पोरीडियम बनाता है।
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Thanks notes ke liye