BSC Chemical Bonding Chemistry Notes
BSC Chemical Bonding Chemistry Note:-
(a) Covalent Bond: Valence bond theory and its limitations, directional characteristics of the covalent bond, various types of hybridization, and shapes of simple inorganic molecules and ions. Valence shell electron pair repulsion (VSEPR) theory to :-
NH3, H3O+, SF4, CIF3, ICI2-and H2O, MO theory, homonuclear and heteronuclear (CO and NO) diatomic molecules, multicenter bonding in electron-deficient molecules, bond strength and bond energy percentage ionic character from dipole moment and electronegativity difference.
(B) Ionic Solids: Ionic structures, radius ratio effect, and coordination number, limitation of radius ratio rule; lattice defects. semiconductors, lattice energy and Born-Haber Cycle, solvation energy and solubility of ionic solids, polarizing power, and polarizability of ions. Fagan’s rule, Metallic bond-free electron, valence bond, and bond theories.
(C) Weak Interactions: Hydrogen bonding, van der Waals forces.
Unit II
प्रश्न 10. संयोजी कक्षा इलेक्ट्रॉन युग्म प्रतिकर्षण (VSEPR) सिद्धान्त को संक्षा में समझाइए। इस सिद्धान्त के आधार पर CH4, NH3, तथा H2O के अणुओं की आकृति को स्पष्ट कीजिए। VSEPR सिद्धान्त की सीमाएँ भी दीजिए।
अथवा संयोजी कोश इलेक्ट्रॉन युग्म प्रतिकर्षण (VSEPR) सिद्धान्त को उदाहरण सहि समझाइए।
उत्तर : संयोजी कक्षा इलेक्ट्रॉन युग्म
प्रतिकर्षण (VSEPR) सिद्धान्त
यह सिद्धान्त गिलेस्पी तथा नाइहोम ने सन् 1957 ई० में सहसंयोजी अणुओं की ज्यामि का स्पष्टीकरण करने हेतु प्रस्तुत किया था। इस सिद्धान्त के मुख्य अभिगृहीत निम्नलिखित हैं
(1) किसी अणु के केन्द्रीय परमाणु के इलेक्ट्रॉन युग्म जितना सम्भव हो सके उत दूर–दूर रहने चाहिए। प्रत्येक इलेक्ट्रॉन युग्म आकाश में एक निश्चित क्षेत्र को घेरता है ॐ अन्य इलेक्ट्रॉन उस क्षेत्र से बाहर कर दिए जाते हैं। इस प्रकार इलेक्ट्रॉन युग्म कक्षक ऐ व्यवहार करते हैं, मानो कि वे एक-दूसरे को प्रतिकर्षित कर रहे हों और एक-दूसरे से अधिकतम सम्भावित दूरी पर रहते हैं।
(2) परमाणु की सतह पर अनाबन्धी वाला इलेक्ट्रॉन युग्म [एकाकी (lone) युग्म आबन्धी वाले इलेक्ट्रॉन युग्म [साझा युग्म] की अपेक्षा आकाश में अधिक स्थान घेरता है इसका कारण यह है कि इलेक्ट्रॉनों का एकाकी युग्म केवल एक नाभिक के प्रभाव में रहता है जबकि इलेक्ट्रॉनों का साझित युग्म दो नाभिकों के प्रभाव में रहता है।
(3) यदि सभी संकर कक्षकों में इलेक्ट्रॉनों के साझा युग्म हैं तो अणु की ज्यामिति नियमित होती है। यदि एक या अधिक संकर कक्षकों में इलेक्ट्रॉनों के एकाकी युग्म हैं त अणु की ज्यामिति कुछ सीमा तक विकृत होती है। प्रतिकर्षित बल इस क्रम में घटता है एकाकी युग्म और एकाकी युग्म > एकाकी युग्म और साझा युग्म > साझा युग्म और साझा युग्म
(4) दीबन्ध के दो इलेक्ट्रॉन युग्म तथा त्रिबन्ध के तीन इलेक्ट्रॉन युग्म, एकल बन्ध के बन्ध युग्म से अधिक स्थान घेरते हैं जिससे बहुबन्ध के एकल युग्मों पर प्रतिकर्षण अधिक होता है और आपेक्षिक बन्ध कोण में कमी आ जाती है।
जैसे O = CF2, के अणु में कार्बन sp2– संकरित है, अत: अणु की संरचना त्रिभुजीय तथा बन्ध कोण 120° होना चाहिए किन्तु बन्ध कोण 108° होता है। बन्ध कोण की यह कमी C=O के कारण होती है क्योंकि द्विबन्ध का CF बन्ध युग्म पर प्रतिकर्षण बल अधिक होगा। इसी प्रकार POCI3 (O= PCl3) के अणु में फॉस्फोरस sp3 संकरित है, परन्तु बन्ध कोण 103°6′ है।
(5) द्वितीय आवर्त के तत्वों में इलेक्ट्रॉन युग्मों के मध्य प्रतिकर्षण तृतीय तथा बाद के आवर्त के सदस्यों में इलेक्ट्रॉन युग्मों के मध्य प्रतिकर्षण से अधिक होता है।
जैसे-(i) NH3 (106 . 7° )> PH3 (93 : 3° )> AsH3 (91 • 8°) > SbH3 (91 – 3°)
(ii) H2O (104 – 5°)> H2S (92 • 2° )> H2Se (91 – 0° )> H2Te (90° )
VSEPR सिद्धान्त के आधार पर CHA , NH3 तथा H20 के अणुओं की आकृति
- CH4 का अणु– मेथेन के अणु में कार्बन परमाणु sp3-संकरित है,
अत: C = 1s2, 2s1 2p1x 2 p1y 2 p1z (उत्तेजित अवस्था)
इस कार्बन परमाणु में चार sp3 संकरित कक्षक उपस्थित हैं जो एक-दूसरे के साथ 109° 28′ के कोण पर चतुष्फलकीय आकार में अभिविन्यासित हैं। इन चारों sp3-संकरित कक्षकों को चार हाइड्रोजन परमाणुओं के चार s-कक्षक (1s1) उनके अक्षों पर अतिव्यापित करते हैं, फलस्वरूप चार सिग्मा बन्धों का निर्माण होता है। अतः मेथेन अणु की संरचना चतुष्फलकीय होती है (चित्र-13)। इसमें VSEPR सिद्धान्त लागू नहीं होता है।
- NH3 का अणु– अमोनिया में केन्द्रीय परमाणु नाइट्रोजन का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 1s2, 2s2, 2p3 है। अब एक s और तीन p-कक्षक संकरण करके चार संकर कक्षकबनाते हैं जिनको sp3-संकर कक्षक कहते हैं। इन संकर कक्षकों में से तीन में एक-एक इलेक्ट्रॉन है तथा चौथे में इलेक्ट्रॉनों का एकाको युग्म है। एक-एक इलेक्ट्रॉन वाले तीन कक्षक तीन हाइड्रोजन परमाणुओं के एक-एक इलेक्ट्रॉन वाले 8-कक्षकों से अतिव्यापन करके तीन सिग्मा-बन्ध बना लेते हैं,
जबकि एकाकी युग्म वाला चौथा कक्षक अप्रयुक्त रह जाता है। अपेक्षित बन्ध कोण 109° 28 होना चाहिए, परन्तु वास्तविक कोण 106 – 7° है क्योंकि एकाकी युग्म और साझा युग्म में प्रतिकर्षण बल ज्यादा है। इस प्रकार अमोनिया अणु की नियमित ज्यामिति विकृत हो जाती है और इसकी आकृति पिरैमिडीय हो जाती है
NH3 की स्थिति में (दूसरी लाइन में) तीनों p-कक्षकों में एक-एक इलेक्ट्रॉन नाइट्रोज का तथा एक-एक हाइड्रोजन का है।
- H2O का अणु-जल के अणु के केन्द्रीय परमाणु ऑक्सीजन का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 1 s2, 2s2, 2 p2x p1y p1z है। अब एक s और तीन p-कक्षक संकरण करके च संकर कक्षक बनाते हैं जिनको sp3-संकर कक्षक कहते हैं।
इन संकर कक्षकों में से दो में एक-एक इलेक्ट्रॉन है तथा शेष दो में से प्रत्येक में इलेक्ट्रॉनों के एकाकी युग्म हैं। एक-एक इलेक्ट्रॉन वाले दो कक्षक दो हाइड्रोजन परमाणुओं के एक-एक इलेक्ट्रॉन वाले s-कक्षकों से अतिव्यापन करके दो सिग्मा बन्ध बनाते हैं, जबकि एकाकी युग्म वाले दो कक्षक H 104°5′
अप्रयुक्त रह जाते हैं। अनुमानित बन्ध कोण 109° 28′ होना चित्र-15 : H20 अणु की संरचना। चाहिए (sp3 -संकरण के कारण), परन्तु वास्तविक कोण 104° 5′ है। इसका कारण दो प्रतिकर्षित बलों की उपस्थिति है जिनमें एक, दो एकाकी युग्मों के मध्य तथा दूसरा, एकार्क युग्म और साझा युग्म के मध्य कार्य करता है (चित्र-15)।
सीमाएँ
इस प्रकार हम VSEPR सिद्धान्त द्वारा विभिन्न अणुओं की ज्यामितीय आकृति की व्याख्या कर सकते हैं। यहाँ पर ध्यान रखने योग्य बात है कि (क) केन्द्रीय परमाण पर उपस्थित एकाकी इलेक्टॉन युग्मों की संख्या बढ़ने पर बन्ध कोण घटता जाएगा। (ख) केन्द्रीय परमाणु का आकार बढने पर भी बन्ध कोण घटता जाएगा, यदि दूसरे परमाणु समान हैं। (ग) यदि केन्द्रीय परमाणु समान हैं तो निकटवर्ती परमाणुओं का आकार बढ़ने पर बन्ध कोण भी बढ़ता जाएगा। यदि विद्युत ऋणात्मकता का प्रश्न है तो परमाणु का आकार बढ़ने पर विद्युत ऋणात्मकता घटती है।
उदाहरण—(क) CH4(0) 109° 28′ या 109.5° > NH3 (1) 106° 45′ या लगभग 107° > H2O (2) 104°5′ या लगभग 105 – 5° यहाँ 0, 1, 2 (ब्रेकेट में) एकाकी इलेक्ट्रॉन युग्मों की संख्या है।
(ख) समूह-V में, NH3 (106 • 7° ) > PH3 (93 • 3° )> ASH3 (91 • 8°) > SbH3 (91 • 3°) समूह-VI में, H2O (104 • 5° ) > H2S (92 • 2° )> H2Se (91 • 0°) > H2Te (90°) (ग) समूह-V में, PCI3 (100°)< PBr3 (101 • 5°)< PI3 (102° ) <AsCl3 (98.5°)< AsBr3 (100 • 5°)< AsI3 (101°)
प्रश्न 11. रासायनिक बन्ध के आण्विक कक्षक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। इसके आधार पर O2, N2 तथा CO अणुओं का आण्विक विन्यास दीजिए। अथवा अणु कक्षक सिद्धान्त पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : आण्विक कक्षक सिद्धान्त
संयोजकता आबन्ध सिद्धान्त के अनुसार सहसंयोजक आबन्ध परमाणु कक्षकों के अतिव्यापन से बनता है तथा अणु में परमाणु परस्पर एक या अधिक इलेक्ट्रॉन युग्मों से जुड़े रहते हैं। अतः आबन्ध बनाने में प्रयुक्त इलेक्ट्रॉन तो अपनी पहचान खो देते हैं, परन्तु परमाणु कुछ सीमा तक अपनी पहचान बनाए रखते हैं। आण्विक कक्षक सिद्धान्त एफ० हुण्ड तथा आर० एस० मुलिकन द्वारा सन् 1932 ई० में विकसित किया गया। इस सिदा । के अनुसार संयोजी इलेक्ट्रॉन सभी नाभिकों से अर्थात् पूरे अणु के साथ जुड़े रहते हैं अथात् परमाण कक्षक परस्पर संयोग करके आण्विक कक्षक बनाते हैं जिनमें दोनों परमाणु कक्षकों की पहचान समाप्त हो जाती है। बनने वाले आण्विक कक्षकों की संख्या प्रयुक्त परमाणु कक्षकों की संख्या के समान होती है। अत: दो परमाणु कक्षकों के संयोग से दो आण्विक कक्षक बनते हैं। इनमें से एक आण्विक कक्षक की ऊर्जा संयोग करने वाले एकल परमाणु कक्षक से कम तथा दसरे आण्विक कक्षक की ऊर्जा उतनी ही अधिक होती है।
परमाणु कक्षकों की ऊर्जा से कम ऊर्जा वाले आण्विक कक्षकों में आकर्षण होने के कारण इसे आबन्धन आण्विक कक्षक (bonding molecular orbital) कहते हैं। इस आण्विक कक्षक में अतिव्यापित क्षेत्र में इलेक्ट्रॉन घनत्व पाए जाने की प्रायिकता अभिः होती है। दो धनावेशित नाभिकों के बीच अधिक इलेक्ट्रॉन घनत्व के कारण प्रतिकर्षण नहीं होन तथा ये एक-दूसरे से उचित दूरी पर रहते हैं।
परमाणु कक्षकों की ऊर्जा से अधिक ऊर्जा वाले आण्विक कक्षक मे प्रतिकर्षण हीन । कारण इसे विपरीत या प्रतिआबन्धन आण्विक कक्षक (antibonding molecular orbital) कहते हैं। इस आण्विक कक्षक के अतिव्यापित क्षेत्र में इलेक्ट्रॉनों के पाए जाने के प्रायिकता लगभग शून्य होती है। अत: दो धनावेशित नाभिकों के बीच प्रतिकर्षण होता है, तथा । एक-दूसरे से पर्याप्त दूरी पर रहते हैं।
आण्विक कक्षक सिद्धान्त के मुख्य लक्षण
आण्विक कक्षक सिद्धान्त के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) परमाणु में इलेक्ट्रॉन विभिन्न परमाणु कक्षकों में जिस प्रकार उपस्थित रहते हैं, प्रकार अणु में इलेक्ट्रॉन विभिन्न आण्विक कक्षकों में उपस्थित रहते है।
(2) आण्विक कक्षक तुल्य ऊर्जाओं एवं उपयुक्त सममिति वाले परमाणु कक्षक संयोग से बनते हैं।
(3) परमाणु कक्षक में कोई इलेक्ट्रॉन केवल एक ही नाभिक के प्रभाव में रहता है जबकि आण्विक कक्षक में उपस्थित इलेक्ट्रॉन दो या दो से अधिक नाभिकों द्वारा प्रभाव होता है। यह संख्या अणु में परमाणुओं की संख्या पर निर्भर करती है। इस प्रकार परमाणु का एकलकेन्द्रीय होता है, जबकि आण्विक कक्षक बहुकेन्द्रीय होता है।
(4) बने हुए आण्विक कक्षकों की संख्या संयोग करने वाले परमाण कक्षकों की संख के बराबर होती है। जब दो परमाणु कक्षकों को मिलाया जाता है, तो दो आण्विक कक्षक प्रा होते हैं। इनमें से एक को आबन्धन आण्विक कक्षक और दूसरे को प्रतिआबन्धन आणिवक कक्षक कहा जाता है।
(5) आबन्धन आण्विक कक्षक की कहां कम होती है। अतः दमका स्थायित्व संगत प्रतिआबन्धन आण्विक कक्षक से अधिक होता है।
(6) किसी परमाणु के नाभिक के चाग और इलेक्ट्रॉन प्रायिकता वितरण जिस प्रकार परमाण कक्षक द्वारा दिया जाता है, उसी प्रकार किसी अण म नाभिकों के समूह के चारो ओर इलेक्ट्रॉन प्रायिकता वितरण आण्विक कसक द्वारा दिया जाता है।
(7) परमाणु कक्षको की भांति आण्विक कक्षकों को भी पाटली सिद्धान्त तथा हुण्ड के नियम का पालन करते हुए ऑफबाऊ नियम के अनुसार मग जाता है।
परमाणु कक्षकों के संयोग की शर्ते
परमाणु कक्षकों के रैखिक संयोग से आण्विक कक्षकों के निर्माण के लिए निम्नलिखित शर्ते अनिवार्य हैं
(1) संयोग करने वाले परमाणु कक्षकों की ऊर्जा समान या लगभग समान होनी चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि एक 1s-कक्षक दुसर 1s -कक्षक से संयोग कर सकता है, परन्तु 2s-कक्षक से नहीं क्योकि 2s-कक्षक की ऊर्जा 1s-कक्षक की ऊर्जा से कहीं अधिक होती है। (यह सत्य नहीं होगा, यदि परमाणु भिन्न प्रकार के हो।)
(2) संयोग करने वाले परमाणु कक्षकों की आण्विक अक्ष के परितः समान सममिति होनी चाहिए। परिपाटी के अनुसार Z-अक्ष को आण्विक अक्ष मानते हैं। यहाँ यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि समान या लगभग समान ऊर्जा वाले परमाणु कक्षक केवल तभी संयोग करेंगे, जब उनकी सममिति समान हो, अन्यथा नहीं। उदाहरण के लिए, 2pz परमाणु कक्षक दृसरे परमाणु के 2pz-कक्षक से संयोग करेगा, परन्तु 2px या 2py -कक्षकों से नहीं क्योंकि उनकी सममितियाँ समान नहीं हैं।
(3) संयोग करने वाले परमाणु कक्षकों को अधिकतम अतिव्यापन करना चाहिए। जितना अधिक अतिव्यापन होगा, आण्विक कक्षकों के नाभिकों के बीच इलेक्ट्रॉन घनत्व उतना ही अधिक होगा।
आण्विक कक्षक सिद्धान्त के आधार पर अणुओं के आण्विक विन्यास
प्रश्न 12. (अ) आण्विक कक्षकों की आपेक्षिक ऊर्जाओं में अन्तर की विवेचना कीजिए।
उत्तर : आण्विक कक्षकों की ऊर्जाओं में अन्तर करने के लिए निम्नलिखित तथ्य महत्त्वपूर्ण हैं
(1) आण्विक कक्षकों की आपेक्षिक ऊर्जा, इनके निर्माण में सम्मिलित परमाणु कक्षको की ऊर्जाओं पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, 2s परमाणु कक्षकों के संयोजन से बने आण्विक कक्षकों की ऊर्जा, 1s परमाणु कक्षकों के संयोजन से बने आण्विक कक्षकों से उच होगी।
(2) आण्विक कक्षकों के एक ही युग्म में आबन्धन आण्विक कक्षक की ऊर्ज प्रतिआबन्धन आण्विक कक्षक से कम होती है।
(3) प्रतिआबन्धन कक्षक की ऊर्जा संयोग करने वाले परमाणु कक्षकों की ऊर्जा से उतन मात्रा में अधिक हो जाती है, जितनी मात्रा में आबन्धन आण्विक कक्षक की ऊर्जा कम होती है इस प्रकार दोनों आण्विक कक्षकों की कुल ऊर्जा वही रहती है, जो दो मूल परमाणु कक्षकों के होती है।
प्रश्न 12. (ब) सिग्मा बन्ध पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : सिग्मा (σ)
बन्ध दो कक्षकों का एक अक्ष पर उनके सिरों द्वारा (end to end) अतिव्यापन होने से बनने वाला बन्ध सिग्मा बन्ध कहलाता है। इस प्रकार का बन्ध s-s, s-p या p-p कक्षकों के एक रैखिक (linear) अतिव्यापन से बनता है। अतिव्यापन अधिकतम होने के कारण बनने वाला बन्ध प्रबल होता है।
s-sअतिव्यापन : s-कक्षक सममित गोलाकार होता है। अतः इसका दूसरे s-कक्षक के साथ अतिव्यापन सदैव अधिकतम होगा तथा सिग्मा बन्ध बनाएगा।
p—p अतिव्यापन : p—p कक्षकों के एक रैखिक अतिव्यापन से -बन्ध का व हैलोजेन अणुओं (F2, Cl2, इत्यादि) द्वारा प्रदर्शित किया गया है।
प्रश्न 13. निम्नलिखित प्रत्येक पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए :
(अ) संयोजी आबन्ध सिद्धान्त तथा अणु कक्षक सिद्धान्त की तुलना
(ब) हाइड्रोजन आबन्ध
उत्तर : (अ) संयोजी आबन्ध सिद्धान्त व अणु कक्षक सिद्धान्त की तुलना
क्र० सं० | संयोजी आबन्ध सिद्धान्त | अणु कक्षक सिद्धान्त |
1. | अणु में संयोग करने वाले परमाणु आबन्ध बनने के बाद भी अपनी पहचान बनाए रखते हैं। | अणु में संयोग करने वाले परमाणु आबन्ध बनने के बाद अपनी पहचान खो देते हैं। |
2. | संयोजी कक्ष के अर्द्ध-पूर्ण कक्षक आबन्ध बनाने में भाग लेते हैं। | संयोजी कक्ष के भरे हुए या खाली सभी कक्षक आबन्ध बनाने में भाग लेते हैं। |
3. | यह सिद्धान्त ऑक्सीजन के अनुचुम्बकीय (paramagnetic) गुण को स्पष्ट नहीं करता। | यह सिद्धान्त ऑक्सीजन के अनुचुम्बकीय गुण को स्पष्ट करता है। |
4. | इस सिद्धान्त में अनुनाद (resonance) की मुख्य भूमिका होती है। | इस सिद्धान्त में अनुनाद की कोई भूमिका नहीं होती है। |
(ब) हाइड्रोजन आबन्ध
जब हाइड्रोजन परमाणु किसी अत्यधिक विद्युत ऋणात्मक तथा छोटे तत्व (जैसे—O, F) के साथ इलेक्ट्रॉनों को साझा करके आबन्ध बनाता है तो साझे के इलेक्ट्रॉन वि. ऋणात्मक तत्व की ओर अधिक आकर्षित रहते हैं जिस कारण हाइड्रोजन परमाणु पर आ धनावेश तथा विद्युत ऋणात्मक तत्व के परमाणु पर आंशिक ऋणावेश आ जाता है। इस का ऋणावेशित सिरा इस स्थिति में यदि समान या भिन्न अणु के धनावेशित सिरे को आक करें तो लगने वाला आकर्षण बल हाइड्रोजन आबन्ध कहलाता है। यह दो प्रकार का होता है
(i) अन्तराअणुक H- बन्धता (Intermolecular H-bonding)
यह सदैव समान या असमान पदार्थों के भिन्न-भिन्न अणुओं के मध्य निर्मित होता है। उदाहरण—
- हाइड्रोफ्लुओरिक अम्ल (HF)
चूँकि इस प्रकार की हाइड्रोजन बन्धता में बहुत से अणु संगुणित (associated) हो जात है, अत: इसके परिणामस्वरूप यौगिक का क्वथनांक बढ़ जाता है।
पुनः जो यौगिक जल के साथ हाइड्रोजन-आबन्ध बना सकते हैं उनकी विलेयता भी अन्तराअणुक H-आबन्ध के कारण बढ़ जाती है।
इस प्रकार की बन्धता श्यानता में वृद्धि के लिए भी उत्तरदायी होती है। अधिक हाइडोजन बन्ध का निर्माण होने पर श्यानता भी उच्च होती है। उदाहरण—
अन्तर अणुक H- आबन्ध के निर्माण के फलस्वरूप यौगिक का क्वथनांक तथा इसके जल में विलेयता कम हो जाती है जबकि इसकी वाष्पशीलता बढ़ जाती है। इसी गुण का प्रयोग करके o-नाइट्रोफीनॉल को p-नाइट्रोफीनॉल से पृथक् किया जाता है।
प्रश्न 14. (अ) द्विध्रुव आघूर्ण के अनुप्रयोगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर : द्विध्रुव आघूर्ण के मान अणुओं की संरचना के विषय में उपयोगी जानक देते हैं। कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं
(1) कार्बन डाइऑक्साइड के अणु का द्विध्रुव आघूर्ण शून्य होता है। यद्यपि प्रत्ये कार्बन-ऑक्सीजन बन्ध का स्थायी द्विध्रुव आघूर्ण होता है। ऐसा CO2 के अणु के एक रेख होने पर ही सम्भव है क्योंकि ऐसी स्थिति में अणु के एक ओर का द्विध्रुव आघूर्ण अणु के दस
ओर के द्विध्रुव आघूर्ण से उदासीन हो जाता है। इसी प्रकार से CS2, BeF2, के अणु भी र रेखीय होते हैं।
(2) BF3, CH4, CCl4, SF6, बेन्जीन आदि अणुओं का द्विध्रुव आघूर्ण शून होता है। इससे यह प्रदर्शित होता है कि इन अणुओं की संरचना सममित है।
(3) जल के अणु का द्विध्रुव आघूर्ण 1 · 84 D है जिससे यह प्रदर्शित होता है कि जल का अण एक रेखीय नहीं है। अणु की संरचना असममित या झुकी हुई होनी चाहिए। यह देखा गया है कि प्रत्येक O-H बन्ध का द्विध्रुव आघूर्ण 1 · 60 D है, अत: बन्ध कोण 104·5° है। इसी प्रकार से SO2, (μ = 1 · 60D) तथा NH3 (μ = 1 · 46D) की संरचनाएँ भी सममित नहीं हैं।
(4) ज्यामितीय समावयवियों में समपक्ष रूप के द्विध्रुव आघूर्ण का मान अधिक होता है जबकि विपक्ष रूप का द्विध्रुव आघूर्ण शून्य या बहुत कम होता है। उदाहरण के लिए, 1·2-डाइक्लोरो एथीन के समपक्ष रूप का द्विध्रुव आघूर्ण 1 · 89 D होता है, जबकि विपक्ष रूप का द्विध्रुव आघूर्ण शून्य होता है
(5) द्विध्रुव आघूर्ण के मान से ऐरोमैटिक प्रतिस्थापन के विषय में भी जानकारी प्राप्त होती है। दोनों प्रतिस्थापियों के समान होने पर पैरा यौगिक का द्विध्रुव आघूर्ण शून्य होना चाहिए। इसका कारण यह है कि ऐसा अणु सममित होता है तथा दोनों बन्ध समावयवी आघूर्ण . -एक-दूसरे को पूर्ण रूप से उदासीन कर देते हैं। ऑर्थो समावयवी का द्विध्रुव आघूर्ण मेटा समावयवी की अपेक्षा अधिक होता है। उदाहरण के लिए, ऑर्थो, मेटा व पैरा डाइनाइट्रोबेन्जीन के द्विध्रुव आघूर्ण निम्नांकित हैं
प्रश्न 14. (ब) संकरण की अभिधारणा को स्पष्ट कीजिए। इसी आधार पर NH3, H2O व HF यौगिकों का क्या आकार होगा?
अथवा संकरण से आप क्या समझते हैं? इसके प्रमुख नियम व गुण समझाइए।
अथवा संकरण पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : संकरण
C का परमाणु क्रमांक 6 है इसका इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 1 s2,2s22p2 है
इस प्रकार इसमें दो अयुग्मित इलेक्ट्रॉन हैं जो दो बन्ध बना सकते हैं, जिसके कारण यः द्वि-संयोजी होगा, परन्तु जब कार्बन परमाणु संयोजन करता है तो वह उत्तेजित होकर 2s इलेक्ट्रॉनों में से एक इलेक्ट्रॉन 2 pz कक्षक को दे देता है, इस प्रकार कार्बन का उनि अवस्था में इलेक्ट्रॉनिक विन्यास निम्नांकित हो जाता है—\
इस इलेक्ट्रॉनिक विन्यास के कारण कार्बन की संयोजकता चार होगी, परन्तु ये चार है संयोजकताएँ समान नहीं होंगी, जबकि कार्बन की चारों संयोजकताएँ समान होती हैं, अत: – चारों इलेक्ट्रॉन अयुग्मित कक्षक (2 s1, 2 p1x, 2p1y, तथा 2 p1z) परस्पर मिश्रित होकर चार समान ऊर्जा व आकृति के नए कक्षक बनाते हैं जिनको संकरित कक्षक कहते हैं तथा इस को संकरण कहते हैं। ये एक-दूसरे के साथ 109°28′ का कोण बनाते हैं। ये चारों नये कम समचतुष्फलक के चारों कोनों की ओर प्रदर्शित होते हैं, जबकि कार्बन परमाणु को केन्द्र पर स्थित माना जाता है। इस प्रकार कार्बन समचतुष्फलकीय संयोजकता व्यक्त करता है।
“वह प्रक्रम जिसमें व्यक्तिगत परमाणुओं या आयनों की बाह्यतम कक्ष के असमा अयुग्मित कक्षकों में ऊर्जा का पुनर्वितरण इस प्रकार से होता है कि उस परमाणु के उत्य नए कक्षकों ( समान संख्या) में ऊर्जा की मात्रा समान हो जाए, ‘संकरण‘ कहलाता इससे प्राप्त नये कक्षक ‘संकरित कक्षक‘ कहलाते हैं।”
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उदाह्र्रण— मेथेन के अणु की आकृति चतुष्फलकीय होती है। इसमें कार्बन परमाणु का बाहातम कक्ष के एक s-कक्षक तथा तीन p-कक्षक (अयुग्मित) संकरित होकर चार sp3-संकरित कक्षक बनाते हैं जो परस्पर एक-दूसरे से 109°28′ के कोण पर जुड़े रहते है।
सकरण के नियम व गुण– संकरण के नियम व गण अर्थात इसके सम्बन्ध में आवश्यक परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं
(1) संकरण में एक परमाणु के बाह्यतम कक्ष के असमान अयुग्मित कक्षक (कभी-कभी युग्मित कक्षकों के साथ) प्रयुक्त होते हैं।
(2) यह आवश्यक नहीं है कि संकरण में बाह्यतम कक्ष में विद्यमान सभी अयुग्मित कक्षक प्रयुक्त होते हैं। इस अवस्था में अप्रयुक्त कक्षक असंकरित कक्षक कहलाते हैं, जो समान्तर अतिव्यापन द्वारा -बन्ध का निर्माण करने में प्रयुक्त होते हैं।
(3) संकरण में बाह्यतम कक्ष के वे कक्षक भाग लेते हैं जिनके मध्य ऊर्जा का अन्तर बहुत कम होता है जैसे -कक्षक p-कक्षकों के साथ संकरण में भाग लेते हैं, लेकिन d-कक्षक के साथ सीधे रूप में भाग नहीं लेते हैं।
(4) संकरण प्रक्रम में जितने कक्षक प्रयुक्त होते हैं, उतनी ही नये कक्षक प्राप्त होते हैं जो समान होते हैं, इन्हें संकरित कक्षक कहते हैं।
(5) संकरण में केवल कक्षकों का संकरण होता है, इलेक्ट्रॉनों का नहीं।
(6) संकरित कक्षकों का दिशात्मक लक्षण प्रमुख कक्षक द्वारा निर्धारित किया जाता है जैसे -कक्षक तथा p-कक्षकों के संकरण में नई संकरित कक्षकों का दिशात्मक लक्षण (आकार ) p-कक्षकों पर निर्भर करता है।
(7) संकरण के प्रकार के आधार पर अणु की ज्यामिति तथा बन्ध कोण का ज्ञान होता है।
(8) सभी संकरित कक्षक अपने कक्षों पर अतिव्यापन दर्शाते हैं जिसके फलस्वरूप ये -बन्ध बनाते हैं (युग्मित संकरित कक्षकों को छोड़कर क्योंकि वे संतृप्त होते हैं।)
(9) संकरित कक्षकों में किसी निश्चित कक्षक के गुणों का ज्ञान उनमें प्रयुक्त कक्षकों की संख्याओं के अनुपात के आधार पर ज्ञात किया जा सकता है जैसे sp–संकरित कक्षकों में -कक्षक का गुण 33.3% तथा p-कक्षकों का गुण 66 – 6% है।
(10) संकरण में ऊर्जा का अवशोषण होता है।
(11) संकरित कक्षकों में दिशात्मक गुण अधिक होता है, अतः ये प्रबल बन्ध बनाते हैं।
कुछ यौगिकों के आकार
- अमोनिया (NH3)–विस्तृत उत्तरीय प्रश्न सं० 10 में ‘NH3 का अणु’ शीर्षक देखें।
- जल (H2O)– विस्तृत उत्तरीय प्रश्न सं० 10 में ‘H2O का अणु’ शीर्षक देखें।
- हाइड्रोजन फ्लु ओराइड (HF)— हाइड्रोजन फ्लुओराइड में फ्लुओरीन परमाणु में sp3-संकरित है, अत: इसकी आकृति V-आकार की होती है तथा इनमें H-F-H कोण 140° है।
प्रश्न 15. संयोजी (या संयोजकता) बन्ध सिद्धान्त की व्याख्या इसकी सीमा: सहित कीजिए। पॉलिंग–स्लैटर ने किस प्रकार इस सिद्धान्त में संशोधन किया?
अथवा संयोजकता बन्ध सिद्धान्त की विस्तारपूर्वक विवेचना कीजिए।
उत्तर : संयोजकता बन्ध सिद्धान्त
संयोजकता बन्ध सिद्धान्त का विकास सहसंयोजी बन्ध की प्रकृति को समझने के लि हुआ। इस सम्बन्ध में दो विचार प्रस्तुत किए गए—
- हिटलर–लन्दन सिद्धान्त
यह सिद्धान्त इलेक्ट्रॉन युग्मन (pairing) तथा उनके चक्रण में उदासीनीकरण प आधारित है। इस सिद्धान्त की प्रमुख परिकल्पनाएँ निम्नलिखित हैं
(i) सहसंयोजी बन्ध बनाने वाले परमाणुओं में अयुग्मित (unpaired) इलेक्ट्रॉ होते हैं।
(ii) स्थायी सहसंयोजी बन्ध युग्मित इलेक्ट्रॉनों के विपरीत चक्रण (↿⇂) से बनता है।
(iii) बन्ध बनने के पश्चात् दोनों इलेक्ट्रॉनों में कोई भेद नहीं रहता अर्थात् यह नहीं कर जा सकता कि कौन-सा इलेक्ट्रॉन किस परमाणु का है।
(iv) इलेक्ट्रॉन के विनिमय (exchange) से विनिमय बल उत्पन्न हो जाते हैं जिससे निर्मित सहसंयोजी बन्ध और भी अधिक स्थायी हो जाता है।
(v) इलेक्ट्रॉन युग्म दोनों बंधित परमाणुओं के मध्य उपस्थित रहता है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हाइड्रोजन अणु की संरचना पर विचार करते हैं। मान प्रारम्भ में हाइड्रोजन के दो परमाणु अधिक दूरी पर स्थित हैं। इस अवस्था में एक परमाणु के स्थितिज ऊर्जा दूसरे परमाणु से प्रभावित नहीं होती अर्थात् ऊर्जा परिवर्तन शून्य होता है जैसे-जैसे दोनों परमाणु एक-दूसरे से निकट आते हैं, वैसे-वैसे उनकी ऊर्जा में परिवर्तन होत जाता है। दो समान इलेक्ट्रॉनिक चक्रण (11) वाले हाइड्रोजन परमाणुओं को पास लाने पर हुए ऊर्जा परिवर्तन को वक्र I तथा असमान इलेक्ट्रॉन चक्रण (↿⇂) वाले हाइड्रोजन परमाणुओं के पास लाने पर हुए ऊर्जा परिवर्तन को वक्र II में दर्शाया गया है (चित्र-21)। इस ऊर्जा परिवर्तन को निम्न प्रकार समझाया जा सकता है
जब दो असमान चक्रण वाले हाइड्रोजन परमाणु एक-दूसरे के अति निकट आते हैंप एक परमाणु का इलेक्ट्रॉन दूसरे परमाणु में चला जाता है जिससे एक ही परमाणु के कक्षक में दो इलेक्ट्रॉन हो जाते हैं। समान आवेश के कारण इन इलेक्ट्रॉनों के मध्य प्रतिकर्षण होता है जिससे ये पुनः अलग हो जाते हैं। इस प्रकार एक परमाण का इलेक्ट्रॉन दूसरे परमाणु में और तसरे परमाणु का इलेक्ट्रॉन पहले परमाणु में चला जाता है अर्थात इलेक्ट्रॉन के उपलब्ध होने की प्रायिकता एक परमाणु से बढ़कर दूसरे परमाणु तक हो जाती है जिसके कारण इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा कम हो जाती है।
दूसरे स्पष्टीकरण के अनुसार जब दो हाइड्रोजन परमाणु निकट आते हैं तो प्रत्येक परमाणु का इलेक्ट्रॉन एक नाभिक की बजाए दो नाभिकों का आकर्षण अनुभव करता है जिससे ऊर्जा कम हो जाती है। जब दो इलेक्ट्रॉन बहुत निकट आते हैं तो उनमें प्रतिकर्षण भी होने लगता है जिससे ऊर्जा में वृद्धि होने लगती है। चूंकि आकर्षण बल का प्रभाव प्रतिकर्षण बल की अपेक्षा अधिक होता है इसके कारण ऊर्जा कम होती जाती है। जैसे-जैसे परमाणु समीप आते जात है, वैसे-वैसे उनकी स्थितिज ऊर्जा भी कम होती जाती है (चित्र-21)। ऊर्जा की यह कमी घटत-घटते एक न्यूनतम मान तक पहुँच जाती है। यदि दोनों परमाणुओं को और अधिक निकट लाया जाता है तो दोनों नाभिकों में प्रतिकर्षण बल उत्पन्न हो जाता है जिससे ऊर्जा बढ़ने लगता है। अत: यदि दो परमाणुओं के मध्य सहसंयोजी बन्ध बनाने के लिए परमाणुओं के मध्य इतनी दूरा हो जिस पर उनकी ऊर्जा न्यूनतम हो तो इस दूरी को आबन्ध दूरी (bond length) कहते है
जब दो समान चक्रण वाले हाइड्रोजन परमाणु एक-दूसरे के निकट आते हैं तो माणुआ के लिए ऊर्जा में निरन्तर वृद्धि होती है अर्थात् ऐसे परमाणुओं का संयोग सम्भव नहीं है।
हिटलर–लन्दन सिद्धान्त की कमियाँ
(i) इस सिद्धान्त द्वारा उपसहसंयोजी बन्ध का बनना स्पष्ट नहीं किया जा सकता है।
(ii) यह सिद्धान्त विषम इलेक्ट्रॉन अणुओं या आयनों की संरचनाओं की व्याख्या कर में असफल है।
(iii) इसके द्वारा परब्रोमेटों की संरचनाओं की विवेचना नहीं की जा सकती।
(iv) इस सिद्धान्त की सहायता से सहसंयोजी बन्ध का दिशात्मक गुण भी नहीं समझाया जा सकता।
- पॉलिंग–स्लेटर का सिद्धान्त
पॉलिंग तथा स्लेटर ने हिटलर-लन्दन सिद्धान्त में सुधार किया। यह सिद्धान्त निम्नलिखित तथ्यों पर आधारित है
(i) सहसंयोजी बन्ध परमाण्विक कक्षकों के अतिव्यापन (overlapping) वाले क्षेत्र में बनता है। इस क्षेत्र में अधिकतम इलेक्ट्रॉन घनत्व होता है।
(ii) अतिव्यापन करने वाली परमाण्विक कक्षकों पर ऐसे अयुग्मित इलेक्ट्रॉन होते है जिनके चक्रण विपरीत होते हैं। परमाण्विक कक्षकों पर समान चक्रण वाले इलेक्ट्रॉन होने पर अणु का निर्माण नहीं हो सकता।
(iii) सहसंयोजी बन्धों की संख्या परमाण्विक कक्षकों में उपस्थित अयुग्मित इलेक्ट्रॉनो की संख्या के बराबर होती है।
(iv) सहसंयोजी बन्ध की शक्ति परमाण्विक कक्षकों के अतिव्यापन के अनुक्रमानुपाती | होती है।
(v) अतिव्यापन केवल उन्हीं परमाण्विक कक्षकों में होता है जो बन्ध बनाने में भाग लेते हैं।
(vi) समान ऊर्जा वाले दो परमाण्विक कक्षकों के अक्षीय अतिव्यापन द्वारा अधिक १ प्रबल बन्ध बनता है।
(vii) s-कक्षकों में इलेक्ट्रॉन घनत्व का वितरण गोलाकार (spherical) है तथा p-, d- ब एवं f– कक्षकों में दिशात्मक (directional) है। इस प्रकार सहसंयोजी बन्ध दिशात्मक होते हैं। जैसा कि निम्न उदाहरणों से स्पष्ट है
(अ) जल का अणु (H2O)-ऑक्सीजन का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 1s2, 2s22p1x 2p1y 2p1z है जिसमें 2p3, तथा 2 p1 दो अयुग्मित इलेक्ट्रॉन हैं। इन इलेक्ट्रॉनों का इलेक्ट्रॉनिक घनत्व । तथा 2 दिशाओं में रहता है। हाइड्रोजन का इलेक्ट्रॉन विन्यास 1s1 है, जिसकी सममिति (symmetry) गोलाकार है। दो हाइड्रोजन परमाणुओं के 1s1 इलेक्ट्रॉन ऑक्सीजन परमाणु के 2p1y, तथा 2p1z इलेक्ट्रॉनों से अधिकतम अतिव्यापन के पश्चात् दो O—H बन्ध बनाते हैं। इन बन्धों के बीच 90° का कोण होना चाहिए किन्तु कोण का वास्तविक मान 104°27′ होता है जो दो हाइड्रोजन परमाणओं में परस्पर प्रतिकर्षण के कारण होता है (चित्र-22)।
(ब) अमोनिया अणु (NH3)— नाइट्रोजन का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 1s2, 2s22p1x 2p1y 2p1z है। तीन हाइड्रोजन परमाणुओं के 1s1 इलेक्ट्रॉन नाइट्रोजन परमाणु के 2p1x, 2p1y तथा 2p1z इलेक्ट्रॉनों से अतिव्यापन करके तीन N-H बन्ध बनाते हैं। इनii बन्धो के बीच 90° का कोण होना चाहिए, किन्तु कोण का ” वास्तविक मान 106 . 7° होता है जो तीन हाइडोजन परमाणओं में परस्पर प्रतिकर्षण के कारण होता है (चित्र-23)।
संयोजी बन्ध सिद्धान्त की सीमाएँ
(i) यह सिद्धान्त संयोजी बन्ध के आंशिक ध्रुवीय गुण (partial ionic character) को स्पष्ट करने में असफल रहा।
(ii) इस सिद्धान्त के द्वारा उपसहसंयोजी बन्ध का बनना नहीं समझाया जा सका।
(iii) इस सिद्धान्त के अनुसार ऑक्सीजन अणु की संरचना में सभी इलेक्ट्रॉन युग्मित होने चाहिए अर्थात् ऑक्सीजन अणु प्रतिचुम्बकीय (diamagnetic) होना चाहिए, जबकि इसकी संरचना में अयुग्मित इलेक्ट्रॉन होते हैं और यह अनुचुम्बकीय (paramagnetic) होता है।
(iv) यह सिद्धान्त विषम (odd) इलेक्ट्रॉन वाले अणुओं एवं आयनों के बनने की व्याख्या करने में असमर्थ है।
(v) यह सिद्धान्त न्यून इलेक्ट्रॉन अणुओं (electron deficient molecules) में बन्धता को स्पष्ट करने में असफल रहा।
(vi) इस सिद्धान्त द्वारा धात्विक (metallic) तथा अन्तराधात्विक (intermetallic) यौगिक में बन्धता की व्याख्या नहीं हो सकी।
प्रश्न 16. (अ) अक्रिय युग्म प्रभाव को उदाहरण सहित समझाइए।
उत्तर : अक्रिय युग्म प्रभाव— कुछ सामान्य तत्व भी परिवर्ती संयोजकता प्रदर्शित करते है। उनका यह गुण उनके इलेक्ट्रॉनिक विन्यास के संयोजी कोश में एक युग्म (n s2) इलेक्ट्रॉनों का संयोजन के प्रति अक्रियाशीलता के कारण होता है। संयोजी कोश के n s2 इलेक्टॉन यग्म क अक्रिय हो जाने से संयोजकता में दो इकाई की कमी को अक्रिय युग्म प्रभाव कहते हैं। इस अभाव के कारण भारी धात्विक आयन निम्न ऑक्सीकरण अवस्था में अधिक स्थायी होते हैं। उदाहरण के लिए, जर्मेनियम का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास निम्नलिखित है
32Ge = 1s2,2s2 2 p6, 3 s2 3 p6 3 d10, 4 s2 4p2
जमेनियम में s-कक्षक के 2 इलेक्ट्रॉन युग्मित तथा p कक्षक के 2 इलेव। अयुग्मित है, परन्तु उत्तेजित अवस्था में ये सभी चारों इलेक्ट्रॉन (4s1, 4p3) अयुग्मित रहते . जिस कारण रासायनिक संयोजन में भाग लेते हैं और जर्मेनियम की संयोजकता चा (ऑक्सीकरण संख्या +4) व्यक्त करते हैं। कुछ परिस्थितियों में 4s2 युग्म अक्रिय भी है। जाता है, उस दशा में 4p2 इलेक्ट्रॉन संयोजन क्रिया में प्रयुक्त होते हैं। इन अवस्थाओं में जमनियम की संयोजकता 2 (ऑक्सीकरण संख्या + 2) होती है, अत: इस प्रकार जमेनियम भी +2 व+4 ऑक्सीकरण संख्या प्रदर्शित करता है। आवर्त सारणी के II-B से VI-A तक ने तत्व इसके उदाहरण हैं। यह गुण इन वर्गों में नीचे की ओर चलने पर भारी तत्वों में अधिक होता है जिसके कारण उनकी निम्न (कम) ऑक्सीकरण अवस्था अधिक स्थायी होती है। जै। IV-A उपवर्ग में Pb की ऑक्सीकरण संख्या + 4 व + 2 है जिसके कारण वह PbO2 व PhO ऑक्साइड बनाता है, परन्तु PbO2, (ऑक्सीकरण संख्या + 4) वाला ऑक्साइड शी: स्थायी संयोजकता 2 ग्रहण करने हेतु PbO में अपघटित हो जाता है क्योंकि अक्रिय युग्म प्रमा के कारण ऑक्सीकरण संख्या + 2 में लेड अधिक स्थायी होता है।
PbO2 → PbO + [O]
अक्रिय युग्म प्रभाव के कारण भारी धात्विक आयन निम्न ऑक्सीकरण संख्या ।। s-इलेक्ट्रॉन युग्म की अक्रियाशीलता के कारण अधिक स्थायी होता है जैसे Pb (II) तथा ।। (IV) में स्थायित्व क्रम Pb (IV)< Pb (II) है, अर्थात् + 2 ऑक्सीकरण संख्या की अवस्था । IV-A वर्ग के तत्वों के स्थायित्व का क्रम C < si < Ge < Sn < Pb होता है। इसी प्रका V-A वर्ग में +3 ऑक्सीकरण संख्या की अवस्था में अक्रिय याम प्रभाव के कारण तत्ला । स्थायित्व का क्रम N<P< As< Sb<Bi है। परन्तु अक्रिय युग्म प्रभाव की अनपस्थिति यह स्थायित्व क्रम विपरीत होता है। इस नियम के उपयोग से विभिन्न भारी तत्वों के आयनो स्थायित्व का ज्ञान होता है।
प्रश्न 16. ( ब ) VSRPR सिद्धान्त के आधार पर BrF3 की आकृति की व्युत्पत्ति कीजिए।
उत्तर : केन्द्रीय परमाणु Br के संयोजकता कोश में सात इलेक्ट्रॉन है। इनमें से तो इलेक्ट्रॉन तीन पल्लु औषरीन, प्रमाणुओं के स्वाञ्च इलेक्ट्रॉन युग्म आबन्ध बना लेते हैं तथा चार इलेक्ट्रॉन शेष रह जाते हैं। हा प्रकार अंग्छ लौष आबन्ध घाम तथा दो एकाकी युग्म उपस्थि होते हैं। VSER विज्ञान के आधार आधी इलेक्ट्रान बराम त्रिसमानताक्ष द्विपिरमिडी के शीर्षक पर स्थित रहते हैं। दो एकाकी इलेक्ट्रॉन युग्म निरक्षीय स्थिर पर स्थित होंगे जिससे कि एकाकी युग्म-एकाकी युग्म-एकाकी युग्म के बीच प्रतिकर्षण तिम रहे। उल्लेखनीय है कि ये प्रतिकर्षण आबन्ध युग्म-आबन्ध युग्म प्रतिकर्षण से अधिक होते हैं। इसके अतिरिक्त अक्षीय फ्लुओरीन परमाणु एकाकी यग्म एकाकी युग्म के बीच प्रतिकर्षण को कम करने के लिए निर्क्षिक फ्लोरीन परमाणु की तरफ झुक जाते हैं। इस प्रकार BrF की आकृति थोड़ी बंकित “T” आकृति की हो जाती है |
प्रश्न 17.(अ) ठोसों के विद्युतीय गुणों से आप क्या समझते हैं?
अथवा चालकता के आधार पर ठोसों को कितने प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है?
(ब) अर्द्धचालक क्या हैं? इनका वर्गीकरण किस प्रकार किया जाता है? अर्द्धचालकों की चालकता पर ताप का क्या प्रभाव पड़ता है? इनके उपयोग बताइए।
अथवा n-प्रकार तथा p-प्रकार के अर्द्धचालकों से आप क्या समझते हैं?
उत्तर : (अ) ठोसों के विद्युतीय गुण– ठोसों के विद्युतीय गुण ऋणात्मक इलेक्ट्रॉनों या धनात्मक छिद्रों की गति के द्वारा (इलेक्ट्रॉनिक चालकता) या आयनों की गति (आयनिक चालकता) द्वारा होते हैं। आयनों या धनात्मक छिद्रों में चालकता इलेक्ट्रॉनिक दोष के कारण होती है। इलेक्ट्रॉनों में से चालन n-प्रकार का चालन (n-ऋणात्मक के लिए) तथा धनात्मक छिद्रों में से चालन p-प्रकार का चालन (p-धनात्मक के लिए) कहलाता है। शुद्ध आयनिक ठोस, जहाँ चालन केवल आयनों की गति द्वारा होता है, रोधी कहलाते हैं। आयनिक ठोसों में से नम या विलयन अवस्था में विद्युत धारा प्रवाहित नहीं हो सकती है।
अतः विद्युत चालकताओं के मान के आधार पर ठोसों को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया है
(i) सुचालक– इनमें से प्रयुक्त विद्युत क्षेत्र का अधिकतम भाग प्रवाहित हो सकता है। सुचालकों की विद्यत चालकता 108 ओम-1 सेमी-1 की कोटि की है। धातुएँ विद्यत के सुचालकों की अच्छी उदाहरण हैं।
(ii) रोधी– इनमें से प्रायोगिक रूप से विद्युत धारा का प्रवाह नहीं होता है। विद्युत मालकता 10-22 ओम-1 सेमी-1 कोटि की होती है। अधिकांश कार्बनिक तथा अकार्बनिक ठोस (ग्रेफाइट के अतिरिक्त) विद्यत के कचालक होते हैं।
(iii) अर्द्धचालक– कमरे के ताप पर अर्द्धचालकों में से विद्युत धारा का एक भाग “हो सकता है। वास्तव में सामान्य ताप पर किसी अर्द्धचालक की विद्युत चालकता एक सुचालक और राधी के मध्य की होती है। यह 10-9 से 102 ओम-1 सेमी-1 के परिसर में होती है।
(ब) अर्द्धचालक– वे पदार्थ जिनकी विद्युत चालकता एक सुचालक और यो मध्य होती है, अर्द्धचालक कहलाते हैं। वास्तव में अर्द्धचालक वे ठोस हैं जो परम शुन्य ना पूर्णरोधी होते हैं, परन्तु कमरे के ताप पर विद्युत धारा प्रवाहित नहीं करते। सिलिकन – जमनियम दो महत्त्वपूर्ण तत्व हैं जो अर्द्धचालकों के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इन तत्वों के नमूने (≈ 99 – 999% शुद्ध) क्षेत्र शोधन (zone refining) द्वारा प्राप्त किए जाते हैं तथा का कुछ अशुद्धियाँ एक प्रक्रम द्वारा सावधानीपूर्वक मिलायी जाती हैं, यह प्रक्रम डॉपिंग कहना है। अर्द्धचालक दो प्रकार के होते हैं
(i) आन्तर अर्द्धचालक (तापीय दोष के कारण अर्द्धचालन)- 0 K पर या सिलिकन तथा जर्मेनियम रोधी के रूप में कार्य करते हैं क्योंकि सहसंयोजक बन्धों में स्थि इलेक्ट्रॉन चालन के लिए प्राप्त नहीं होते है। उच्च तापों पर कुछ सहसंयोजक बन्ध टूट जाते है तथा इस प्रकार मुक्त इलेक्ट्रॉन क्रिस्टल में गति करने के लिए मुक्त हो जाते हैं तथा इसके फलस्वरूप विद्युत धारा प्रवाहित होती है। इस प्रकार का चालन आन्तर चालन कहलाता है क्योंकि यह किसी क्रिस्टल में बिना किसी बाह्य पदार्थ के प्रयोग के प्रयुक्त किया जा सकता है।
(ii) बाह्य अर्द्धचालक (अशुद्धि दोष के कारण अर्द्धचालन)- सिलिकन तय जर्मेनियम (समूह IV-A तत्व) की शुद्ध अवस्था में विद्युत चालकता बहुत कम होती है। इन तत्वों की विद्युत-चालकता समूह 14 (IV-A) के तत्वों (सिलिकन तथा जर्मेनियम) के क्रिस्टल में समूह 13 (III-A) या समूह 15 (V-A) से सम्बन्धित किसी तत्व की अल्प मात्रा मिलाने का अत्यधिक बढ़ जाती है।
समूह 14(IV-A) के तत्वों के क्रिस्टल जालक में समूह 13(III-A) तथा समः 15(V-A) के तत्वों को मिलाने पर क्रमश: n-प्रकार तथा p-प्रकार के अर्द्धचालक उत्पन होते हैं।
n-प्रकार के अर्द्धचालक— इस प्रकार के अर्द्धचालक (a) धातु आधिक्य दोष के कारण तथा (b) डॉपिंग प्रक्रम द्वारा शुद्ध जर्मेनियम या सिलिकन में समूह 15(V-A) के तत्वों के अल्प मात्रा मिलाने पर उत्पन्न होते हैं। जब समूह 15 के तत्व आधिक्य इलेक्ट (जैसे-As) को जर्मेनियम क्रिस्टल में प्रयुक्त किया जाता है तो जमेनियम के कुछ परमाणु आर्सेनिक द्वारा प्रतिस्थापित किए जाते हैं। SIT ऐसी स्थितियों में अशुद्धि तत्व (As) के चार इलेक्ट्रॉन जर्मेनियम के –Si-p.si…’ साथ बन्ध बनाने में प्रयुक्त होते हैं, जबकि 5वाँ इलेक्ट्रॉन बिना प्रयुक्त – Sirsi-si… किए रहता है अर्थात् यह एक चालक इलेक्ट्रॉन की भाँति व्यवहार करता है; जैसे-धातुओं में। इस प्रकार आर्सेनिक की अल्प मात्राओं से युक्त जर्मेनियम (जो आर्सेनिक युक्त जर्मेनियम कहलाता है) उच्च विद्युत चालकता दर्शाता है।
p-प्रकार के अर्द्धचालक– इस प्रकार के अर्द्धचालक (a) धातु की कमी से होने वाले दोपों के कारण (b) रोधी जालक में पितृरोधी से कम इलेक्ट्रॉन युक्त अशुद्धि परमाणु (अर्थात समूह 13 प्रमाण) प्रयुक्त करने के कारण उत्पन्न होते हैं।
जब जर्मेनियम परमाणु (समूह 14) के लिए समूह 13 के तत्व (जैसे- B, Ga) प्रतिस्थापित होते हैं अर्थात् जब समह 13 के तत्त्व (जैसे-बाहा कोश में केवल 3 इलेक्ट्रॉनों से युक्त) मिलाए जाते हैं तो B के परमाणु फलकीय सहसंयोजक संरचना पूर्ण करने में सक्षम नहीं होते हैं क्योंकि इनमें आवश्यकता से एक इलेक्टॉन कम होता है, इसलिए इलेक्ट्रॉनों द्वारा सामान्यतः प्राप्त कुछ स्थानों को रिक्त नोटा जाएगा। इसके कारण इलेक्ट्रॉन रिक्तियाँ उत्पन्न होती हैं जो सामान्यतः धन कोटर कहलाती हैं क्योंकि इन स्थानों पर कुल आवेश धनात्मक होता है। जब विद्युत क्षेत्र प्रयुक्त किया जाता है तो क्रमिक इलेक्ट्रॉन धन कोटरों में गति करते हैं तथा इस प्रकार अन्य इलेक्ट्रॉन रिक्तियाँ (या धन कोटर) बनते हैं। इस प्रकार इन कोटरों का चालन निरन्तर होता रहता है तथा धारा परे क्रिस्टल में प्रवाहित होती है। इस प्रकार B (समूह 13 का तत्व) की अल्प मात्राओं की जमेनियम के साथ डॉपिंग, जर्मेनियम क्रिस्टल की विद्युत चालकता में वृद्धि करती है। चूंकि इस स्थिति में धारा धन कोटरों द्वारा प्रवाहित होती है, अत: इस प्रकार का चालन p-प्रकार का अर्द्ध चालन कहलाता है।
अर्द्धचालकों की चालकता पर ताप का प्रभाव– अर्द्धचालकों की चालकता ताप बढ़ाने पर बढ़ती है। इसका कारण यह है कि अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन या धनात्मक छिद्र क्रिस्टल से दुर्बल बलों के द्वारा जड़ा रहता है तथा ताप के बढ़ाने पर अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन या धनात्मक छिद्र क्रिस्टल जालक से मुक्त हो जाता है।
अर्द्धचालकों के उपयोग– अर्द्धचालकों का उपयोग किया जाता है
(i) ट्रांजिस्टरों के औद्योगिक निर्माण में।
(ii) प्रत्यावर्ती धारा (alternating current) को दिष्ट धारा (direct current) में पारवर्तित करने के लिए रेक्टीफायर के रूप में।।
प्रश्न 18. क्रिस्टल दोषों से आप क्या समझते हैं? इन दोषों पर ताप का क्या प्रभाव पड़ता है? क्रिस्टल की संरचना में पाए जाने वाले दोषों की विवेचना कीजिए।
उतर : क्रिस्टल दोष
किसी आदर्श क्रिस्टल में समान एकक सेल तथा समान जालक बिन्दु पूरे क्रिस्टल में होता है परम शून्य ताप पर आयनिक क्रिस्टलों में आयनों का निश्चित क्रम होता है तथा कोई । पाया जाता। ताप बढ़ाने पर एक या अधिक जालक स्थानों पर आयन नहीं पाए जाते। प उत्पन्न हो जाता है। क्रिस्टल दोष क्रिस्टल में परमाणु आयनों या अणुओं के मत प्रबन्ध के कारण उत्पन्न होता है। क्रिस्टल दोषों के कारण भौतिक गुण जैसे घनत्व, पालकता बहुत अधिक प्रभावित होते हैं, परन्तु रासायनिक गुण बहुत कम प्रभावित होते है|
क्रिस्टल दोषों पर ताप का प्रभाव
क्रिस्टल दोष ताप पर निर्भर करते हैं। ताप के बढ़ने पर परमाणुओं के ऊष्मीय कम्पन : क्रिस्टल दोष उत्पन्न होते हैं। प्रति सेमी दोषों की संख्या n निम्नलिखित सम्बन्ध के द्वारा जाती है
क्रिस्टल दोषों के प्रकार
ये निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं –
- रससमीकरणमितिय दोष 2. अरससमीकरणमितिय दोष।
- रससमीकरणमितिय दोष— वे क्रिस्टल दोष जिनमें किसी यौगिक में रासायनिक सूत्र द्वारा प्रदर्शित विभिन्न प्रकार के परमाणु या आयन निश्चित अनुपात में होते हैं, रससमीकरणमितिय दोष कहलाते हैं। ऐसे यौगिक निश्चित अनुपात के नियम का पालन करते हैं। माना AB प्रकार के क्रिस्टल में A+ तथा B– आयन समान संख्या में हैं। इस प्रकार केक्रिस्टलों में निम्नलिखित दो प्रकार के दोष सामान्य रूप से पाए जाते हैं
(i) शॉट्की दोष— क्रिस्टल में कुछ विलुप्त धनायन विलप्त ऋणायन जालक बिन्दुओं के खाली रहने पर यह दोष उत्पन्न होता है। इन बिन्दुओं को जालक के खाली स्थान या छिद्र कहते हैं। संलग्न चित्र-27 में छिद्रों का एक युग्म दिया गया है। जिनमें से एक धन आयन तथा दूसरा ऋण आयन की अनुपस्थिति के कारण । है। अनुपस्थित धन व ऋण आयनों की संख्या समान होने के कारण क्रिस्टल पूर्णतया उदासीन होता है। छिद्रों की उपस्थिति के कारण क्रिस्टल का ( घनत्व कम हो जाता है। यह दोष प्रबल आयनिक यौगिकों में पाया जाता है जिनमें धन व ऋण आयनों का आकार लगभग समान तथा उपसहसंयोजन संख्या अधिक अर्थात् 6 या 8 होती है। NaCl, KCl, CSCl इत्यादि आयनिक क्रिस्टलों के कुछ उदाहरण हैं जिनमें शॉट्की दोष पाया जाता है।
(ii) फ्रेंकल दोष— किसी आयन के द्वारा जालक बिन्दुओं के बीच अन्तराली स्थान ग्रहण करने पर यह दोष उत्पन्न होता है। धन आयनों का आकार ऋण आयनों की अपेक्षा छाट होने के कारण सामान्य रूप से धन आयन अन्तराली स्थान ग्रहण करते हैं।
आयन अपने उपय स्थान पर न होकर अन्तराली स्थान पर है। इस प्रकार से जालक में एक छिद्र उत्पन हो जाता है धन व ऋण आयनों की संख्या समान होने के कारण क्रिस्टल पूर्णतया उदासीन होता है। यह दोष ऐसे यौगिकों में पाया जाता है जिनमें धन आयन का आकार ऋण आयन की अपेक्षा कहीं छोटा होता है, अर्थात् त्रिज्या अनुपात जाता है।
इन यौगिकों की उप-सहसंयोजन संख्या भी कम होती है। AgBr, AgI, ZnS कुछ आयनिक यौगिकों के उदाहरण हैं जिनमें यह दोष पाया जाता है
- अरससमीकरणमितिय दोष— वे क्रिस्टल दोष जिनमें किसी यौगिक में रासायनिक सत्र द्वारा प्रदर्शित विभिन्न प्रकार के परमाणु या आयन निश्चित अनुपात में नहीं होते, अरससमीकरणमितिय क्रिस्टल दोष कहलाते हैं। ऐसे यौगिक निश्चित अनुपात के नियम का पालन नहीं करते। उदाहरण के लिए, Fe0. 94O, TiO1.7-1.8, Cu1.7 S। इन यौगिकों में धन या ऋण आवेश अधिक मात्रा में होता है, हालाँकि क्रिस्टल पूर्णतया उदासीन होता है। धन आवेश के अधिक होने पर यह संरचना में अतिरिक्त इलेक्ट्रॉनों के द्वारा सन्तुलित होता है। ऋण आवेश के अधिक होने पर यह कुछ धातु आयनों पर आवेश परिवर्तित करके सन्तुलित होता है। इससे संरचना अनियमित हो जाती है अर्थात् अरससमीकरणमितिय दोषों को प्रदर्शित करती है। यह दोष निम्नलिखित दो प्रकार का होता है
(i) धातु आधिक्य दोष (ii) धातु कमी दोष।
(i) धातु आधिक्य दोष— इन दोषों में धन आयनों की अधिकता होती है। ये निम्नलिखित दो प्रकार से उत्पन्न होते हैं
(a) ऋण आयनों की अनुपस्थिति के कारण उत्पन्न धातु आधिक्य दोष— यह दोष जालक बिन्दु से ऋण आयन के अनुपस्थित रहने के कारण होता है। इस प्रकार से एक छिद्र उत्पन्न हो जाता है जिसमें अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन स्थान ले लेता है तथा इस प्रकार क्रिस्टल उदासीन रहता है। उदाहरण के लिए, जब NaCl की सोडियम वाष्प के साथ क्रिया कराते हैं तो एक पाला अनिश्चित अनुपात का यौगिक प्राप्त होता है। इस यौगिक में सोडियम आयनों का मायक्य होता है। अधिक सोडियम आयनों से उत्पन्न अतिरिक्त धन आवेश जालक में उपस्थित लक्ट्राना के द्वारा सन्तुलित हो जाता है। ये इलेक्ट्रॉन F-इलेक्ट्रॉन (F-केन्द्र) कहलाते हैं तथा स्टल के रंग के लिए उत्तरदायी होते हैं।
(b) अन्तराली स्थिति में उपस्थित अतिरिक्त धन आयन के कारण धातु आधिक्य दोष– जालक में किसी धन आयन के द्वारा अन्तराली स्थिति ग्रहण करने के कारण हाता है। इसका आवेश जालक की किसी अन्य अन्तराली स्थिति में इलेक्ट्रॉन के स्थान करने से सन्तुलित होता है। यह दोष ZnO में पाया जाता है।
(ii) धातु कमी दोष— इन दोषों में ऋण आयनों की अधिकता होती है। ये निम्नलिखित दो प्रकार से उत्पन्न होते हैं
(a) धन आयनों की अनुपस्थिति के कारण उत्पन्न धातु कमी दोष— यह दोष जालक बिन्दु से धन आयन के अनुपस्थित रहने के कारण होता है। इस प्रकार से एक धन | आयन के कारण खाली स्थान बच जाता है। अतिरिक्त ऋण आवेश साथ के किसी धन आयन के द्वारा सन्तुलित हो जाता है जो कि उच्च ऑक्सीकरण अवस्था में परिवर्तित हो जाता है। इस दोष के उत्पन्न होने के लिए धातु आयन को परिवर्ती ऑक्सीकरण अवस्था प्रदर्शित करने चाहिए तथा यह कोई संक्रमण धातु होना चाहिए। अतः यद्यपि क्रिस्टल में धातु आयनों के संख्या कम हो जाती है, परन्तु विद्युतीय आवेश सन्तुलित रहता है। यह दोष FeO, FeS इत्यादि में पाया जाता है।
(b)अन्तराली स्थिति में अतिरिक्त ऋण आयन की उपस्थिति के कारण उत्पन दोष–यह दोष किसी अतिरिक्त ऋण आयन के जालक में अन्तराली स्थिति ग्रहण करने के कारण उत्पन होता है इसका आवेश साथ किसी धन आयन के द्वार संतुलित हो जाता है जो उच्च आक्सीजन अवस्था प्रदर्शित करनी चाहिए तथा यह कोई सक्रमण धातु होना चाहिए। ऋण आयन का आकार सामान्य बहुत बड़ा होता है, अत: ये अन्तराली स्थिति में उचित स्थान नही ले पाते वास्तव में एस प्रकार के धातु दोष को प्रदर्शित करने भी आयनिक योगिक ज्ञात नही है
प्रश्न 19. (अ) जालक ऊर्जा से आप क्या समझते है? जालक ऊर्जा को प्रभावित करने वाले कारकों को स्पष्ट कीजिए।
(ब) बॉर्न–हाबर चक को किसी उचित उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए तथा इसके अनुप्रयोग भी दीजिए। अथवा बॉन–हाबर चक्र की व्याख्या कीजिए। किसी यौगिक की जालक ऊर्जा प्राप्त करने में इसका उपयोग किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर : (अ) जालक ऊर्जा
जब गैसीय आयन मिलकर ठोस यौगिक (क्रिस्टल) का निर्माण करते है तो तन्त्र से ऊर्जा बाहर निकलती है यह ऊर्जा जालक ऊर्जा कहलाती है। अत:
“किसी आयनिक क्रिस्टल की जालक ऊर्जा उत्सर्जित ऊर्जा की वह मात्रा है, जब विपरीत आवेशित गैसीय आयन अनन्त दूरी से आकर एक मोल ठोस क्रिस्टल का निर्माण करते हैं अथवा यह ऊर्जा की वह मात्रा है जो एक मोल आयनिक क्रिस्टल को उसके – आयनों में विभक्त करने के लिए देनी पड़ती है।”
- आयनिक त्रिज्या– आयनों के मध्य की दूरी r0 का मान धनायन व ऋणायन की त्रिज्याओं के योग के बराबर होता है। जालक ऊर्जा का माना r0 के व्युत्क्रमानुपाती होता है, अत:धनायन व ऋणायन की त्रिज्याओं में वृद्धि से जालक ऊर्जा में कमी होगी।
अत: आवर्त सारणी के किसी भी वर्ग में आयनों के लवणों की जालक ऊर्जाएँ ऊपर में नीचे आने पर कम होती जाती हैं।
- क्रिस्टल संरचना– क्रिस्टल संरचना मैडुलंग स्थिरांक (A) के मान पर निर्भर करती है। A का मान बढ़ने पर जालक ऊर्जा के मान में वृद्धि होगी। सामान्यत: यह कहा जा सकता है कि आयनों की समन्वय संख्या के बढ़ने पर अर्थात् मैडुलंग स्थिरांक का मान बढ़ने पर जालक ऊर्जा भी बढ़ेगी लेकिन वास्तव में क्रिस्टल संरचना में परिवर्तन का प्रभाव जालक ऊर्जा पर अनुभव नहीं किया जा सकता। क्रिस्टल संरचना आयनिक त्रिज्या पर निर्भर करती है, जो जालक ऊर्जा पर विपरीत प्रभाव डालती है। उदाहरण के लिए, NaCl (अष्टफलकीय संरचना) के मैडुलंग स्थिरांक का मान 1 – 747 है, जबकि CsCl (घनीय संरचना) के मैडुलंग स्थिरांक का मान 1 – 763 है, जो लगभग 1% अधिक है। इससे जालक ऊर्जा का मान बढ़ेगा किन्तु Cs+ आयन का आकार Na+ आयन से बड़ा होने के कारण सीजियम लवण की जालक ऊर्जा का मान कम होगा। चूंकि आकार का प्रभाव मैडुलंग स्थिरांक के प्रभाव से अधिक है, अत: CsCl की जालक ऊर्जा इसके मैडुलंग स्थिरांक से अधिक होने पर भी NaCI की जालक ऊर्जा से कम पायी जाती है।
- आयनों का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास– बॉर्न घातांक (n) का मान इलेक्ट्रॉनों की संख्या बढ़ने पर बढ़ता है। अतः जैसे-जैसे n का मान बढ़ता है, जालक ऊर्जा बढ़ती है।
- क्रिस्टल में सहसंयोजक गुण– बॉर्न समीकरण का निर्धारण आयनों को ठोस गोल मानकर किया जाता है जिनका किंचित मात्र भी ध्रुवण नहीं माना जाता है अर्थात् यह समीकरण 100% आयनिक बन्ध के लिए माना जाता है किन्तु वास्तव में बड़े ऋणायन ध्रुवित हो जाते हैं तथा उनमें सहसंयोजक गुण आ जाता है। इसलिए बन्ध में सहसंयोजक गुण के बढ़ने से क्रिस्टलकी जालक ऊर्जा में कमी आती है।
(ब) बॉर्न–हाबर चक्र
बॉर्न-लैण्डे समीकरण के द्वारा जालक ऊर्जा की गणना का मान कुछ आयनिक यौगिक के लिए ही सम्भव है। अधिकांश यौगिकों की जालक ऊर्जा का मान इससे नहीं निकाला जा सकता है लेकिन हेस के नियम की सहायता से जालक ऊर्जा के मान की गणना परोक्ष रूप से की जा सकती है। इस नियम के अनुसार, उत्पाद के निर्माण में कुल ऊर्जा परिवर्तन अभिक्रिया के पथ पर निर्भर नहीं करता है, अर्थात् किसी भी चक्रीय प्रक्रम में कुल ऊर्जा परिवर्तन शून् होता है।
सन् 1919 ई० में मैक्स बॉर्न तथा हाबर ने हेस के नियम को आधार मानकर एक यौगिक की संभवन ऊष्मा का मान कुछ काल्पनिक पदों द्वारा गणना करके ज्ञात किया तथा उसे
प्रायोगिक मान के तुल्य करके एक चक्र का निर्माण किया किसी आयनिक योगिक के लिए इस प्रकार के प्रक्रम को बार्न-हाबर चक्र कहते है इसमे एक ही योगिक के निर्माण हेतु दो पथो के द्वारा सभवन उर्जा की गणना की गई है ये विभिन काल्पनिक पद ऊष्मा षेपी तथा ऊष्माशोषी है जिनमे से किसी एक अज्ञात उर्जा की गणना समीकरण के द्वारा की जा सकती है
उदाहरण- NacI के निर्माण के विभिन पदों की गणना करते है—
बॉर्न–हाबर चक्र के अनुप्रयोग
इस चक्र का उपयोग चक्र में किसी अज्ञात ऊर्जा की सैद्धान्तिक गणना हेतु किया जा सकता है। बॉर्न-हाबर चक्र के समीकरण में किसी एक ऊर्जा पद के अतिरिक्त अन्य ऊर्जाओ। का मान ज्ञात हो तो उस अज्ञात पद की ऊर्जा निकाली जा सकती है। बॉर्न-हाबर चक्र के कुछ उपयोग इस प्रकार हैं
- जालक ऊर्जा– बॉर्न-हाबर चक्र के द्वारा निर्धारित समीकरण
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में E तथा U के अतिरिक्त सभी ऊर्जा परिवर्तनों के मान काफी परिशुद्धता से ज्ञात किए। सकते हैं। हैलोजेनों की इलेक्ट्रॉन बन्धुता का मान प्रायोगिक विधि से आसानी से निकाल सकता है। अतः धातु हैलाइडों की जालक ऊर्जा का मान बॉर्न-हाबर चक्र के द्वारा आता ज्ञात किया जा सकता है।
- इलेक्ट्रॉन बन्धुता– जिन अधातुओं की इलेक्ट्रॉन बन्धता का विश्वसनाय म से नहीं निकाला जा सकता है, उनकी जालक ऊर्जा (U) का सैद्धान्तिक मा समीकरण या किसी अन्य संशोधित समीकरण से निकाल कर इलेक्ट्रॉन बन्द बॉर्न-हाबर समीकरण से ज्ञात कर लिया जाता है।
(बॉर्न-हाबर समीकरण में आँकड़ों का मान रखते समय धन व ऋण चिह्न का ध्यान नहीं रखना चाहिए क्योंकि यहाँ पर इनका तात्पर्य क्रमश: ऊर्जा का अवशोषण व उत्सर्जन है। केवल मात्रात्मक मान ही रखे जाने चाहिए।)
अतः यहाँ E (इलेक्ट्रॉन बन्धुता) का मान भी मात्रात्मक ही आता है। चूंकि इलेक्ट्रॉन बन्धुता में ऊर्जा का उत्सर्जन होता है, अत: E = -73 • 2 किलोकैलोरी/मोल लिखा जाएगा।
बॉर्न-हाबर चक्र की सहायता से ऑक्सीजन की द्वितीय इलेक्ट्रॉन बन्धुता भी ज्ञात की जा सकती है। किसी गैसीय परमाणु के एक ग्राम-मोल में इलेक्ट्रॉन जोड़कर उन्हें एक ऋणायन बनाया जाए तो मुक्त हुई ऊर्जा प्रथम इलेक्ट्रॉन बन्धुता (E1) कहलाती है, परन्तु यदि इसमें एक और इलेक्ट्रॉन को जोड़कर द्वि-ऋणायन बनाया जाए तो ऊर्जा मुक्त होने के स्थान पर अवशोषित होती है, इसे द्वितीय इलेक्ट्रॉन बन्धुता कहा जाता है। E1 के मान को सीधे रूप से ज्ञात किया जा सकता है किन्तु E2 का मान सीधे रूप से ज्ञात करना कठिन है, अत: ऑक्सीजन के E2 का मान बॉर्न-हाबर चक्र से ज्ञात किया जा सकता है।
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E2 के अतिरिक्त सभी ऊर्जाओं का मात्रात्मक मान रखने पर E2 का मान 770 किलोजूल मोल आता है। चूंकि E2 में ऊर्जा का अवशोषण होता है, अत: E2 = + 770 किलोजूल मोल लिखा जाएगा।
- प्रोटॉन–बन्धुता ज्ञात करना— किसी ऋणायन की प्रोटॉन-बन्धुता (PA) ऊर्जा को वह मात्रा है जो एक मोल गैसीय ऋणायन के एक मोल प्रोटॉन के साथ संयुक्त होने पर मुक्त होती है।
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आयनों की यह विकृति या ध्रुवण कई कारकों पर निर्भर करता है जिनका वा निम्नलिखित है—-
1.आयनों पर अधिक आवेश— धन आयन या ऋण आयन अथवा दोनों पर अधिक आवेश होने पर विपरीत आवेश वाले आयनों पर इसका आकर्षण भी अधिक होगा। अन. आयनों पर अधिक आवेश होने से ध्रुवण अधिक होगा या वैद्युत संयोजकता सहसंयोजकता में अधिक परिवर्तित होगी। उदाहरण के लिए, Al3+ आयन क्लोराइड आयनों को Na’ आयन की अपेक्षा अधिक ध्रुवित करता है। अत: AICI3 सहसंयोजक है, जबकि NaCI आयनिक है।
- धन आयन का छोटा आकार— धन आयन के छोटा होने पर उसका नाभिकीय आवेश अधिक प्रभावी होगा। अत: छोटा धन आयन बड़े धन आयन की अपेक्षा ऋण आयन को अधिक धूवित करेगा। उदाहरण के लिए, II-A उपसमूह के क्लोराइडों में BoCI2 सब अधिक सहसंयोजक है क्योंकि इस उपसमूह में Be से Ra तक धनायनों का आकार बढ़ता है।
- ऋण आयन का बड़ा आकार— ऋण आयन के बड़ा होने पर वह कम बल से अपने बाहातम इलेक्ट्रॉनों को रोकेगा। अतः ये धन आयन की ओर अधिक बल से आकर्पिन होंगे। ऐसी दशा में सहसंयोजकता की प्रवृत्ति अधिक होगी। उदाहरण के लिए, AICI3 सहसंयोजक है, जबकि AIF3 आयनिक है।
- अन–उत्कृष्ट गैस प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास का धनायन— ऐसा धन आय. जिसकी बाह्यतम कक्षा का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास अन-उत्कृष्ट गैस प्रकार का है (जैसे 2, 8,18,18 ) ऋण आयन को एक उत्कृष्ट गैस (s2p6) वाले धन आयन की अपेक्षा अधिक ध्रुविन करेगा। जैसे-कॉपर (I) व सिल्वर (I) के हैलाइड (उदाहरण-CuCl तथा AgCI सोडियम व पोटैशियम के हैलाइडों की अपेक्षा अधिक सहसंयोजक हैं यद्यपि आयनों पर आव समान (+1) तथा इनके आयनिक आकार समान हैं।
- विलायक की प्रकृति— उच्च परावैद्युत स्थिरांक के विलायक (जैसे-जन आयनों के स्थिर वैद्युत बलों को क्षीण कर देते हैं। अत: वैद्युत संयोजकता की सहसंयोजकता में परिवर्तित होने की प्रवृत्ति भी कम हो जाती है।
Inorganic Chemistry Notes