BSC Physical Chemistry Solid Colloidal State Notes

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BSC Physical Chemistry Solid Colloidal State Notes:-

 

प्रश्न. 17. क्रिस्टलों द्वारा X-किरणों के विवर्तन के लिए बैग्र समीकरण की व्युत्पति कीजिए। किसी क्रिस्टल की आन्तरिक संरचना ज्ञात करने की विधियों का वर्णन कीजिए।

अथवा बैग का नियम क्या है? इसके समीकरण nλ = 2d sin θ) की व्युत्पत्ति कीजिए।  

उत्तर : बॅग समीकरण-बेग ने देखा कि क्रिस्टलों द्वारा X-किरणों के प्रकीर्णन (scattering) को क्रिस्टल में परमाणुओं के उत्तरोत्तर तलों द्वारा परावर्तन माना जा सकता है। साधारण प्रकाश के परावर्तन के विपरीत क्रिस्टल द्वारा X-किरणों का परावर्तन केवल कुछ निश्चित कोणों पर ही होता है जो X-किरणों के तरंगदैर्घ्य तथा क्रिस्टल तलों के बीच की दूरी पर निर्भर करते हैं। X-किरणों के तरंगदैर्घ्य, क्रिस्टल के अन्तरातलीय दूरी तथा परावर्तन के कोण के मध्य सम्बन्ध को बताने वाली मूल समीकरण को बैग समीकरण या बॅग नियम कहते हैं। इसकी व्युत्पत्ति निम्नलिखित प्रकार की जा सकती है—

 

माना क्रिस्टल संरचना में क्षैतिज रेखाएँ समान्तर तल प्रदर्शित करती हैं जो एक-दूसरे से दूरी d से पृथक् हैं। माना X-किरणपुंज क्रिस्टल पर कोण θ पर आपतित है। कुछ X-किरणें उसी कोण θ पर ऊपरी तल से परावर्तित हो जाएँगी, परन्तु शेष X-किरणें अवशोषित होकर उत्तरोत्तर परतों से परावर्तित होंगी (देखिए चित्र-18)। माना तल ABC तथा DEF आपतित तथा परावर्तित किरणपुंज के लम्ब समतल हैं। विभिन्न परतों के तलों से परावर्तित तरंग एक ही कला (phase) में होंगी, अर्थात् तल DEF के संपाती (coincide) होंगे यदि उनकी पथ लम्बाइयों का अन्तर X-किरणों की तरंगदैर्घ्य का एक सरल गुणक है।

Physical Chemistry Gaseous State Notes
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चित्र-18 : क्रिस्टल द्वारा एक्स-किरणों का परावर्तन।

आपतित तथा परावर्तित किरणों पर लम्ब OL व OM डालने पर पता च पहले दो तलों से परावर्तित तरंग की पथ लम्बाइयों का अन्तर 6 का मान निम्नलिखित होगा—

 

δ = LN + NM

बैग के अनुसार, δ का मान तरंगदैर्घ्य (λ) का सरल गुणांक होना चाहिए।

nλ = LN + NM

∆OLN तथा ∆OMN सर्वांगसम हैं।

अतः           LN = NM

nλ = 2 LN

nλ = 2 d sin θ

समीकरण (2) को बैग समीकरण कहते हैं। यदि  θ,n व λ के मान ज्ञात हैं तो _मान की गणना की जा सकती है।

किन्हीं निश्चित जालक तलों के लिए d का मान निश्चित होगा। परावर्तित तरंगों के एक ही कला में होने की अर्थात् अधिकतम परावर्तन प्राप्त करने की सम्भावना ए पर निर्भर करेगी। यदि का मान धीरे-धीरे बढ़ाया जाए तो कई स्थितियाँ प्राप्त होती हैं जब परावर्तन अधिकतम होता है इन स्थितियों के लिए n = 1, 2, 3, 4,… आदि होंगे। साधारणतया x-किरण परावर्तन के प्रयोग में n = 1 रखा जाता है। यदि 2 का मान ज्ञात हो तो d का मान निकाल | सकते हैं जिससे क्रिस्टल की आन्तरिक संरचना ज्ञात हो जाती है। इसे ज्ञात करने की निम्नलिखित प्रायोगिक विधियाँ हैं-

  1. घूर्णी क्रिस्टल विधि-इसमें प्रयुक्त उपकरण चित्र-19 में दिखाया गया है। x-किरण उत्पादक नलिका T में से X-किरणें एक झिरों में से निकलकर घूमने वाली मेज पर |

 

चित्र-19 : क्रिस्टलीय घूर्णन विधि।

.

रखे क्रिस्टल C पर टकराती  हैं तथा क्रिस्टल का धीरे-धीरे घूर्णन करती हैं जिससे क्रिस्टल रणों का आपतन कोण बढ़ता है। परावर्तित किरणों की तीव्रता एक अभिलेखन यन्त्र टोग्राफिक प्लेट, आयनन पात्र आदि द्वारा नापी जाती है। जिन कोणों के लिए तम परावर्तन प्राप्त होता है, उनसे θ का मान ज्ञात हो जाता है। इस प्रयोग को क्रिस्टल प्रत्येक तल के लिए दोहराया जाता है जिसमें कम-से-कम कोण के लिए अधिकतम परावर्तन प्राप्त होता है, उसके लिए n = 1 होता है। इसको प्रथम कोटि परावर्तन (first order reflection) कहते हैं। जब अगली स्थिति में अधिकतम तीव्रता प्राप्त होती है, तब उस कोण के लिए n = 2 होता है। इसको द्वितीय कोटि परावर्तन कहते हैं।

सामान्यतः प्रयोगों में n = 1 के संगत कोण θ पढ़ा जाता है। इस प्रकार क्रिस्टल के तीनों फलकों के लिए θ का मान ज्ञात किया जाता है।

सोडियम क्लोराइड क्रिस्टल के तीनों फलकों के लिए n = 1 के संगत θ का मान क्रमश: 5.9°, 8.4° व 52° प्राप्त होता है। बॅग समीकरण (d = nλ/2 sin θ) द्वारा तीनों फलकों के लिए उत्तरोत्तर तलों के बीच की दूरी (d ) का अनुपात निम्नलिखित होगा—

ये मान फलक केन्द्रित घन के तीनों फलकों के अनुपात के लगभग बराबर हैं। अत इससे निष्कर्ष निकलता है कि NaCl क्रिस्टल की संरचना फलक केन्द्रित घनीय है।

  1. पाउडर विधि- इस विधि में परीक्षण हेतु क्रिस्टल का महीन चूर्ण लेते हैं। यह पाउडर या चूर्ण अत्यन्त छोटे-छोटे क्रिस्टलों से मिलकर बना होता है तथा इसका अभिविन्यास(orientation) प्रत्येक सम्भावित दिशा में होता है। इस प्रकार X-किरणों के अधिकतम परावर्तन के लिए जालक के कुछ फलक उचित स्थिति में उपस्थित रहते हैं। इस कारण X-किरणें सभी तलों के सेट से प्रकीर्णित होती हैं।

इसमें बारीक चूर्ण को एक काँच की नलिका में भरकर उस पर x-किरणों का किरणपुंज डाला जाता है। विवर्तित X-किरणे वृत्ताकार फोटोग्राफिक प्लेट पर टकराती हैं जिस कारण प्रकाश के विभिन्न क्षेत्र उत्पन्न हो जाते हैं (चित्र-20)। प्रत्येक अवस्था में अनेक ऐसा होंगे जिनके फलकों की स्थिति अधिकतम विवतन क लए उपयुक्त काटाग्राफिक प्लेट पर अधिकतम तीव्रता वाली किरणों के स्थान रेखाओं के रूप में इंगित हो जाते हैं विभिन्न फलकों के लिए आपतित किरणों के सापेक्ष इन दूरियों को “णा (O) में परावर्तित करके ब्रैग समीकरण में रखते हैं। फिर ब्रैग विधि के समान d100 :  d110 : d111 का मान ज्ञात कर लिया जाता है।

चित्र-20 : पाउडर विधि।

प्रश्न 18. कलिल अवस्था (कोलॉइडी अवस्था ) को परिभाषित कीजिए और इसकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए। परिक्षिप्त प्रावस्था एवं परिक्षेपण माध्यम की भौतिक अवस्था के आधार पर कलिल अवस्थाओं (कोलॉइडी अवस्थाओं) का उदाहरण सहित वर्गीकरण कीजिए। 

उत्तर :                                               कलिल (कोलॉइडी) अवस्था 

किसी पदार्थ की वह अवस्था जिसमें पदार्थ के कणों का आकार 1 नैनोमीटर (10-9 m) से 1000 नैनोमीटर के मध्य होता है, कलिल (कोलॉइडी) अवस्था कहलाती है।

यह दो प्रावस्थाओं अर्थात् परिक्षिप्त प्रावस्था एवं परिक्षेपण माध्यम द्वारा निर्मित होती है। कलिल (कोलॉइडी) अवस्था की विशेषताएँ

कलिल (कोलॉइडी) अवस्था की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नवत् हैं

1.विषमांगी प्रकृति- कोलॉइडी विलयनों की प्रकृति विषमांगी होती है अर्थात् ये दो प्रावस्थाओं (परिक्षिप्त प्रावस्था एवं परिक्षेपण माध्यम) द्वारा निर्मित होते हैं। वह माध्यम जिसमें कोलॉददी कण परिक्षिप्त रहते हैं, परिक्षेपण माध्यम कहलाता है तथा परिक्षेपण माध्यम में वितरित कोलॉइडी कण परिक्षिप्त प्रावस्था बनाते हैं।

  1. परिक्षिप्त कणों की दृश्यता- यद्यपि कोलॉइडी विलयन विषमांगी होते हैं परन्तु उनमें उपस्थित परिक्षिप्त कणों को नग्न आँखों से देखा जाना सम्भव नहीं है।
  2. छननता- कणों का आकार सूक्ष्म होने के कारण कोलॉइडी (कलिल) विलयन सामान्य फिल्टर पेपर से पार हो जाते हैं परन्तु जन्तु झिल्ली, सैलोफेन या अति सूक्ष्म फिल्टर से ये पार नहीं हो पाते हैं।
  3. रंग- कोलॉइडी (कलिल) विलयन का रंग उसमें उपस्थित कणों के आकार पर निर्भर करता है। बड़े आकार वाले कण बड़ी तरंगदैर्ध्य वाले प्रकाश को अवशोषित करत अर्थात् ये कम तरंगदैर्ध्य वाले प्रकाश का परावर्तन करते हैं। उदाहरणार्थ-150 नेनामाटर आकार वाले कणों का सिल्वर सॉल बैंगनी रंग का होता है जबकि 50 नैनोमीटर आकार वाले जों का सिल्वर साल नारंगी-पीले रंग का होता है।
  4. अणुसंख्य गुणधर्म- कोलॉइडी कण भी वास्तविक विलयनों की भाँति अणुसंख्य जैसे वाष्पदाव में कमी, क्वथनांक में उन्नयन, हिमांक में अवनमन तथा परासरण दात्र दर्शित करते हैं, परन्तु इनके कणों का आकार वृहद् होने के कारण, पति इकाई आयतन में इनके कणों की संख्या कम होती है। अतः इन विलयनों के अणुसंख्य गुणधर्मों के परिमाण वास्तविक विलयनों की तुलना में कम होते हैं।
  5. ब्राउनियन गति- कोलॉइडी ( कलिल) विलयन के परिक्षेपण माध्यम में कोलॉइडी कणो का लगातार टेढ़ी-मेढ़ी गति ब्राउनियन गति कहलाती है। इसको खोज वनस्पति वैज्ञानिक रॉबर्ट ब्राउन ने सन् 1827 में की थी। यह गति कोलॉइडी (कलिल) कणों पर गति करते हुए परिक्षेपण माध्यम के अणुओं के असमान प्रहारों के कारण उत्पन्न होती है। ब्राउनियन गति के कारण ही कोलॉइडी कण विलयन को रखने पर भी नीचे नहीं बैठते हैं क्योंकि यह गति कोलॉइडी कणों परब्राउनियन गति कार्य करने वाले गुरुत्व बलों का विरोध करती है।
  6. टिण्डल प्रभाव- अँधेरे में रखे कोलॉइडी (कलिल) विलयन में तीव्र प्रकाश पुंज प्रवाहित करने पर इन किरणों का मार्ग नीले प्रकाश द्वारा दृश्यमान हो जाता है। यह घटना टिण्डल प्रभाव कहलाती है तथा दृश्यमान मार्ग टिण्डल कोन कहलाता है। इस घटना कोसर्वप्रथम टिण्डल नामक वैज्ञानिक ने सन् 1869 में प्रेक्षित किया था।

टिण्डल प्रभाव टिण्डल प्रभाव कोलॉइडी (कलिल) कणों के द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन द्वारा उत्पन्न हाता है। चूंकि कोलॉइडी कणों का आकार. दृश्य विकिरणों तथा पराबैगनी विकिरण की तरगदध्य से तलनीय होता है इस कारण कोलॉइडी कण इन विकिरणो को पकीर्णित करते हैं यस कारण इनका मार्ग चमकदार (या दश्यमान) हो जाता है।

  1. वैद्युत कण संचलन- विद्यत क्षेत्र के प्रभाव में किसी इलेक्ट्रोड विशेष को ओर कणो के गति करने की प्रवृत्ति वैद्युत कण संचलन कहलाता है। यह घटना दर्शाती है। कालाइडी कण आवेशित होते हैं तथा इसकी सहायता से कोलॉइडी विलयन में उपस्थित ॥ पर आवेश की प्रकृति को ज्ञात किया जा सकता है।

(a) वैद्युत कण संचलन से पहले         (b) वैद्युत कण संचलन के पश्चात्

  1. विद्युत परासरण- यदि किसी. उपयुक्त अर्द्ध-पारगम्य झिल्ली (semi. perintable membrane) की सहायता से कोलॉइडी कणों को स्थिर कर दिया जाए तो विद्युत वल लगाए जाने पर परिक्षेपण माध्यम के कण कोलॉइडी कणों के गति करने की विपरीत दिशा में गति करने लगता है। यह घटना विद्युत परासरण कहलाती है। – 10. स्कन्दन-किसी सॉल का स्थायित्व उसमें उपस्थित कोलॉइडी कणों के आवेश के कारण होता है। समान आवेश मुक्त होने के कारण कोलॉइडी कण एक-दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं जिस कारण ये कण परस्पर समीप आकर अपने आकार में वृद्धि नहीं कर पाते हैं, परन्तु यदि किसी भी प्रक्रिया द्वारा इनके आवेश को नष्ट कर दिया जाए तब-ये परस्पर संगठित होकर आकार में वृद्धि कर लेते हैं। कणों के आकार में एक निश्चित सीमा से अधिक की वृद्धि होने पर उनका अवक्षेपण हो जाता है। यह घटना स्कन्दन (coagulation) कहलाती है।

कोलॉइडी विलयन में वैद्युत-अपघट्य मिलाए जाने पर उसका स्कन्दन हो सकता है। यद्यपि कोलॉइडी विलयन के स्थायित्व के लिए इसमें वैद्युत-अपघट्य की थोड़ी-सी मात्रा की उपस्थिति आवश्यक है क्योंकि कोलॉइडी कणों पर वैद्युत-अपघट्य के आयन अधिशोषित होकर उस पर आवेश उत्पन्न करते हैं। लेकिन कोलॉइडी विलयन में वैद्युत-अपघट्य की मात्रा अधिक हो जाने पर उसके द्वारा उत्पन्न आयन कोलॉइडी कणों के आवेश को नष्ट कर देते हैं जिसके फलस्वरूप कोलॉइडी विलयन का स्कन्दन हो जाता है। ”

परिक्षिप्त प्रावस्था एवं परिक्षेपण माध्यम की भौतिक अवस्था के आधार पर

कोलॉइडी (कलिल) अवस्थाओं का वर्गीकरण

परिक्षिप्त प्रावस्था एवं परिक्षेपण माध्यम की भौतिक अवस्था के आधार पर आठ प्रकार ) कोलॉइडी तन्त्र सम्भव हैं जिनका वर्णन निम्नवत् है

 

कोलॉइडी तन्त्रों के प्रकार

क्रमांक परिक्षिप्त परिक्षण माध्यम तन्त्र का सामान्य नाम उदाहरण
1. ठोस ठोस ठोस सॉल रत्न, रूबी काँच. रंगीन काँच व प्लास्टिक आदि)।
2. ठोस द्रव सॉल गोल्ड सॉल, सल्फर सॉल, स्याही, पेन्ट, जल में परिक्षिप्त स्टार्च आदि।
3. ठोस गैस ठोसों के ऐरोसॉल जल धूल, धुआँ आदि।
4. द्रव ठोस जैल पनीर, मक्खन, बूट पॉलिश, जेली

आदि।

5. द्रव द्रव पायस दूध, पायसीकृत तेल, औषधि आदि।
6. द्रव गैस द्रवों के ऐरोसॉल कोहरा, धुन्ध, बादल, द्रव स्प्रे

आदि।

7. गैस ठोस ठोस फोम झांवा पत्थर (pumice stone), फोम रबर आदि।
8. गैस द्रव झाग या फोम सोडा झाग, साबुन का झाग, शेविंग क्रीम का झाग आदि।

 

 

प्रश्न 19. (अ) कोलॉइडी अवस्था तथा कोलॉइडी विलयन से आप क्या समझते हैं? वास्तविक विलयन, निलम्बन व कोलॉइडी विलयन के गुणों की तुलना कीजिए।

अथवा कोलॉइड क्या है तथा इनका वर्गीकरण किस प्रकार किया जाता है? वास्तविक विलयन व कोलॉइड विलयन में क्या अन्तर है

(ब) द्रव-स्नेही तथा द्रव-विरोधी कोलॉइडों को स्पष्ट करके उनमें अन्तर भी कीजिए। 

उत्तर :             (अ) कोलॉइडी अवस्था तथा कोलॉइडी विलयन

वे पदार्थ जो सरलता से जल में नहीं घुलते और घुलने पर समांग विलयन नहीं बनाते हैं तथा चर्म-पत्र से विसरित नहीं होते हैं, कोलॉइडी या कलिल विलयन या सॉल पर कहलाते हैं। विलयन की इस प्रावस्था को कोलॉइडी अवस्था यु कलिल अवस्था कहते है।

ग्राहम ने विलेय पदार्थों को दो वर्गों में विभाजित किया—

  1. क्रिस्टलाभ- जिने पदार्थों के विलयन जन्तु या वनस्पति झिल्ली से सरलता से पसारत हो जाते हैं, उन पदार्थों को क्रिस्टलाभ कहते हैं; जैसे—यूरिया, शक्कर आदि

2.कोलॉइड- जिन पदार्थों के विलयन जन्तु या वनस्पति झिल्ली से विसरित नहीं होते हैं या बहुत धीरे-धीरे विसरित होते हैं, उन पदार्थों को कोलॉइड कहते हैं; जैसे-स्टार्च, गोंद आदि। कोलॉइडी विलयन विषमांगी तन्त्र बनाते हैं। इसमें दो प्रावस्थाएँ होती हैं

(i) परिक्षिप्त प्रावस्था किसी माध्यम में वितरित (dispersed) पदार्थ, जो कोलॉइडी कण बनाते हैं. परिक्षिप्त प्रावस्था कहलाते हैं।

(ii) परिक्षेपण माध्यम- जिस माध्यम में कोलॉइडी कण वितरित रहते है परिक्षेपण माध्यम कहते हैं।

उदाहरण- स्टार्च के कोलॉइडी विलयन में स्टार्च के कोलॉइडी कण परिक्षिप्त प्रा बनाते हैं तथा जल परिक्षेपण माध्यम होता है। .

अतः वे विलयन जिनमें कोलॉइडी पदार्थ के छोटे-छोटे कण परिक्षिप्त प्रावस्था के रूप में परिक्षेपण माध्यम, जिसे विलायक कहते हैं, में परिक्षिप्त रहते हैं, कोलॉइडी विलयन कहलाते हैं।

 

वास्तविक विलयन, कोलॉडी विलयन व निलम्बन में अन्तर

 

क्र० गुण वास्तविक विलयन कोलॉइडी विलयन निलम्बन
1. प्रकृति यह समांग मिश्रण है। यह विषमांग तन्त्र है। यह विषमांग तन्त्र है।
2. कणों का आकार  इसमें कणों का आकार 10A से कम होता है। इसमें कणों का आकार 1000Ā। 104 के मध्य होता है इसमें कणों का आकार 1000A से बड़ा  होता है
3. निस्यन्दन फिल्टर पेपर, पार्चमेंट पेपर, जांतव झिल्लियों से निकल जाते हैं।

 

फिल्टर पेपर, से नहीं निकलते हैं। पार्चमेंट पेपर तथा जांतव झिल्लियों से निकल जाते हैं | किसी से नही निकलते हैं।
4. दिखाई देना आँख तथा सूक्ष्मदर्शी से नहीं दिखते हैं। सूक्ष्मदर्शी से प्रकाश में बिन्दु के रूप में दिखते हैं। आँख तथा सूक्ष्मदर्शी दोनों से दिखते हैं।
5. परासरण दाब अधिक कम बहुत कम
6. अणु भार कम अधिक बहुत अधिक
7. टिण्डल प्रभाव नही होता है होता है नही होता है
8. ब्राउनी गति नही होती है होती है नही होती है
9. आवेश आयान पर आवेश होता है कणों पर ऋण या धन आवेश होता। आवेश होता है
10. स्कन्दन सरलतापूर्वक नहीं होता है। सरलतापूर्वक होता है।
11. रंग पदार्थ के आयन की प्रकृति पर निर्भर करता है। कणों के आकार व आकृति के ऊपर करता है।

 

 

(ब) द्रव-स्नेही तथा द्रव-विरोधी कोलॉइड

द्रव-स्नेही कोलॉइड— वे कोलॉइडी पदार्थ जी विलायक के सम्पर्क में आने पर शीघ्रता नेकोलॉइडी विलयन में परिवर्तित हो जाते हैं, द्रव-स्नेही कोलॉइड कहलाते हैं। ये कोलॉइडी विलयन प्रायः स्थायी होते हैं क्योंकि ये विद्युत अपघट्य के विलयन द्वारा शीघ्रता से अवक्षेपित (स्कंदित) नहीं होते हैं, परन्तु इनका अवक्षेप विद्युत-अपघट्य के विलयन द्वारा पुन: कोलॉइडी विलयन में परिवर्तित हो जाता है। अत: इनको उत्क्रमणीय कोलॉइड भी कहते हैं। विलायक के रूप में जब जल प्रयुक्त होता है तो इनको जल-स्नेही कोलॉइड कहते हैं; जैसे—साबुन, गोंद, स्टार्च, प्रोटीन आदि।

द्रव-विरोधी कोलॉइड— वे कोलॉइडी पदार्थ जो विलायक के सम्पर्क में आने पर शीघ्रता से कोलॉइडी विलयन नहीं बना पाते हैं, द्रव-विरोधी कलॉइड कहलाते हैं। ये कोलॉइडी विलयन. प्राय: अस्थायी होते हैं क्योंकि ये विद्युत अपघट्य के विलयन द्वारा शीघ्रता से अवक्षेपित हो जाते हैं, तथा पुनः कोलॉइडी विलयन में परिवर्तित नहीं होते हैं, इस कारण इनको अनुत्क्रमणीय कोलॉइड भी कहते हैं। यदि जल विलायक के रूप में प्रयुक्त होता है तो इन कोलॉइडों को जल-विरोधी कोलॉइड भी कहते हैं; जैसे—सल्फर, कार्बन, धातु सल्फाइड आदि।

 

प्रश्न 20. कोलॉइडी विलयन बनाने की विधियाँ तथा उनके शुद्धिकरण की विधियों का वर्णन कीजिए। 

अथवा कोलॉइडी अवस्था तथा कोलॉइडी विलयन की व्याख्या कीजिए। कोलॉइडी । विलयन बनाने तथा उनके शुद्धिकरण में प्रयुक्त विभिन्न विधियों का वर्णन कीजिए। 

उत्तर : कोलॉइडी अवस्था तथा कोलॉइडी विलयन की व्याख्या उपर्युक्त प्रश्न संख्या 19 में देखें।

 

कोलॉइडी विलयन बनाने की विधियाँ

 

  1. द्रव स्नेही (lyophilic) कोलॉइडी विलयन बनाने की विधि— द्रव-स्नेही पदार्थ (जैसे—गोंद, स्टार्च आदि) परिक्षेपण माध्यम के सम्पर्क में आने पर शीघ्र ही कोलॉइडी विलयन बना लेते हैं। अत: द्रव-स्नेही कोलॉइडों को उपयुक्त परिक्षेपण माध्यम के साथ हिलाकर या गर्म करने से कोलॉइडी विलयन बनाए जा सकते हैं।
  2. द्रव विरोधी (lyophobic) कोलॉइडी विलयन बनाने की विधि— द्रव-विरोधी पदार्थ (जैसे-आर्सेनिक सल्फाइड, गोल्ड आदि) परिक्षेपण माध्यम के सम्पर्क में आने पर भासानी से कोलॉइडी विलयन नहीं बनाते हैं। उनके कोलॉइडी विलयन बनाने की मख्यतः निम्नलिखित विधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं

(अ) परिक्षेपण विधियाँ (Dispersion methods)

(ब) संघनन विधियाँ (Condensation methods)

 

(अ) परिक्षेपण विधियाँ (Dispersion Methods)

इस विधि में बड़े आकार के कणों को कोलॉइडी आकार में तोड़ लेते हैं। परिक्षेपण को कुछ विधियाँ अनलिखित हैं—

  1. यांत्रिक परिक्षेपण (Mechanical dispersion)- इस विधि में पदार्थ केके आकार के कणों को कोलॉइड मिल में पीसकर कोलॉइडी आकार के कणों में तोड़ लेते हैं। मिल में बहुत पास-पास लगी दो डिस्क होती हैं जो एक-दूसरे की विपरीत दिशाओं में बहर तेजी से घमती रहती हैं। परिक्षेपण माध्यम को पदार्थ तथा स्थायीकारक (stabiliser) के साथ कालाड मिल में प्रवाहित करने से पदार्थ का कोलॉइडी विलयन प्राप्त हो जाता है।
  2. विद्युत परिक्षेपण (Electro-dispersion)- इस विधि का उपयोग धातुओं जैसे गोल्ड, कापर, प्लेटिनम आदि के कोलॉइडी विलयन बनाने में किया जाता है। इस विधि (चित्र-25) धातु के दो इलेक्ट्रोडों को NaOH की अल्प मात्रा युक्त ठण्डे जल (परिक्षेपण माध्यम) में डुबोते हैं। धातु इलेक्ट्रोडों के मध्य विद्युत आर्क के उच्च ताप के कारण धात वाष्पित हो जाती है तथा ठण्डे जल द्वारा वाष्प के संघनन से कोलॉइडी आकार के कण बन जाते हैं। कोलॉइडी विलयन को स्थायी करने के लिए जल में NaOH मिलाया जाता है।

 

  1. पेप्टीकरण (Peptisation)- इस विधि में अवक्षेपित पदार्थों के अवक्षेपों का उपयुक्त अभिकर्मकों द्वारा कोलॉइडी विलयन में परिक्षिप्त किया जाता है जैसे फारक हाइड्रॉक्साइड के ताजे अवक्षेप में फेरिक क्लोराइड मिलाने से फेरिक हाइड्रॉक्साइड का कोलॉइडी विलयन प्राप्त हो जाता है।

किसी ताजे अवक्षेपित पदार्थ को उपयुक्त अभिकर्मक द्वारा कोलॉइडी कण रूप में परिक्षेपण करना पेप्टीकरण कहलाता है। जो अभिकर्मक किसी अवक्षप पेप्टीकरण करता है उसे पेप्टीकारक  (peptising agent or peptiser) कहते है उदाहरणार्थ-SnO2 के ताजे अवक्षेप में यदि HCl या NaOH (पेप्टाका मिलाकर हिलाएँ तो SnO2 का कोलॉइडी विलयन प्राप्त हो जाता है।

जल-स्नेही पदार्थ का पेप्टाकरण जल (परिक्षेपण माध्यम) द्वारा किया जाता है। धा के अविलेय यौगिकों (जैसे-धातु सल्फाइड, धात ड्राक्साइड आदि) का पेप्टिकरण उन  विद्युत-अपघट्यों द्वारा होता  है जिनका एक आयन अवक्षेप (परिक्षिप्त पदार्थ) के उभयनिष्ठ (common) हो।

 

(ब) संघनन विधियाँ (Condensation Methods)

संघनन विधि में पदार्थ के छोटे-छोटे अणुओं या आयनों को विभिन्न विधियों द्वारा परस्पर संयुक्त कराकर कोलॉइडी कण बनाए जाते है। इसकी मुख्य विधियाँ निम्नवत हैं

  1. विलायक विनिमय विधि (Solvent exchange method)- इस विधि में पदार्थ को एक विलायक में घोलकर दूसरे विलायक में मिलाया जाता है, जिसमें वह बहुत कम विलेय होता है। इससे पदार्थ का कोलॉइडी विलयन प्राप्त हो जाता है जैसे सल्फर के ऐल्कोहॉलीय विलयन को जल की अधिकता में डालने से जल में सल्फर का कोलॉइडी विलयन प्राप्त हो जाता है।
  2. रासायनिक विधिया (Chemical methods) —

(i) उभय अपघटन (Double decomposition)- आर्सेनिक ऑक्साइड के तनु जलीय विलयन में हाइड्रोजन सल्फाइड गैस प्रवाहित करने पर आर्सेनिक सल्फाइड (AS2S3) का हल्का पीला कोलॉइडी विलयन प्राप्त हो जाता है।

AS2S3O3 + 3H2S → As2S3 + 3H2O

(ii) ऑक्सीकरण (Oxidation)- हाइड्रोजन सल्फाइड के जलीय विलयन का सल्फर डाइऑक्साइड द्वारा ऑक्सीकरण करने से सल्फर का कोलॉइडी विलयन प्राप्त होता है।

SO2+ 2H2S→ 3S+2H2O

(iii) अपचयन (Reduction)- गोल्ड, प्लैटिनम, सिल्वर आदि धातुओं के कोलाइडी विलयन उनके लवणों के तनु विलयन में उचित अपचायक मिलाकर अपचयन करने से प्राप्त किए जाते हैं।

गोल्ड क्लोराइड को स्टैनस क्लोराइड द्वारा अपचयित करने से गोल्ड का कोलॉइडी विलयन (पर्पिल ऑफ कासियस) प्राप्त होता है।

2 AuCl3 + 3SncI2, 2Au + 3SnCI4

इसी प्रकार, सिल्वर नाइट्रेट को टैनिक अम्ल से अपचयित करके कोलॉइडी सिल्वर प्राप्त किया जाता है।

(iv) जल-अपघटन (Hydrolysis)- क्षीण धन विद्युतीय धातुओं जैसे ऐलुमिनियम, आयरन क्रामियम, टिन आदि के ऑक्साइडों तथा हाइड्रॉक्साइडों के सॉल (sol) उनके लवणों के जल-अपघटन द्वारा प्राप्त किए जाते हैं।

फेरिक क्लोराइड के तनु विलयन को उबलते जल में डालकर विलयन को थोड़ा उबालने से फरिक हाइड्रॉक्साइड का भूरा सॉल प्राप्त होता है।

FeCl3 + 3H2O → Fe(OH)3 + 3HCl

 

कोलॉडडी विलयनों का शुद्धिकरण

(Purification of Colloidal Solutions)

उपयुक्त विधियों से प्राप्त सॉल में विद्युत-अपघट्य व अन्य घुलित पदार्थ अशद्धि रूप में होते हैं। इनको अपोहन (dialysis) या अतिसूक्ष्म फिल्ट्रेशन (ultrafiltration) am 

शुद्ध कर सकते हैं।

  1. अपोहन (Dialysis)- पार्चमेंट झिल्ली द्वारा कोलॉइडी विलयन से घुलित पर (क्रिस्टलाभों) को दूर करने की विधि को अपोहन कहते हैं।

इस विधि में एक पार्चमेंट झिल्ली या अन्य अपोहक झिल्ली से बनी एक थैली । झिल्ली लगे एक बेलनाकार पात्र [जिसे अपोहक (dialyser) कहते हैं। में कोलॉइडी विलय भरकर उसे बहते हुए जल में निलम्बित कर देते हैं (चित्र-26)। कोलॉइडी विलयन में उपस्थित घुलित पदार्थ के कण धीरे-धीरे झिल्ली से बाहर जल में आ जाते हैं। इस प्रकार, कुछ दिनों में | घुलित अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं। इस विधि द्वारा अपोहन करने में काफी समय लगता है। यदि कोलॉइडी विलयन का ताप बढ़ाकर (60- 65°C) अपोहन किया जाए तो अपोहन की दर बढ़ जाती है। इस प्रक्रम को गर्म अपोहन (hot dialysis) कहते हैं।

 

अपोहन की दर को अत्यधिक बढ़ाने के लिए विद्युत क्षेत्र की उपस्थिति में अपोहन किया जाता है। इस विधि को विद्युत अपोहन (electro-dialysis) कहते हैं। इससे विद्युत अपघट्यों की अशुद्धियाँ शीघ्रता से दूर हो जाती हैं। प्रयुक्त उपकरण चित्र-27 में दिखाया गया है।

 

जल में डूबे अपोहक के बाहर दो इलेक्ट्रोड रखे जाते हैं। इलेक्ट्रोडों के बीच वाहक बल आरोपित करने पर विद्युत अपघट्य के आयन विपरीत आवेशित इलेक्ट्रॉनिक ओर तेजी से चलते हैं और अपोहक से निकलकर बाहर जल में आ जाते हैं। विद्युत विधि अनपघट्यों की अशुद्धियों को तेजी से निकालने में समर्थ नहीं है।

  1. अतिसूक्ष्म निस्यन्दन (Ultrafiltration)— साधारण फिल्टर पत्रों के छि कोलॉइडी कण बाहर निकल जाते हैं, परन्तु अतिसूक्ष्म फिल्टर पत्रों के छिद्रों में से क्लोईडी कणबाहर नहीं निकल पाते हैं। साधारण फिल्टर पत्र जिलेटिन या फामेलिडहाइड जाते हैं तथा बाद में ग्लेशियल ऐसीटिक भी ऐसा करने से अतिसूक्ष्म फिल्टर बन जाता है।

अतिसूक्ष्म फिल्टर पत्र में अशुद्ध कोलॉइडी विलयन भरकर चूषण कराने पर घलित पदार्थ के कण फिल्टर पत्रों के छिद्रों से बाहर निकल जाते हैं तथा शुद्ध कोलॉइडी विलयन ल्टर पत्र में शेष रह जाता है। अत: सॉल के कणों को द्रव माध्यम (परिक्षेपण माध्यम) नशा विद्यत-अपघट्यों को निस्यन्दन (filtration) द्वारा एक अतिसूक्ष्म फिल्टर पत्र की सहायता से पृथक करने के प्रक्रम को अतिसूक्ष्म निस्यन्दन (ultrafiltration) कहते हैं।

 

प्रश्न 21.(अ) (i) रक्षी कोलॉइड तथा स्वर्ण संख्या पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। अथवा स्वर्ण संख्या को परिभाषित कीजिए। 

(ii) स्टार्च की स्वर्ण संख्या 25 है। स्टार्च की वह मात्रा ज्ञात कीजिए जो कि 1100 मिली स्वर्ण सॉल को 10 मिली, 10% NaCl द्वारा स्कन्दित होने से रोक सकती हो। 

उत्तर : (i) किसी द्रव-स्नेही कोलॉइड की कुछ मात्रा की उपस्थिति किसी द्रव-विरोधी कोलॉइड के स्थायित्व को बढ़ा देती है। किसी द्रव-स्नेही कोलॉइड की उपस्थिति में द्रव-विरोधी कोलॉइडी विलयन का विद्युत अपघट्य विलयन मिलाने से स्कन्दन प्रभाव कम हो जाता है या स्कन्दन नहीं होता है। स्कन्दन रोकने की इस क्रिया में प्रयुक्त द्रव-स्नेही कोलॉइड को रक्षी कोलॉइड कहते हैं। विभिन्न द्रव-स्नेही कोलॉइडों की रक्षण शक्ति अलग-अलग होती है। द्रव-स्नेही कोलॉइडों की रक्षक शक्ति को ज्ञात करने के लिए वैज्ञानिक जिगमोण्डी ने एक विशिष्ट संख्या निर्धारित की जिसको स्वर्ण संख्या कहते हैं। स्वर्ण संख्या को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित कर सकते हैं

“किसी रक्षी कोलॉइड की मिलीग्राम में वह मात्रा जो 10 मिली गोल्ड (सोन) क कोलॉइडी विलयन का सोडियम क्लोराइड के 10% सान्द्रता के 1 मिली विलयन द्वारा स्कन्दन – रोकती है, उस रक्षी कोलॉइड की स्वर्ण संख्या कहलाती है।”

गोल्ड के कोलाइडी विलयन का स्कन्दन आसानी से अवलोकित कर सकते हैं क्योंकि स्कन्दन होने पर गोल्ड के कणों का रंग लाल से नीला हो जाता है। किसी द्रव-स्नेही कोलाइड की स्वर्ण संख्या जितनी कम होगी उतनी ही उस कोलॉइड का रक्षण क्षमता अधिक प्रभावीशाली रक्षी कोलॉइड होता है। स्टार्च के कोलॉइडी विलयन की स्वर्ण संख्या अधिक होती है। अत: यह एक  अच्छा रक्षी कोलॉइड नहीं है।

 

यदि जिलेटिन विलयन की थोड़ी मात्रा को भी गोल्ड  के द्रव विरोधी कोलाइडी विलयन में डाले तो गोल्ड साल में NACI विलयन डालने से इसका स्कन्दन नहीं होता है। रक्षण का कारण यह की साल कणों को द्रव-विरोधी साल कण द्रव स्नेही साल कण को अधिशोषित कर लेते हैं। अतः द्रव-स्नहा सॉल द्रव-विरोधी सॉल के कण के  ऊपर एक परत बना लेते हैं। इस प्रकार से द्रव-विरोधी सॉल का व्यवहार दवी हो जाता है और  विद्युत अपघट्य मिलाने पर यह कठिनाई से अवक्षेपित हो द्रव-स्नेही सॉल की स्वर्ण संख्या अधिक होने से उसकी स्कन्दन शक्ति कम हो जाती है

कोलॉइडी विलयनों के स्थायित्व में रक्षी कोलॉइडों का बहुत महत्त्व है। आदर बनाने में आइस (बर्फ) कणों को स्थायी बनाने के लिए जिलेटिन का उपयोग करते हैं। कुछ रक्षी कोलॉइड तथा उनकी स्वर्ण संख्याएँ निम्न सरणी में दी गई है—

सारणी

रक्षी कोलाइड स्वर्ण सख्या
जिलेटिन 0.005-0.01
एग एल्बूमिन 0.08-0.10
बोविन एल्बूमिन 0.10-0.20
गम अरेबिक (गोद) 0.15-0.25
टार्च 25.0-50.0

 

(ii) स्वर्ण संख्या की परिभाषा से,

∵     10 मिली स्वर्ण सॉल का 1 मिली 10% NaCl विलयन द्वारा स्कन्दन रोकने हेतु आवश्यक स्टार्च (रक्षी कोलॉइड) = 25 मिलीग्राम = 0 . 025 ग्राम।

∴      100 मिली स्वर्ण सॉल का 10 मिली 10% NaCl विलयन द्वारा स्कन्दन रोकने हेतु आवश्यक स्टार्च = 10x 25 मिलीग्राम = 0 – 250 ग्राम।

 

प्रश्न 21. (ब) टिण्डल प्रभाव पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

 उत्तर : – टिण्डल प्रभाव 

कोलॉइडी विलयनों में प्रकाशीय गुण होता है क्योंकि किसी कमरे में प्रकाश की किरणें आने से कमरे की हवा में उपस्थित धूल के कण चमकने लगते हैं। जब प्रकाश किरणं शुद्ध जल या नमक के विलयन से प्रवाहित की जाती है तो प्रकाश किरण का मार्ग अदृश्य रहता है, परन्तु जब प्रकाश किरण को कोलॉइडी विलयन से प्रवाहित करते हैं तो इसका मार्ग दिखाई देता है।

सन् 1869 में टिण्डल ने यह अनुभव किया कि जब प्रकाश की किरणों को कोलाइड लियन में से प्रवाहित करते हैं तो प्रकाश किरणों का मार्ग दिखाई देने लगता है। इस प्रकार १ । प्रकाशीय प्रभाव को टिण्डल प्रभाव कहते हैं। कोलॉइडी कणों के द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन से प्रकाश मार्ग एक प्रदीप्त शकु बन जाता है जिससे नीले प्रकाश का आभास होता है। इस प्रदीप्त शंक को टिण्डल कोन कहा जाता है।

 

प्रकाश की किरणें जब कोलॉइडी कण से टकराती हैं.तो वे प्रकीर्णित हो जाती हैं तथा प्रकीर्णित प्रकाश का क्षेत्र स्वयं कोलॉइडी कण की अपेक्षा बड़ा होता है। प्रकीर्णित प्रकाश के इस क्षेत्र को सूक्ष्मदर्शी की सहायता से देखा जा सकता है। वास्तविक विलयन के कण बहुत छोटे होते हैं। इस कारण वे प्रकाश की किरणों को प्रकीर्णित नहीं कर पाते हैं। इसी कारण से वास्तविक विलयन में से प्रकाश की किरणें प्रवाहित करने से उनका पथ दिखाई नहीं देता है।

प्रकीर्णित प्रकाश की तीव्रता परिक्षेपण माध्यम तथा परिक्षिप्त प्रावस्था के अपवर्तनांकों के अन्तर पर निर्भर करती है। द्रव-स्नेही कोलॉइडी विलयन में यह अन्तर कम होता है। इस कारण से द्रव-स्नेही कोलॉइडी विलयनों में टिण्डल प्रभाव बहुत-ही क्षीण होता है। द्रव-विरोधी कोलॉइडी विलयनों में यह अन्तर अधिक होता है। अतः इनमें टिण्डल प्रभाव प्रबल होता है।

आकाश तथा समुद्री पानी का नीला रंग, धूमकेतु की पूँछ का दिखना, सितारों का चमकना, अँधेरे कमरे में प्रकाश-किरणों का चमकना आदि टिण्डल प्रभाव के उदाहरण हैं।

 

प्रश्न 22. (अ) मिलर घातांक पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। 

उत्तर : माना किसी. क्रिस्टल की तीन क्रिस्टलीय अर्को OX, OY व OZ बिन्दु O पर मिलती हैं तथा एकक सेल ABC के इकाई अन्त:खण्ड a, b, c हैं। माना क्रिस्टल के दूसरे  फलक KLM की उपर्युक्त तीनों अक्षों पर अन्त:खण्डो के अनुपात 1.b. c के सरल गुणांक हैं अर्थात् la, mb तथा nc हैं (जहाँ J, m व n सरल पूर्णांक हैं)। इस आधार पर परिमेयता यातांक के नियम की परिभाषा निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त की जा सकती है

क्रिस्टल के किसी फलक के क्रिस्टलीय अक्षों पर अन्त:खण्ड या तो इकाई अन्त:खण्ड Ja,b,c) के बराबर होता है अथवा इनके सरल पूर्णांक होता है; जैसे-la,mb, nc.

 

चित्र-29 के अनुसार फलक KLM के लिए पूर्णांक 1. m वn के मान क्रमशः 2, 2 व् 2 है। इन घातांकों को वाइस घातांक (Weiss indices) कहते हैं।

 

पूर्णांकों (ℎ, κ व ι) का एक सेट जो क्रिस्टल के तल को प्रदर्शित करने के लिए प्रयुक्त होता है, मिलर घातांक कहलाता है। किसी क्रिस्टल के फलक के मिलर घातांक उसी फलक के विभिन्न अक्षों पर अन्त:खण्ड के व्युत्क्रमानुपाती होते हैं। मिलर घातांक ज्ञात करने की विधि निम्नलिखित है—

 

सर्वप्रथम एक सारणी में a, b, व c लिखकर उसके नीचे उनके अन्त:खण्डों को लिखा जाता है, तत्पश्चात् उनके व्युत्क्रम लिखे जाते हैं, फिर उनको एक ऐसे गुणांक से गुणा करते हैं जिससे न्यूनतम पूर्णांक प्राप्त हो जाए। यदि कोई अन्त:खण्ड ऋण है तो उसे बार (bar) स प्रदर्शित करते हैं (जैसे-2, 3. : आदि)। उदाहरणार्थ- फलक KLM के लिए घाताक निम्नलिखित हैं

 

 

प्रश्न 23. (अ) सीजियम क्लोराइड की संरचना का वर्णन कीजिए।

उत्तर :               सीजियम क्लोराइड (CSCI) की संरचना 

सीजियम क्लोराइड की संरचना अन्त:केन्द्रित घनीय होती है। इस क्रिस्टलीय व्यवस्था में या तो सीजियम आयन घन के कोनों पर और पलाराइड आयन मध्य में अथवा क्लोराइड आयन घन के कोनों पर और सीजियम आयन मध्य में होंगे।

सीजियम क्लोराइड क्रिस्टल में 8 : 8 का उपसहसंयोजन होता है, अर्थात् प्रत्येक आयन विपरीत आयनों द्वारा घिरा हआ रहता है। इस क्रिस्टल की एकक कोष्ठिका में एक क्लोराइड तथा एक सीजियम आयन होता है। इसकी गणन अग्रलिखित प्रकार से की जा सकती है

अत: CsCI में प्रति एकक कोष्ठिका में कुल 2 आयन होते हैं।

उच्च ताप तथा दाव आयनिक क्रिस्टलों की संरचना को प्रभावित करने वाले कारक लीथियम, सोडियम, पोटैशियम तथा रुबीडियम के क्लोराइड, ब्रोमाइड तथा आयोडाइन सामान्य दाब तथा ताप पर NaCl की संरचना प्रदर्शित करते हैं, परन्तु उच्च दाब से CsCI संरचना में परिवर्तित हो जाते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उच्च दाब पर उपसहसंयोजन संख्या में वृद्धि हो जाती है। इसके विपरीत, उच्च ताप (760 K) पर CsCl की संरचना NaCl की संरचना में रूपान्तरित हो जाती है क्योंकि उच्च ताप पर उपसहसंयोजन संख्या में कमी आ | जाती है।

प्रश्न 23. (ब) सोडियम क्लोराइड (रॉक लवणं) की क्रिस्टल संरचना का वर्णन कीजिए। 

उत्तर :     सोडियम क्लोराइड या रॉक लवण (NaCl) की

                     क्रिस्टल संरचना

सोडियम क्लोराइड क्रिस्टल संरचना में क्लोराइड आयनों को ठोस गोलों (0) तथा सोडियम आयन को खाली गोलों (0) द्वारा दर्शाया गया है। सोडियम क्लोराइड की संरचना घनीय निविड संकुलित (cubic close packed) होती है। इस प्रकार की संरचना को वास्तव में फलक-केन्द्रित घनीय (face-centred cubic) संरचना कहते हैं। सोडियम क्लोराइड क्रिस्टल जालक में प्रत्येक सोडियम आयन क्लोराइड आयनों द्वारा निर्मित अष्टफलकीय रिक्ति में व्यवस्थित रहता है। चूंकि प्रत्येक क्लोराइड आयन के निकटवर्ती छह अष्टफलकीय रिक्तियाँ होती हैं, इसीलिए प्रत्येक क्लोराइड आयन छह सोडियम आयनों द्वारा घिरा : हआ होता है। इसी प्रकार प्रत्येक सोडियम आयन भी छह क्लोराइड आयनों द्वारा घिरा रहता है।..

 

सोडियम क्लोराइड में क्रिस्टल में क्लोराइड आयन की उपसहसंयोजन संख्या (co-ordination number) 6 होती है। इसी प्रकार सोडियम आयन, उपसहसंयोजन की सख्या 6 होती है इसे 6 : 6 उपसहसयोंजन कहते हैं। सोडियम क्लोराइड की एकक कोष्ठिका में 4 सोडियम आयन तथा 4 क्लोराइड आयन होते हैं। इनकी निम्नलिखित प्रकार से की जा सकती है

सोडियम आयनों की संख्या—

नोट- सामान्य तापक्रम तथा दाब पर लीथियम, सोडियम, पोटैशियम तथा रूबीडियम के क्लोराइडों, ब्रोमाइडों तथा आयोडाइडों के क्रिस्टलों की संरचना सोडियम क्लोराइड जैसी होती है। कुछ सिल्वर हैलाइडों की संरचना भी सोडियम क्लोराइड के समान होती है।

प्रश्न 23. (स) क्रिस्टल तलों के एक निश्चित समूह से x-किरणों का प्रथम-कोटि विवर्तन तलों से 11-8° कोण पर पाया गया। यदि तल परस्पर 0 • 281nm दूरी पर हैं तो X-किरणों की तरंगदैर्घ्य क्या होगी

प्रश्न 24. (अ) किसी तत्व का bcc संरचना में घनत्व 6.8 g cm-3 है। इसके कक सेल की लम्बाई 290 pm है। इस तत्व के 200 ग्राम में परमाणुओं की संख्या ज्ञात कीजिए। 

 

प्रश्न 25. () कोलॉइडी विलयनों के स्थायित्व का वर्णन कीजिए।

उत्तर :      कोलॉइडी विलयनों का स्थायित्व 

वास्तविक कोलॉइडी विलयन अत्यधिक स्थायी होता है, अर्थात् इसके कण परस्पर घटन करके नीचे नहीं बैठते हैं। इनके स्थायित्व के दो प्रमुख कारण हैं

1.कोलॉइडी कणों का आवेश- कोलॉइडी कणों पर समान धनात्मक या ऋणात्मक देश होने के कारण ये एक-दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं। इस प्रतिकर्षण के कारण ये दसरे से दूर रहते हैं ओर परिक्षेपण माध्यम में एकसमान रूप में वितरित रहते हैं, परन्त में किसी विद्युत-अपघट्य का विलयन मिलाने पर ये विपरीत आवेश वाले आयन से मिलकर दासीन हो जाने के कारण स्कन्दित होकर अवक्षेपित हो जाते हैं।

 

  1. कोलॉइडी कणों का विलेयीकरण- द्रव-स्नेही कोलॉइडी कणों के चारों ओर पक का परत होती है। इसी कारण प्रोटीनों के हाइडोसॉल विद्यत-अपघट्य मिलाने से नहा होते हैं, परन्तु जब इनमें कोई निर्जलीकारक जैसे एथेनॉल डालते हैं तो कणों कीपृथक् हो जाती है और कोलॉइडी कणों का स्कन्दन हो जाता है। अत: द्रव-स्नेही 1 अधिक स्थायी होते हैं। 12-15

 

प्रश्न 25. (ब) ब्राउनी गति का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

उत्तर :            ब्राउनी गति

विलयन का अवलोकन अतिसूक्ष्मदर्शी की सहायता से किया जाता है तो पाछ चलते हुए दिखाई देते हैं। ये कण सदैव विभिन्न दिशाओं में टेढ़े-मेढ़ (zig-zag)  तरीके से चलते रहते हैं  (चित्र-33)। अत: कोलॉइडी कणों का तीव्र गति से  आगे-पीछे चलना ब्राउनी गति कहलाता है। कोलॉइडी कणों की इस गति का निरीक्षण सर्वप्रथम रॉबर्ट ब्राउन ने किया था, इसी कारण । इस गति को ब्राउनी गति कहते हैं। .

कारण- जैसे-जैसे विलयन के कणों का आकार बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे ब्राउनी गति कम होती जाती है और एक अवस्था ऐसी होती है कि ब्राउनी गति समाप्त हो जाती है। किसी कोलॉइडी । विलयन में जैसे ही यह गति समाप्त होती है, वह कोलॉइडी विलयन नहीं रहता है। वीनर (Weiner) के अनुसार ब्राउनी गति कोलॉइडी – कणों के परिक्षेपण माध्यम के अणुओं के साथ असमान रूप से टकराने से उत्पन्न होती है। इस गीत का अनुभव किसी अँधेरे कमरे में किसी छिद्र से प्रकाश की किरणों के पथ के निरीक्षण से भी किया। जा सकता है। धूल के कण वायु में इधर-इधर घूमते हुए दिखाई देते हैं जो ब्राउनी गति का उदाहरण है। कोलॉइड का स्थायित्व, आवोगाद्रो संख्या को ज्ञात करना आदि ब्राउनी गति नियम के अनुप्रयोग हैं।

प्रश्न 26. (अ) पायस पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। अथवा पायस को परिभाषित करते हुए उसकी विवेचना कीजिए।

उत्तर :    पायस

जब परिक्षेपण माध्यम तथा परिक्षिप्त प्रावस्था दोनों ही द्रव हों तो इन दोनों से बने हुए कोलॉइडी विलयन को पायस या इमल्शन कहते हैं।

दो द्रवों में एक जल तथा दूसरा इसमें अविलेय कोई द्रव होता है जिसको तेल (olu कहते हैं। दोनों में से किसी को भी परिक्षिप्त अवस्था बना सकते हैं। अत: पायस दो प्रकार होते हैं

(a) जल में तेल प्रकार (O/W type)

(b) तेल में जल प्रकार (W/O type)

दूध एक 0/W प्रकार का पायस है। इसमें द्रव वसा की छोटी-छोटी बूद परिक्षिप्त रहती हैं। क्रीम एक W/O प्रकार का पायस है, इसमें पानी की छोटी-छोटा बूम परिक्षिप्त रहती हैं। ग्रीस भी W/O प्रकार का पायस है। इसमें जल तेल में पाराक्षप्त रहता है |

किसी द्रव का पायस के रूप में वितरित रहना पायसीकरण कहलाता है। थोडी मात्रा को दूसरे द्रव के आधिक्य में डालकर हिलाने से पायस बनता है। यह बयों को एक कोलॉइडी मिल में प्रवाहित करने पर पूर्ण होती है। केवल हिलान किए गए पायस अस्थायी होते हैं। स्थायी पायस प्राप्त करने के लिए उसमें कोई पायसा या का एजण्ट डाला है। यह पदार्थ प्रायः साबन , अपमार्जक या द्रव-स्नेही क्लोईड होते है |

 

पायसीकारक का कार्य– पायसीकारक किसी एक द्रव की सतह पर सान्द्रित होकर तनाव को कम करके उसको बूंदों में बदल देता है। उदाहरण के लिए साबन में तेल ग) में विलेय एक हाइड्रोकार्बन टेल होती है व एक जल में विलेय ध्रुवीय हेड (-Coo Na+) होता है। O/W प्रकार के पायसों में हाइड्रोकार्बन टेल तेल की बूंद में चली जाती है, जबकि ध्रुवीय हेड (सिरा) जल में रहता है। अतः पायसीकृत बूंदें परस्पर फैल जाती हैं जिससे पांयस का स्थायित्व बढ़ जाता है।

 

पायस के गुण 

पायस के निम्नलिखित गुण हैं 

(1) बहुत-से पायसों में परिक्षिप्त बूंद का आकार कोलॉइडी कणों के आकार से अधिक होता है। इन बूंदों पर ऋणात्मक आवेश होता है तथा इनको विद्युत-अपघट्य के द्वारा अवक्षेपित कर सकते हैं। ये टिण्डल प्रभाव’ तथा ‘ब्राउनी गति’ प्रदर्शित करते हैं।

(2) इनको परिक्षेपण माध्यम की किसी भी मात्रा के द्वारा तनु कर सकते हैं। यदि इसमें परिक्षिप्त द्रव को मिलाएँ तो यह एक पृथक् परत बनाता है।

(3) गर्म करने पर पायस अपने अलग-अलग द्रवों में टूट जाता है।

(4) ठण्डा करने या अपकेन्द्रण (सेन्ट्रीफ्यूज) करने या विद्युत-अपघट्य का आधिक्य मिलाने से भी ये अपने अवयवों में पृथक् हो जाते हैं।

(5) पायस में उपस्थित पायसीकारक को नष्ट करने से भी पायस नष्ट हो जाते हैं जैसे साबुन की उपस्थिति में बने पायस में सान्द्र अम्ल डालने पर साबुन अविलेय कार्बनिक अम्ल में बदल जाता है और पायस नष्ट हो जाता है।

 

प्रश्न 26.(ब) पायस के प्रकार का निर्धारण करने वाले घटकों का वर्णन कीजिए। पायस कैसे निर्मित किए जाते हैं

उत्तर : पायस के प्रकार का निर्धारण—पायसों के प्रकार का निर्धारण निम्न घटकों के आधार पर किया जा सकता है

(i) तनुता- पायस की कुछ मात्रा को जल के साथ मिलाकर हिलाने पर, यदि जल पूर्णतया मिश्रित हो जाता है तो यह जल में तेल (O/W) प्रकार का पायस है तथा पर पृथक परत बनाता है तो यह तेल में जल (W/O) प्रकार का पायस है।

(ii) चालकता- जल की चालकता उच्च होती है, जबकि तेल अचालक होता है अत: पायस की चालकता मापने पर यदि चालकता का उच्च माने प्राप्त होता है तो यह जल में  तेल (O/W) प्रकार का पायस है तथा यदि चालकता का निम्न मान प्राप्त होता है तो यह तेल में होना जल (W/O) प्रकार का पायस है।

(iii) रंजक की विलेयता-तेल में विलेय रंजक जैसे-स्कारलेट तेल में जल प्रकार के पायसो में पूर्णतया विलेय हो जाता है जबकि जल में विलेय रंजक जैसे अमारेन्थ रंजक जल पायसों में पूर्णतया विलेय हो जाता है।

(iv) फिल्टर-पत्र विधि- पायस की 1-2 बूंदों को फिल्टर-प यह फिल्टर-पत्र पर फैल जाता है तथा बीच में एक निशान छोड़ देता है जो (O/W) प्रकार का पायस है। यदि पायस फिल्टर-पत्र पर नहीं फैलता है या बहत तो यह तेल में जल (W/O) प्रकार का पायस है।

 

पायस बनाने की विधि-पायस का निर्माण करने के लिए इसके दोनों अवगत को मिलाकर खूब हिलाते हैं, परन्तु इस प्रकार निर्मित पायस अस्थायी होता है अर्थात कर रखने पर इसके अवयव पृथक् हो जाते हैं। इसे स्थायी करने के लिए इसमें एक अन्य पर मिलाया जाता है जिसे पायसीकारक कहते हैं। जिलेटिन, गोंद, साबुन आदि कुछ महत्त्वा पायसीकारक हैं।

 

प्रश्न 27. (अ) स्कन्दन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। अथवा हार्डी-शुल्जे नियम के साथ स्कन्दन को परिभाषित करते हुए इसकी विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए। 

उत्तर :              स्कन्दन

यदि किसी कोलॉइडी विलयन में कोई विद्युत अपघट्य मिलाएँ तो कोलॉइडी कण विद्युत उदासीन होकर अवक्षेपित हो जाते हैं। कोलॉइडी कण के इस अवक्षेपण को स्कन्दन या ऊर्णन कहते हैं।

उदाहरण फेरिक हाइड्रॉक्साइड के सॉल में सोडियम क्लोराइड (या कोई अन्य विद्युत अपघट्य) विलयन डालने पर फेरिक हाइड्रॉक्साइड के धनावेशित कोलॉइडी कण विद्युत उदासीन होकर फेरिक हाइड्रॉक्साइड के रूप में अवक्षेपित हो जाते हैं।

विद्युत अपघटन द्वारा कोलॉइडी कणों का अवक्षेपण विद्युत-अपघट्य के आयनों द्वारा कोलॉइडी कणों के विद्युत आवेश के उदासीनीकरण के कारण होता है। कोलॉइडी विलयन म कोलॉइडी कण दूर-दूर रहते हैं क्योंकि उन पर समान आवेश होता है। विद्युत-अपघट्य मिलान पर आयनों द्वारा कोलॉइडी कणों के आवेश का उदासीनीकरण हो जाता है। इस कारण कोलॉइडी कण पास-पास आ जाते हैं और अवक्षेप के रूप में अवक्षेपित हो जाते हैं।

ऋणावेशित तथा धनावेशित सॉल के कोलॉइडी कणों के आवेश का उदासीनीकरण  विद्युत-अपघट्य में क्रमशः धनायनों तथा ऋणायनों द्वारा होता है।

उदाहरण– धनावेशित फेरिक हाइड्रॉक्साइड सॉल में सोडियम क्लोराइड फारक हाइड्रॉक्साइड के धनावेशित कोलॉइडी कण CI आयनों को अ आकर्षित करके अधिशोपित कर लेते हैं। अधिशोषित Cl आयन को क्लोराइड कण के धनावेश  उदासीन कर देते हैं।

 

 

इसी प्रकार, ऋणावेशित आर्सीनियस सल्फाइड सॉल में सोडियम क्लोराइट दालने पर ऋणावेशित कोलॉइडी कण Na+आयनों द्वारा स्कन्दित हो जाते हैं।

उपर्यक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि धनावेशित सॉल तथा ऋणावेशित सॉल से स्कन्दन में विद्यत-अपघट्य के क्रमशः ऋणायन तथा धनायन सक्रिय आयन (active ion) का कार्य करते हैं।

हार्डी-शुल्जे ने देखा कि आयनों की स्कन्दन शक्ति उनके आवेश के चिह्न तथा उनकी संयोजकता पर निर्भर करती है। ऋणायन धनावेशित सॉल के स्कन्दन में तथा धनायन ऋणावेशित सॉल के स्कन्दन में प्रभावी होते हैं। प्रयोगों के आधार पर उन्होंने एक नियम दिया जसे हार्डी-शुल्जे नियम कहते हैं। इस नियम के अनुसार, “सक्रिय आयनों की स्कन्दन शक्ति उनकी संयोजकता बढ़ने के साथ बढ़ती है।”

 

धनावेशित सॉल के प्रति ऋणायनों की स्कन्दन शक्ति का निम्नलिखित क्रम होगा—

इसी प्रकार ऋणावेशित सॉल के प्रति धनायनों की स्कन्दन शक्ति का क्रम निम्नलिखित होगा

 

किसी सॉल के ऊर्णन के लिए आवश्यक विद्युत अपघट्य की न्यूनतम सान्द्रता (मिली गोल प्रति लीटर में) विद्युत-अपघट्य का ऊर्णन मान कहलाती है।

प्रश्न 27. (ब) विद्युत-कण संचलन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर :           विद्युत-कण संचलन अथवा धन-कण संचलन 

कोलॉइडी कणों पर धनात्मक अथवा ऋणात्मक विद्युत आवेश होता है। एक ही प्रकार का आवेश होने के कारण इनके मध्य परस्पर प्रतिकर्षण के कारण ये नीचे नहीं बैठते हैं जिस कारण ये स्थायी होते हैं। जब किसी कोलॉइडी विलयन को विद्युत क्षेत्र में रखा जाता है तो धनावेशित या जमणावेशित कण विपरीत आवेश वाले इलेक्ट्रोड की ओर  मलने लगते हैं और उन पर पहुँचकर ये उदासीन हो जाते हैं जिससे उनका अवक्षेपण हो जाता है। कोलॉइडी  कणों के विद्युत क्षेत्र में विपरीत इलेक्ट्रोड की ओर न चरण की क्रिया को इलेक्ट्रोफोरेसिस या विद्युत रणसंचलन कहते हैं।

 

विद्युत-कण के संचरण का अभिप्राय धनात्मक ऋणात्मक दोनों प्रकार के कोलॉइडी कणों के

Colloidal Colloidal solution रण से है, जबकि धन-कण संचलन का अभिप्राय कलाइडी विलयनों से धनात्मक कोलॉइडी कणों का

 

कैथोड की ओर संचलन से है। यदि कोलॉइडी कण धनात्मक इलेक्टोड की उन पर ऋणावेश होगा, परन्तु यदि ये ऋणात्मक इलेक्ट्रोड की तरफ चलने के धनावेश होगा। अतः कोलॉइडी कणों की विद्युत क्षेत्र में चलने की दिशा काही उनके ऊपर आवेश की. प्रकृति ज्ञात कर सकते हैं।

इलेक्ट्रोफोरेसिस का प्रदर्शन- A2S3 के कणों पर ऋणावेश होता है। कोलॉइडी विलयन एक U-नली में लिया जाता है जिसमें दोनों भुजाओं में प्लैटिनम लगे होते हैं तथा इनके मध्य E.M.F. उत्पन्न किया जाता है तो As2S3 के कण को ओर चलने लगते हैं और वहाँ पहुँचकर उदासीन हो जाते हैं। इसी प्रकार, यदि U-नली Fe(OH)3 का कोलॉइडी विलयन भरकर विद्युत धारा प्रवाहित करें तो इसके कण कैथोटर तरफ जाने लगते हैं। अत: Fe(OH)3 के कणों पर धनावेश होता है (चित्र-34) तथा इलेक्ट्रोफोरेसिस की क्रिया को स्पष्ट करता है। जब जल परिक्षेपण माध्यम होता है तो कोलॉइडी कणों पर आवेश निम्नवत् होता है—

 

ऋणावेशित कण धनावेशित कण
(a) धात्विक सॉल जैसे—Au, Ag, Pt. (a) Fe(OH)3
(b) As2S3 (b) Al(OH)3
(c) स्टार्च (starch) (c) Cr(OH)3
(d) मिट्टी (clay) (d) बेसिक रंग
(e) सिलिसिक अम्ल(Silicic Acid) (e) हीमोग्लोबिन
(f) धुआँ (smoke)
(g) रक्त (blood)

 

इलेक्ट्रोफोरेसिस के उपयोग 

इलेक्ट्रोफोरेसिस के प्रमुख उपयोग निम्नलिखित हैं

(a) चिमनी की गैसों से धुआँ हटाकर प्रदूषण रोकना।

(b) जल की अशुद्धियों को हटाना।

(c) लैटेक्स (रबड़ सॉल) से धातुओं की सतह पर रबड़ की परत चढ़ाना

(d) कोलॉइडी पिगमेण्ट्स (वर्णकों) से धात्विक प्लेटों पर पेन्ट करना।

 

प्रश्न 27. (स)-कोलॉइडी कणों पर विद्युत आवेश की उत्पत्ति कीजिए। 

उत्तर-  कोलॉइडी कणों पर विद्युत आवेश की व्याख्या करने के लिए दिए गए जिनमें से कुछ मुख्य निम्न प्रकार हैं

(i) वियोजन सिद्धान्त- इसके अनुसार, सोडियम स्टिऐरेट, पामाटा विद्यत-अपघट्य कोलॉइडों में आवेश आयनों के कारण होता है जिस कारण इसको कोलाइडी विधुत कहते है  परन्तु अन्य विद्युत-अनअपघट्य कोलॉइडी विलयनों जैसे धुएँ, कोहरे आदि पर आवेश आयनों के कारण नहीं होता है।

(ii) घर्षण द्वारा आवेश की उत्पत्ति- एक अन्य मतानुसार, कोलॉइडी कणों पर आवेश की उत्पत्ति के लिए परिक्षेपण माध्यम में कोलॉइडी कणों तथा अणुओं के बीच का घर्षण उत्तरदायी होता है। इसके अनुसार, परिक्षेपण माध्यम का परावैद्युत स्थिरांक उच्च होने पर (जैसे-जल के लिए) सॉल ऋणावेशित हो जाता है, परन्तु बहुत से जलीय सॉल भी धनावेशित होते हैं। अतः यह सिद्धान्त सत्य सिद्ध नहीं हुआ।

(iii) अधिशोषण सिद्धान्त- आधुनिक विचार के अनुसार, कोलॉइडी कणों पर आवेश उनकी सतह पर आयनों के वर्णात्मक अधिशोषण के कारण होता है। ये आयन परिक्षेपण माध्यम में उपस्थित होते हैं, कोलॉइडी कणों पर दोहरी परत होती है। एक परत अधिशोषित आयनों की होती है तथा दूसरी परत परिक्षेपण माध्यम में उपस्थित विपरीत आवेश वाले आयनों की होती है जो विसरित परत कहलाती है।

 

आवेश उत्पन्न होने के कारण को निम्नलिखित उदाहरणों से स्पष्ट कर सकते हैं –

 

(i) FeCl3 के जल-अपघटन से प्राप्त Fe(OH)3 के कोलॉइडी कणों पर धनावेश होता है।

यह धनावेश Fe(OH)3 कणों पर Fe3+ आयनों के अधिशोषण के कारण उत्पन्न होता है। । इसके साथ-साथ Clआयनों की विसरित परत इनको स्थायित्व प्रदान करती है। अत: इसके | कोलॉइडी कणों को निम्न प्रकार प्रदर्शित कर सकते हैं—

 

(ii) प्रवाहित करने पर As2S3 का ऋणात्मक सॉल As2S3 कणों पर s2- आयनों के अधिशोषण से बनता है तथा H+ आयन विसरित परत बनाते हैं।

 

प्रश्न 28. रसायन में कोलॉइडों के महत्त्वपूर्ण अनुप्रयोगों की व्याख्या कीजिए।

उत्तर :            रसायन में कोलॉइडों के महत्त्वपूर्ण अनुप्रयो 

कोलॉइडों की हमारे दैनिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कोलॉइड उद्योगों में व्यापक रूप से प्रयुक्त होते हैं। इनके कुछ महत्त्वपूर्ण अनुप्रयोग निम्नलिखित हैं

  1. धूम्र का विद्युतीय अवक्षेपण- धूम्र, कार्बन, आर्सेनिक यौगिकों, धूल आदि ठोस कणों का वायु में कोलॉइडी विलयन है। चिमनी के बाहर आने से पहले धुएँ को इसके कणों के आवेश से विपरीत आवेश वाले इलेक्ट्रोडों के कक्ष में से गुजारा जाता है। कण इन प्लेटों के सम्पर्क में आने पर अपना आवेश खो देते हैं तथा अवक्षेपित हो जाते हैं। इस प्रकार कण कक्षको तली में बैठ जाते हैं। इस अवक्षेपक को कोटेल धूम्र अवक्षेपक precipitator) कहा जाता है (चित्र-35)।
  2. पेयजल का शुद्धिकरण- प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त जल में प्रायः अशुद्धियाँ निलम्बित होती हैं। ऐसे जल से निलम्बित अशुद्धियों को स्कन्दित करने के लिए फिटकरी मिलाई जाती है जिससे जल पीने योग्य बन जाता है।
  3. कोलॉइडी औषध- अधिकांश औषध कोलॉइडी प्रकृति की होती हैं। उदाहरणार्थ-आँख का लोशन आर्जिरॉल एक सिल्वर सॉल है। कोलॉइडी एण्टीमनी का उपयोग कालाजार के इलाज में होता है। कोलॉइडी गोल्ड का उपयोग अन्त:पेशी इन्जेक्शन में किया जाता है। दूधिया मैग्नीशिया जो कि एक इमल्शन है, का उपयोग पेट की गड़बड़ी दूर करने में किया जाता है। कोलॉइडी औषध अधिक प्रभावशाली होती हैं क्योंकि बड़े पृष्ठ क्षेत्र के कारण ये आसानी से स्वांगीकृत हो जाती हैं।
  4. चर्मशोधन- पशुओं की खाल कोलॉइडी प्रकृति की होती है। जब खाल ‘ आवेशित कण होते हैं और इसे टैनिन में भिगोया जाता है, जिस पर ऋण आवेश वाले कण होते हैं जिससे पारस्परिक स्कन्दन हो जाता है। इससे चर्म कठोर हो जाता है। इस को चर्मशोधन कहते हैं। टैनिन के स्थान पर क्रोमियम लवणों का उपयोग भी कियाजाता है
  5. फोटोग्राफी प्लेटें तथा फिल्में जिलेटिन में प्रकाश- संवेदी सिल्वर इमल्शन का ग्लास प्लेटों या सेलुलॉइड फिल्मों पर विलेपन कर फोटोग्राफी की प्लटया फिल्म बनाई जाती है
  6. रबड़ उद्योग- लैटेक्स रबड़ के ऋण आवेशित कणों का कोलॉइडी विलयन है। बड को लैटेक्स के स्कन्दन से प्राप्त किया जाता है।
  7. औद्योगिक त्पाद- पेट, स्याही, संश्लेषित ‘लास्टिक, रबड़, ग्रेफाइट, चिकनाई स्नेहक) (Lubricant), सीमेंट आदि सभी कोलॉइडी बिलय है।
  8. अवशिष्ट निस्तारण- अवशिष्टों में धूल के कण आदि जल में निलम्बित इती हैं; इसलिए ये प्रकृति में कोलॉइडी तथा आवेशित होन । ये का सरलतापूर्वक नीचे नहीं ठते हैं। इन कणों को इलेक्ट्रोडों पर निरावेशित करके या जा सकता है। गन्दे जल को त्विक इलेक्ट्रोडों से युक्त एक बड़े टैंक में या एक टनर से प्रवाहित किया जाता है जिन्हें उच्च विभवान्तर पर नियन्त्रित किया गया होता है। कोलॉइटा कण विपरीत आवेशित इलेक्ट्रोडों र अभिगमित होते हैं जहाँ ये अपना आवेश खोकर स्कन्दित हो जाते हैं। स्कन्दित द्रव्यमान को बाद्य के रूप में तथा प्राप्त जल को सिंचाई में प्रयोग किया जा सकता है।
  1. कीटाणुनाशी के रूप में कीटाणुनाशक जैसे डेटॉल तथा लाइसॉल जल में श्रित करने पर ‘जल में तेल’ पायस देते हैं।
  2. 10. अन्य अनुप्रयोग- (i) जब हवा की बहुत बड़ी मात्रा जिसमें धूल के कण होते हैं, पने ओसांक से नीचे ठण्डी हो जाती है तो हवा की नमी इन कणों पर संघनित हो जाती है और न्दुक (droplets) बना लेती है। ये बिन्दुक कोलॉइडी प्रकृति के होने के कारण हवा में धुन्ध -“कोहरे के रूप में तैरते रहते हैं। बादल हवा में निलम्बित जल के बिन्दुकों से बने ऐरोसॉल ते हैं। ऊपरी वायुमण्डल में संघनन के कारण जल के कोलॉइडी बिन्दुक और बड़े होते जाते हैं ब तक कि वे वर्षा के रूप में नीचे न आ जाएँ। कभी-कभी दो विपरीत आवेशित बादलों के लने से भी वर्षा होती है।

(ii) मक्खन, दूध, आइसक्रीम, हलवा, फलों का रस आदि ये सभी किसी-न-किसी -प में कोलॉइड होते हैं।

(iii) रुधिर ऐल्बुमिनॉइड पदार्थ का कोलॉइडी विलयन होता है। फिटकरी एवं फेरिक लोराइड के विलयन का रक्तस्राव को रोकने का कार्य रुधिर के स्कन्दन से बनने वाले थक्के – कारण होता है जो खून को बहने से रोकता है।

(iv) उर्वर मृदाएँ कोलॉइडी प्रकृति की होती हैं जिनमें ह्यूमस. रक्षक कोलॉइड की भाँति कार्य करता है। कोलॉइड प्रकृति के कारण मृदाएँ नमी एवं पोषक पदार्थों को अधिशोषित

रती है।

(v) नदी के जल में मृदा का कोलाइडी विलयन होता है। समुद्र के जल में बहुत सारे बद्युत अपघट्य होते हैं। जब नदी का जल समुद्र के जल से मिलता है तो समुद्र के जल में पस्थित विद्युत-अपघट्य मिट्टी के कोलॉइडी विलयन को स्कन्दित कर देता है जिससे यह म जाती है तथा डेल्टा बन जाता है।

 

 

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