Bsc 2nd Year Botany VI Plant Physiology And Biochemisty Long Notes :-
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न ।
खण्ड ‘ब’
प्रश्न 1- आवश्यक तत्त्व क्या होते हैं? पौधों में इनका क्या महत्त्व है? N, P, K, Mg, Fe तथा Ca तत्त्वों के न्यूनता लक्षण लिखिए।
उत्तर – आवश्यक तत्त्व.
(Essential Elements)
पौधों को कुछ खनिज आयनों तथा लवणों की आवश्यकता होती है जो कि उनकी वृद्धि के लिए आवश्यक होते हैं। कुछ तत्त्व ऐसे होते हैं जिनके बिना पौधे अपना जीवन-चक्र पूरा नहीं कर सकते हैं। ऐसे तत्त्वों को आरनन (1939) नामक वैज्ञानिक ने आवश्यक तत्व के नाम से पुकारा। आवश्यक तत्त्वों की अग्र रूप से दो किस्में होती हैं
1.गुरुतत्त्व (Macronutrients)-पौधों को काफी बड़ी मात्रा में इनकी आवश्यकता होती है; जैसे-N, P, K, Mg, Ca, C, H, O, Na, S, Fe.
2. लघुतत्त्व (Micronutrients)-पौधों को काफी कम मात्रा में इनकी आवश्यकता होती है; जैसे-B, Zn, Cu, Co, Mn, Mo, Se, C तथा Ni. इन्हें trace elements भी कहते हैं।
आवश्यक तत्त्वों का पौधों के लिए महत्त्व – (Importance of Essential Elements for Plants)
ये. तत्त्व निम्नलिखित कार्यों में काम आते हैं-
(1) कोशिका के अन्दर परासरण दाब (osmotic pressure) बनाए रखते हैं।
(2) एन्जाइम्स को सक्रिय रखते हैं; जैसे-Mg, K, Ca.
(3) इलेक्ट्रॉन संवहन तन्त्र में काम आते हैं; जैसे-Cu.
(4) बफर क्रिया में काम आते हैं।
(5) पारगम्यता (permeability) को बनाए रखते हैं।
(6) कोशिका की कुछ रचनाओं की बनावट में काम आते हैं; जैसे–Mg, Ca..
तत्त्वों के न्यूनता लक्षण (Deficiency Symptoms of Elements)
तत्त्वों के न्यूनता लक्षण निम्नलिखित हैं-
1. नाइट्रोजन (N) – यह ऐमीनो अम्ल, प्रोटीन, न्यूक्लिक अम्लों, हरितलवक एवं विटामिन आदि के बनाने में काम आती है। इसकी कमी से पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं, वृद्धि रुक जाती है, फूल देर से आते हैं तथा कोशिका विभाजन रुक जाता है।
2: फॉस्फोरस (P) यह DNA, RNA, ATP, विटामिन्स तथा प्रोटीन्स के बनाने में सहायक होता है। फॉस्फोरस की कमी से बीज देर से उगते हैं, पत्तियाँ गहरे हरे रंग की होती हैं तथा पत्तियाँ जल्दी गिर जाती हैं।
- पोटैशियम (K) — इसके मुख्य कार्य हैं स्टार्च बनाना, शक्कर तथा DNA का बनाना। इसकी कमी से पत्तियों में चकत्ते पड़ जाते हैं, तना छोटा हो जाता है तथा क्लोरोसिस रोग हो जाता है। इससे श्वसन-क्रिया भी बढ़ जाती है।
4. कैल्सियम (Ca) – यह कोशिका भित्ति, मिडिल लैमेला तथा क्रोमोसोम्स का अंग होता है। इसकी कमी से अंगों में विकृति आ जाती है, पत्तियाँ पीली पड जाती हैं तथा उनके किनारे घुमावदार हो जाते हैं।
5. मैग्नीशियम (Mg)—यह क्लोरोफिल का एक मुख्य संघटक होता है। इसकी कमी से पत्तियों में क्लोरोसिस हो जाता है तथा उन पर बैंगनी रंग के चकत्ते पड़ जाते हैं।
6. आयरन (Fe) – यह फ्लेवोप्रोटीन, साइटोक्रोम तथा कुछ एन्जाइम्स का एक अंग दोता है। इसकी कमी से छोटी पत्तियों में क्लोरोसिस हो जाता है तथा श्वसन की गति पौधों में कम हो जाती है।
प्रश्न 2 – वाष्पोत्सर्जन के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर – वाष्पोत्सर्जन का महत्त्व
वाष्पाजन का महा des (Significance of Transpiration) वाष्पोत्सर्जन एक ऐसी प्रक्रिया है जो अति आवश्यक है, परन्तु इससे 90% जल वाष्प बनकर उड़ जाता है। बहत-से पौधों में इससे बचने के लिए विभिन्न रूपान्तरण पाए जाते हैं। वे पत्तियाँ तक गिरा देते हैं। इससे प्रकाश-संश्लेषण में भी कमी आती है। वाष्पोत्सर्जन एक आवश्यक बुराई (necessary evil) है।
वाष्पोत्सर्जन की उपयोगिता, (Advantages of Transpiration)
वाष्पोत्सर्जन की उपयोगिता निम्नवत् है
- जल का अवशोषण (Absorption of Water)-तेज गति से होने वाला मोत्सर्जन अप्रत्यक्ष रूप से अवशोषण को प्रभावित करता है। तेज वाष्पोत्सर्जन से अवशोषण की क्रिया भी तेज होती है।
- खनिज अवशोषण तथा रसारोहण (Mineral Absorption and Ascent of sap)- मृदा से खनिज लवणों का अवशोषण होता है। यह वाष्पोत्सर्जन बल (transSwation pull) से ऊपर को चढ़ता है। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि वाष्पोत्सर्जन खनिज अवशोषण तथा परिवहन में सहायक है, परन्तु अब यह पता चल चुका है कि जल अवशोषण तथा खनिज अवशोषण दो अलग-अलग प्रक्रियाएँ हैं। खनिज परिवहन में वाष्पोत्सर्जन सहायक है। वाष्पोत्सर्जन की तीव्र गति से रसारोहण की गति में तीव्रता आती है।
- तापक्रम सन्तुलन (Regulation of Temperature)-वाष्पोत्सर्जन से पौधों तथा उनके अंगों का तापमान नहीं बढ़ता है। दोपहर की तेज गर्मी व धूप में यदि वाष्पोत्सर्जन की क्रिया न हो तो पत्तियाँ झुलस जाएँगी। पानी का वाष्पोत्सर्जन होते रहने से लगभग 600 cal/g तक ताप कम होता है।
- जल का परिसंचरण (Circulation of Water)-पौधों की जड़ से पत्ती तक लगातार वाष्पोत्सर्जन के द्वारा ही जल प्रवाहित होता है।
वाष्पोत्सर्जन से हानियाँ
(Disadvantages of Transpiration) –
वाष्पोत्सर्जन से निम्नलिखित हानियाँ हैं-
(1) पौधों द्वारा अवशोषित कुल जल का 97% वाष्पित हो जाता है।
(2) वाष्पोत्सर्जन की तीव्रता से कभी-कभी मृदा में जल की कमी हो जाती है। पौधों के सूखने से नर्म ऊतक (soft tissues) को हानि हो सकती है।
(3) वाष्पोत्सर्जन की तीव्र गति से हुई हानि से अस्थायी म्लानि (temporary ” wilting) होती है। अत्यधिक वाष्पोत्सर्जन से स्थायी म्लानि की सम्भावना रहती है। ।
(4) बहुत-से मरुद्भिदों में पत्ती तथा तने में रूपान्तरण से वाष्पोत्सर्जन की दर कम होती है,
जैसे-उपत्वचा का मोटा होना, रन्ध्रों का धंसा होना, पत्तियों का काँटों में रूपान्तरित – होना आदि।
(5) कुछ पेड़ आदि वाष्पोत्सर्जन से बचने के लिए समस्त पत्तियाँ एक साथ गिरा देते हैं।
अतः वाष्पोत्सर्जन की उपयोगिता तथा हानि को देखते हुए कहा जा सकता है कि वाष्पोत्सर्जन की क्रिया एक अत्यन्त आवश्यक क्रिया है। इसलिए कर्टिस (Curtis) ने सन् 1926 में इसे एक आवश्यक बुराई (necessary evil) बताया।
प्रश्न 3 – विलेयों के स्थानान्तरण से आप क्या समझते हैं? उच्च श्रेणी के पौधों में ला(कार्बनिक पदार्थों ) के स्थानान्तरण की क्रियाविधि के विभिन्न वादों का विस्तृत वर्णन कीजिए।
उत्तर – विलेयों का स्थानान्तरण
(Translocation of Solutes).
साधारण रूप में पौधों में पत्तियों की हरे रंग वाली कोशिकाएँ भोजन बनाने का कार्य करती हैं। भोजन पौधे के अन्य दूसरे अंगों में भी एकत्र रहता है। इस बने हुए भोजन का पत्तियों से पौधे के अन्य सभी भागों में (जहाँ उसकी आवश्यकता होती है) वितरित होना आवश्यक होता है। भोज्य पदार्थों (food materials) के अपने निर्माण के स्थान से अन्य भागों को स्थानान्तरित किए जाने की क्रिया को ही विलेयों का स्थानान्तरण (translocation of solutes) कहते हैं।
स्थानान्तरण का पथ (Path of Translocation)-पौधे में भोजन का परिधीय स्थानान्तरण मुख्य रूप से मज्जा. रश्मि अथवा मेड्यूलरी किरणों (medullary rays) के माध्यम से होता है, लेकिन मुख्य रूप से स्थानान्तरण लम्बवत् (longitudinal) होता है। कर्टिस (Curtis) नामक वैज्ञानिक के अनुसार कार्बनिक घुलित पदार्थों का स्थानान्तरण फ्लोएम (phloem) के माध्यम से होता है। यह स्थानान्तरण ऊपर तथा नीचे दोनों ओर (upward and downward) होता है। निम्नलिखित तथ्यों के कारण यह सिद्ध होता है कि विलेयों का स्थानान्तरण केवल फ्लोएम के माध्यम से ही होता है –
(1) फ्लोएम (phloem) के अलावा तने से बाकी सभी ऊतकों (tissues) को अलग
(2) फ्लोएम की रचना तथा बनावट।
(3) फ्लोएम की चालनी नलिकाओं (sieve tubes) के बन्द होने से विलेयों के ८.५. स्थानान्तरण का रुकना।
(4) फ्लोएम के रासायनिक विश्लेषण करने से।
(5) रिंगिंग प्रयोग (ringing experiment) से।
ये सभी तथ्य बताते हैं कि विलेयों का स्थानान्तरण केवल फ्लोएम के माध्यम से ही भोला । केवल कछ विशेष परिस्थितियों में विलेयों का ऊपर की ओर स्थानान्तरण जाइलम (xylem) के माध्यम से होता है।
विलेयों के स्थानान्तरण की दिशा (Direction of Translocation of Solutes) – विलेयों के स्थानान्तरण की प्रक्रिया दो दिशाओं में चलने वाली प्रक्रिया कर ऊपर की ओर (upward) होता है तथा कुछ नीचे की ओर (don
and) होता है तथा कुछ नीचे की ओर (downward)। आधुनिक विधियों से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि विलेयो का स्थानान्तरण पाश्व्र दिशा में भी होता है।
विलेयों के स्थानान्तरण की क्रियाविधि के विभिन्न वाद
(Various Hypothesis of Mechanism of Translocation of Solutes)
अलग-अलग वैज्ञानिकों ने अलग-अलग समय में विलेयों के स्थानान्तरण की क्रियाविधि के विषय में अपने-अपने विचार प्रकट किए हैं, इनमें से कुछ वाद (theories) निम्न प्रकार से हैं-
- विसरण वाद (Diffusion Theory)—इस वाद के वैज्ञानिकों के अनुसार भोजन अपने बनने के स्थान से काम में आने वाले स्थानों तक विसरण की क्रिया के अन्तर्गत विसरित , होता है, इसमें जहाँ भोजन इकट्ठा रहता है, उसे संचरण सिरा (supply end) तथा जहाँ वह काम में आता है, उसे उपभोग सिरा (consumption end) कहते हैं।
- सक्रिय विसरण वाद (Activated Diffusion Theory)-मैसन तथा फिलिप (1936) के अनुसार चालनी नलिकाओं (seive tubes) का प्रोटोप्लाज्म विलेयों के विसरण को बढ़ाता है। यह बढ़ावा या तो उन विसरित होने वाले अणुओं के सक्रिय होने से होता है अथवा प्रोटोप्लाज्म की क्षमता कम होने के कारण होता है।
- आन्तरिक बहाव वाद (Interfacial Flow Hypothesis) होनर्ट (1932) नामक वैज्ञानिक के अनुसार विलेयों का स्थानान्तरण कुछ झिल्लियों (जैसे-टोनोप्लास्ट) के माध्यम से होता है।
4. मुंच का मास बहाव वाद (Munch’s Mass Flow Hypothesis) यह वाद मुंच (Munch) नामक वैज्ञानिक ने सन् 1920 ई० में दिया था, इसलिए इसे मुंच वाद भी कहते हैं। यह बात इस तथ्य पर निर्भर करती है कि संचरण सिरे (supply end) और उपभोग सिरे (consumption end) के बीच में एक स्फीति दाब गुणांक (turgor pressure gradient) स्थित रहता है। इसके कारण विलेयों का स्थानान्तरण केवल एक ही दिशा में होता है। चालनी नलिकाओं (sieve tubes) के माध्यम से विलेयों का स्थानान्तरण स्फीति दाब गुणांक के कारण होता है।
मास बहाव वाद (Mass Flow Hypothesis) को नीचे दो ऑस्मोमीटरों (A and B) से दिखाया गया है जिन्हें एक नली P से जोड़ा गया है। ‘A’ ऑस्मोमीटर को अधिक सान्द्रता वाले शक्कर के घोल से भरा जाता है तथा ‘B’ ऑस्मोमीटर में पानी भरा जाता है। इन दोनों ऑस्मोमीटरों को एक पानी से भरे बर्तन में रख दिया जाता हैं। ‘A’ ऑस्मोमीटर संचरण सिरे के रूप में कार्य करता है तथा ‘B’ ऑस्मोमीटर उपभोग सिरे के रूप में। ‘P’ नली चालनी नलिका (sieve tube) के रूप में काम आती है। पानी से भरा हुआ बर्तन जाइलम (xylem) ऊतकों के रूप में कार्य करता है। ‘A’ ऑस्मोमीटर से द्रव ‘P’ नली के माध्यम से ‘B’ऑस्मोमीटर की ओर जाता है जो कि स्फीति दाब गुणांक (turgor pressure gradient) के कारण होता है। यह क्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि दोनों ऑस्मोमीटरों में विलेयों की सान्द्रता बिल्कुल एक जैसी नहीं हो जाती है।
प्रश्न 4 – रसारोहण से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।
उत्तर – रसारोहण
(Ascent of Sap)
पौधों की जड़ों द्वारा एक ओर तो बहुत अधिक मात्रा में जल अवशोषित किया जाता है
तथा दूसरी ओर साथ-ही-साथ पानी की काफी मात्रा पत्तियों आदि से भाप बनकर वाष्पोत्सर्जित की जाती रहती है। इस प्रकार से जड़ों द्वारा अवशोषित जल के पत्तियों तक पहुँचने की क्रिया को रसारोहण (ascent of sap) कहते हैं।
रसारोहण की क्रिया
Mechanism of Ascent of Sap)
यहापि रसारोहण की सही प्रक्रिया का ठीक-ठीक पता नहीं है, फिर भी इस क्रिया को समझाने के लिए विभिन्न वैज्ञानिकों ने अपने मत प्रस्तुत किए हैं।
अनेक प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध किया जा चुका है कि पानी जाइलम के माध्यम से सारोहित होता है। रसारोहण की गति 0.2 से 2 मीटर प्रति घण्टा तक होती है।
रसारोहण से सम्बन्धित सभी सिद्धान्तों को निम्नलिखित तीन प्रकार के सिद्धान्तों में विभाजित किया जा सकता है –
- जैविक वाद (Vital Theories),
- मूल दाब वाद (Root Pressure Theories) तथा
III. भौतिक वाद (Physical Theories)।
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जैविक वाद (Vital Theories)
गॉडलेवस्की (1884) ऐसा मानते थे कि रसारोहण जाइलम पैरेन्काइमा एवं मेड्यूलरी रेज की जीवित कोशिकाओं के ऑस्मोटिक दाब में लयदार या आवर्ती (rhythmic) परिवर्तनों के कारण होता है। इस दाब से पानी ऊपर की ओर को जाता है।
स्ट्रासबर्गर (1893) के अनुसार रसारोहण की क्रिया जीवित कोशिकाओं से स्वतन्त्र होती है और यह तभी हो सकती है, जब ये जीवित कोशिकाएँ मृत हो जाएँ।
जे० सी० बोस (1923) के अनुसार एपिडर्मिस से एकदम बाहर को, कॉर्टेक्स की सबसे . अन्दर की परत की कोशिकाएँ एक रिदमिक पल्सेशन की अवस्था में रहती हैं और इससे पानीएक काशिका से दूसरी कोशिका में पौधे के ऊपर की दिशा में पम्प होता रहता है।
-
मूल दाब वाद (Root Pressure Theories)
स्टोकिंग (1956) एवं कुछ अन्य वैज्ञानिकों का मानना है कि रसारोहण मूल दाब (root pressure) के कारण ही होता है। यह दाब जाइलम के वाहिनिका (tracheids) में विकसित होता रहता है। यह दाब उपापचयी क्रियाओं (metabolic activities) के कारण पैदा होता है, लाकन अकेले मूल दाब से पानी बड़े-बड़े पेड़ों में इतनी ऊँचाई तक नहीं पहुंच सकता।
III. भौतिक वाद (Physical Theories)
रसारोहण के कुछ विश्व प्रसिद्ध वाद निम्नलिखित हैं-
Boehm’s capillary theory, Sach’s imbibition theory, Dixon and Jolly’s Cohesion-tension Theory etc.
इन वादों में से डिक्सन एवं जौली की Cohesion-Tension Theory विश्व में सर्वाधिक मान्य है। इस वाद को Dixon एवं Jolly ने सन् 1894 में प्रतिपादित किया था। इस वाद की तीन बातें निम्नवत् हैं-
(i) जल का तीव्र आसंजन व संसंजन बल (strong cohesive and adhesive forces of water)।
(ii) मृदा जल से लेकर पत्ती के ऊतक में मिलने वाले जल तक पानी के स्तम्भ की निरन्तरता (continuity of water column from soil water. to the water of leaf tissue)।
(iii) जल स्तम्भ पर वाष्पोत्सर्जनाकर्षण बल (tension or transpiration pull on
the water column)।
इस वाद (Cohesion-Tension Theory) को वाष्पोत्सर्जन-खिंचाव वाद (Transpiration Pull Theory) भी कहते हैं।
प्रश्न 5 – वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारकों तथा इस क्रिया में रन्ध्र (stomata) के महत्त्व पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर- वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारक
– (Factors Affecting Transpiration)
वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारक हैं-बाह्य कारक (external factors) तथा अन्तःकारक (internal factors)|
बाह्य कारक (External Factors);
- प्रकाश (Light)-प्रकाश की उपस्थिति में रन्ध्र खुलते तथा बन्द होते हैं। रात में वाष्पोत्सर्जन कम होता है क्योंकि स्टोमेटा बन्द होते हैं। प्रकाश की अधिकता से ताप बढ़ता है जिससे वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ती है तथा यह अन्धकार में कम हो जाती है। लाल तरंग-दैर्घ्य वाली किरणों (600 mu) में स्टोमेटा खुलते हैं। नीली तरंग-दैर्घ्य वाली किरणों (445 mu) में भी स्टोमेटा खुलते हैं।
2.वायु (Wind)-अधिक गति से वायु चलने पर वाष्पोत्सर्जन की क्रिया तेज हो जाती है क्योंकि पत्तियों के ऊपर की वाष्प वाली वायु हट जाती है तथा पत्ती के अन्दर व बाहर के वाष्प दाब (vapour pressure) में अन्तर बढ़ जाता है।
- तापक्रम (Temperature)-अधिक तापमान में वायुमण्डल का दाब बढ़ता है तथा वाष्पोत्सर्जन की क्रिया तीव्र गति से होती है। वायुमण्डलीय आर्द्रता में कमी आने लगती है।
4.प्राप्य जल (Available Water)-भूमि में जल की कमी होने से वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है। जल की अत्यधिक कमी से म्लानि (witlting) होती है।
5. वायुमण्डलीय आपेक्षिक आर्द्रता (Atmospheric relative Humidity)शिक आर्द्रता किसी एक समय में वायुमण्डल में उपस्थित वास्तविक वाष्प की मात्रा तथा उस समय वायमण्डल का सतृप्त (saturate) करने के लिए वाष्प की आवश्यक मात्रा का अनुपात होता है। कम आपेक्षिक आद्रेता पर वायुमण्डल शुष्क (dry) होता है और वाष्पोत्सर्जन
तेज हो जाता है। आपेक्षिक आर्द्रता बढ़ने से पत्तियों के आस-पास का वातावरण अधिक आर्द Chumid) हो जाता है और वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है।
- वायुमण्डलीय दाब (Atmospheric Pressure)- पहाड़ों पर या अधिक ऊँचाई पर वायमण्डलीय दाब कम होता है और वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है। इसलिए अधिक ऊँचे पहाड़ों पर भी मरुद्भिद मिलते हैं।
अन्तःकारक (Internal Factors)
पत्ती की संरचना का वाष्पोत्सर्जन पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
उपत्वचा की मोटाई अथवा मोम का होना – जब उपत्वचा (cuticle) अधिक मोटी अथवा मोम की होती है, तब वाष्पोत्सर्जन की दर कम होती है। रन्ध्र की संख्या. उनकी पत्ती की सतह पर उपस्थिति (ऊपरी सतह पर, निचली सतह पर अथवा दोनों सतहों पर). पत्ती की चौड़ाई आदि से भी वाष्पोत्सर्जन की दर पर सीधा प्रभाव पड़ता है। पौधों में वाष्पोत्सर्जन की दर को कम करने के लिए कई प्रकार के रूपान्तरण (modifications) पाए जाते हैं: जैसेमरुद्भिद् (xerophytes)। नवोद्भिद् में वाष्पोत्सर्जन की दर कम होती हैं तथा परिपक्व पौधों में तीव्र, परन्तु धीरे-धीरे वृद्ध पौधों में यह दर कम होती जाती है।
(1) 90% वाष्पोत्सर्जन रन्ध्रों के द्वारा होता है। पानी की कमी होने पर रन्ध्र बना अथवा धंसे होने से वाष्पोत्सर्जन की दर कम कर सकते हैं।
(2) इनके द्वारा गैसों का विनिमय (gaseous exchange) होता है जैसे प्रकाश संश्लेषण तथा श्वसन में co, तथा 0, का। प्रकाश संश्लेषण में CO2 ली जाती है तथा 0. छोड़ी जाती है। इसके विपरीत श्वसन में 02 ली जाती है तथा CO, छोड़ी जाती है। •
(3) अप्रत्यक्ष रूप से ये अवशोषण तथा रसारोहण को संचरित करते हैं।
प्रश्न 6 – पौधों में जल के अवशोषण की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर – जल का अवशोषण .
(Absorption of Water)
जल पौधों के लिए बहुत आवश्यक है क्योंकि यह प्रोटोप्लाज्म का आवश्यक अंग है। गैसों, खनिज लवणों के लिए यह एक माध्यम का कार्य करता है तथा पौधों की बहत-सी क्रियाओं में यह काम आता है। जलं के कारण ही वाष्पोत्सर्जन की क्रिया पूरी हो पाती है. इसलिए भी यह आवश्यक है। इन्हीं सभी क्रियाओं की पूर्ति के लिए पौधे जल का अवशोषण करते हैं।
जल के अवशोषण की क्रिया में यह भूमि के कणों के बीच से होता हुआ जड़ों तक पहुँचता है। वहाँ से यह तने में प्रवेश करता है और ऊपर पौधे के अन्य अंगों तक पहुँचता है।
अवशोषित जल का बहुत बड़ा भाग वाष्पोत्सर्जन की क्रिया में पौधे से बाहर चला . जाता है।
पौधे कौन-से जल का अवशोषण करते हैं
मृदा के छोटे-छोटे कणों के बीच में बहुत महीन नलियाँ अथवा केशिकाएँ या कैपिलेरीज (capillaries) होती हैं। इन छोटी-छोटी कैपिलेरीज में या तो जल भरा रहता है अथवा मृदा के कणों के चारों ओर जल की पतली फिल्म रहती है। इस जल को केशिका जल (capillary water) कहते हैं। जल के अवशोषण की क्रिया में पौधे इस capillary water का अवशोषण करते हैं।
जल अवशोषण तन्त्र (Water Absorbing system)
जल वास्तव में जड़ों द्वारा अवशोषित किया जाता है, लेकिन जल के अवशोषण में पूरी जड़ की सतह काम में नहीं आती है। जल का सक्रिय अवशोषण (active absorption) जड़ के केवल मूलरोम (root hair) वाले भाग से ही होता है। जड़ के ऊपर के भाग में निम्नलिखित चार भाग दिखाई देते हैं
- मूलगोप (Root Cap)—यह जड़ के एम्ब्रियोनिक भाम को ढके रहती है और टोपी की शक्ल की होती है। जल इसमें से आसानी से नहीं.. आ-जा सकता है।
- एम्ब्रियोनिक क्षेत्र (Embryonic Zone)–यह जड़ का वह भाग है जहाँ श्वसन तथा विलेय (solutes) का अवशोषण सबसे तीव्र गति से ) होता है।
- लम्बाई वाला क्षेत्र (Zone of Elongation) जड़ इस क्षेत्र में लम्बाई में सबसे ज्यादा बढ़ती है।
- मूलरोम क्षेत्र (Root-hair Zone) – इस भाग में हजारों मूलरोम (root- hairs) निकले रहते हैं। जल का अवशोषण इस भाग में सर्वाधिक होता है।
जल अवशोषण की क्रिया-विधि (Mechanism of water Absorption).
क्रैमर नामक वैज्ञानिक के अनुसार पौधे जल का अवशोषण दो प्रकार से करते हैं-
- सक्रिय अवशोषण (Active Absorption)-धीरे-धीरे वाष्पोत्सर्जन करने वाले तथा अच्छी प्रकार से सिंचित पौधों में जड़ों की अवशोषण शक्तियाँ सक्रिय रूप से भाग लेती हैं। इस क्रिया में ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अतः इसे सक्रिय अवशोषण (active absorption) कहते हैं।
2.निष्क्रिय अवशोषण (Passive Absorption)-तेजी से वाष्पोत्सर्जन करने वाले प्रौधों में जो
म जल का अवशोषण, स्तम्भ (stele) में पैदा होने वाले वाष्पोत्सर्जन खिंचाव Fanspiration pull) के द्वारा होता है। इस प्रकार के अवशोषण में ऊर्जा की आवश्यकता का हाता है। इसलिए इसे निष्क्रिय अवशोषण (passive absorption) कहते हैं।
मृदा के कण कलिलीय अवस्था (colloidal state) मे हात ह। इनमें जल की कळ मात्रा सदव बनी रहती है। प्रत्येक मलरोम के चारों ओर एक अर्द्धपारगम्य झिल्ली होती . नीचे साइटोप्लाज्म की एक परत होती है तथा बीच में एक रिक्तिका (vacuole) होती है। इसके द्रव्य में खनिज लवण, अम्ल तथा शक्कर आदि भरे रहते हैं। इस प्रकार के मलरोगों (root-hair) में खनिज लवणों आदि के कारण कोशिका का परासरण दाब (oshn” pressure) मृदा में स्थित जल आदि के परासरण दाब से अधिक होता है। इस प्रकार मूलरोम के अन्दर वाला घोल काफी गाढ़ा होता है, इसलिए मृदा में स्थित कम घनत्व वाला घोल अन्तःपरासरण (endosmosis) की क्रिया द्वारा मूलरोम में स्थित गाढ़े घोल की ओर बढ़ता है इस प्रकार जल बाहर से आकर परासरण की क्रिया द्वारा मूलरोम की कोशिका में आ जाता है। यह क्रिया परासरण दाब (osmotic pressure) द्वारा नियन्त्रित की जाती है।
मृदा से जल शोषित करने के कारण मूलरोम (a) फूल जाता है और इसका परासरण दाब भी कम हो जाता है। अत: इसका स्फीति दाब (turgor pressure) बढ़ जाता है। इसी के साथ ही इस कोशिका (a) का शोषण दाब (suction pressure) साथ वाली कोशिका (b) से कम हो जाता है। इसी की वजह से जल कोशिका (a) से कोशिका (b) में चला जाता है। अब इससे कोशिका (b) मूलरोम कोशिका (a) की तरह फूल जाती है और (a) सामान्य दशा में आ जाती है। इसी प्रकार से कोशिका (b) से जल कोशिका (c) में तथा d, e, f, g, h तक चला जाता है। मूलरोम कोशिका (a) द्वारा शोषित जल इस तरह से जाइलम ऊतकों (xylem tissues) तक चला जाता है, जहाँ से यह जल निरन्तर ऊपर जाता रहता है।
प्रश्न 7 – सक्रिय Kt स्थानान्तरण प्रक्रिया पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर – सक्रिय र स्थानान्तरण प्रक्रिया
(Active Ki Transport Mechanism)
लेविट (Levitt; 1974) के अनुसार K+ के द्वार कोशिकाओं में प्रवेश करने तथा बाहर जाने से रन्ध्र खलते व बन्द होते हैं। प्रकाश में द्वार कोशिकाओं में मैलिक अम्ल (malic acid) बनता है जिसका मैलेट (malate) तथा H+ में वियोजन होने से H+ आयन मिल जाते हैं। ये H+ आयन K+ आयन से exchange होते हैं। K कोशिका में आ जाते ह तथा H+ बाहर निकल जाते हैं। K+ मैलेट के साथ मिलकर पोटैशियम मैलेट (Potassium __malate) बनाते हैं। यह रिक्तिका (vacuole) में स्थानान्तरित होता है। इसकी उपस्थिति से
परासरण दाब बढ़ता है और जल द्धार कोशिका में प्रवेश करता है जिसके फलस्वरूप रन्ध्र खुल जाता है।
K+ आयन द्वार कोशिकाओं से बाहर निकलकर आस-पास की कोशिकाओं के करते हैं, इससे द्वार कोशिका की परासरण सान्द्रता कम हो जाती है और स्फीति दाबा से पानी बाहर निकल जाता है जिससे कोशिकाएँ श्लथ हो जाती हैं और रन्ध्र बन्द हो जाते है।
प्रश्न 8 – वाष्पोत्सर्जन क्या है? वाष्पोत्सर्जन कितने प्रकार का होता “वाष्पोत्सर्जन एक आवश्यक बुराई है।” इस कथन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर – वाष्पोत्सर्जन
(Transpiration)
पौधों की जड़ें जमीन से लगातार काफी मात्रा में पानी अवशोषित करती रहती यह अवशोषित पानी रसारोहण (ascent of sap).की प्रक्रिया के अन्तर्गत जड़ों से पत्तियों तक पहुँचता है। इस अवशोषित पानी का थोड़ा-सा ही भाग पौधों की विभिन्न क्रियाओं में का आता है तथा शेष सारा पानी पौधे के बाहरी भागों (पत्तियों, तना आदि) से रन्ध्रों के द्वारा वाण बनकर बाहर निकलता रहता है। रन्ध्रों तथा अन्य भागों द्वारा पानी के वाष्प बनकर बाहर निकलने की इस प्रक्रिया को ‘वाष्पोत्सर्जन’ कहते हैं।
वाष्पोत्सर्जन के प्रकार :
(Types of Transpiration)
वाष्पोत्सर्जन तीन प्रकार से होता है
1.रन्धीय वाष्पोत्सर्जन (Stomatal Transpiration)—यह क्रिया पत्तियों पर पाए जाने वाले रन्ध्रों (stomata) के द्वारा होती है। लगभग 90% वाष्पोत्सर्जन रन्ध्रों द्वारा ही होता है। .
- उपत्वचीय वाष्पोत्सर्जन (Cuticular Transpiration)-इस प्रकार का वाष्पोत्सर्जन पत्तियों तथा तने की दोनों सतहों पर पायी जाने वाली क्यूटिकिल (cuticle) के माध्यम से होता है। इस विधि से वाष्पोत्सर्जन काफी कम मात्रा में होता है। .
3. वातरन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन (Lenticular Transpiration)-इस वाध वाष्पोत्सर्जन तने पर पाए जाने वाले वातरन्ध्रों (lenticles) द्वारा होता है। इस विधि स वाष्पोत्सर्जन बहुत ही कम मात्रा में होता है।
रन्ध्रों की रचना (Structure of Stomata)-पौधों की पत्तियों की बाह्यत्वचा (epidermis) में रन्ध्र (stomata) एक छोटे छिद्र (pore) के रूप में खुलते हैं। प्रत्येक रन्ध्र का छिद्र दो वृक्क (kidney) के आकार की बाह्यत्वचा की कोशिकाओं से घिरा रहता है। इन कोशिकाओं को रक्षक कोशिकाएँ (guard cells) कहते हैं। प्रत्येक गार्ड कोशिका की बाहरी दीवार पतली होती है एवं अन्दर की दीवार जो कि रन्ध्रों के छिद्र की तरफ होती है, मोटी होती है। बहुधा गार्ड कोशिकाओं की आकृति अन्य बाह्यत्वचा की कोशिकाओं से काफी भिन्न होती है। इन कोशिकाओं को सहायक या एस्सेसरी या सबसीडिएरी कोशिकाएँ (accessory or subsidiary. cells) कहते हैं।
“वाष्पोत्सर्जन एक आवश्यक बुराई है”
(Transpiration is a necessary evil)
निम्नलिखित कारणों से वाष्पोत्सर्जन की क्रिया पौधों के लिए लाभदायक नहीं होती है
(1) सामान्यतया जब वाष्पोत्सर्जन की दर काफी ऊँची होती है तथा भूमि में पानी की मात्रा कम हो जाती है, तब पौधों में आन्तरिक पानी की कमी (internal water deficit) बन जाती है। पौधों में आन्तरिक पानी की कमी की इस क्रिया से पौधों की अन्य बहुत-सी क्रियाओं पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
(2) वाष्पोत्सर्जन कम करने के लिए अनेक शुष्कोद्भिद् (xerophytic) पौधे अपने अन्दर बहुत-से आकारिकीय परिवर्तन तथा अनुकूलन (adaptations) विकसित कर लेते हैं।
(3) वाष्पोत्सर्जन के कारण पानी की होने वाली कमी को रोकने के लिए पतझड़ वाले । पेड़ों की पतझड़ (autumn) ऋतु में पत्तियाँ झड़ जाती हैं।
उपर्युक्त सभी हानियों के बावजूद भी पौधों में वाष्पोत्सर्जन की क्रिया के बिना काम नहीं चल सकता है क्योंकि उनकी पत्तियों की आन्तरिक रचना ही कुछ इस प्रकार की होती है जिनके द्वारा वाष्पोत्सर्जन होना आवश्यक होता है। सामान्य रूप में पत्तियों से गैसों का आदान-प्रदान, श्वसन, प्रकाश-संश्लेषण आदि क्रियाएँ होती हैं, लेकिन इन क्रियाओं के साथ-साथ वाष्पोत्सर्जन भी चलता रहता है। इस सत्य के कारण कर्टिस (1926) ने ‘वाष्पोत्सर्जन को एक आवश्यक बुराई (necessary evil) कहा। वाष्पोत्सर्जन के कारण ही पेड़-पौधे तापमान स्थिर बनाए रखते हैं अन्यथा दिन की तेज गर्मी में बड़े पेड़ तो झुलस जाते।
प्रश्न 9 – जीवद्रव्यकुंचन अथवा प्लाज्मोलिसिस से आप क्या समझते हैं? हाइपरटोनिक (अतिपरासारी), हाइपोटोनिक (अधोपरासारी) व आइसोटोनिक (समपरासारी) विलयन के विषय में लिखिए।
उत्तर – जीवद्रव्यकुंचन अथवा प्लाज्मोलिसिस (Plasmolysis)
सामान्य रूप से कोशिका रस (cell sap) प्रोटोप्लाज्म को कोशिकाभित्ति के विरुद्ध दबाता है। Cell sap का एक निश्चित परासरण दाब (osmotic pressure) होता है। अगर एक कोशिका को उच्च परासरण दाब वाले द्रव्य में रख दिया जाए, तब cell sap से पानी कोशिका से बाहर निकलने लगता है। यह परासरण (osmosis) की क्रिया के कारण होता है। कुछ समय बाद रिक्तिका (vacuole) का आकार कम हो जाता है और पूरा प्रोटोप्लाज्म सिकुड़
जाता है। इसी कारण प्रोटोप्लाज्म पर cell sap का दाब कम हो जाता है। इसके । कोशिकाभित्ति भी सिकुड़ जाती है। प्रोटोप्लाज्म कोशिकाभित्ति से अलग होकर सिकर तथा अन्त में यह अनिश्चित आकृति का हो जाता है। प्रोटोप्लाज्म के इस सिकुड़ने की क्रिया जीवद्रव्यकुंचन अथवा प्लाज्मोलिसिस (plasmolysis) कहते हैं।’
इस तरह की सिकुड़ी हुई कोशिकाओं में कोशिकाभित्ति तथा प्रोटोप्लाज्म के बीच की जगह में बाहर का अतिपरासारी विलयन (hypertonic solution) भर जाता है।
अगर इस तरह की सिकुड़ी हुई (plasmolysed) कोशिकाओं को पानी में रख दिया जाए, तब पानी प्रोटोप्लाज्म में जाना शुरू हो जाता है तथा कोशिका अन्त में सामान्य आकार की हो जाती है। इस कार्य-प्रणाली को डीप्लाज्मोलिसिस (deplasmolysis) कहते हैं।
अतिपरासारी, अधोपरासारी एवं समपरासारी विलयन
(Hypertonic, Hypotonic and Isotonic Solutions) –
1. अतिपरासारी विलयन (Hypertonic Solution)-ऐसा घोल जिसकी सान्द्रता (concentration) इतनी हो कि वह अर्द्धपारगम्य झिल्ली (semipermeable membrane) द्वारा कोशिका में प्रवेश न कर सके तथा कोशिका का घोल बाहर आ सके, अतिपरासारी विलयन (hypertonic solution) कहलाता है। इस क्रिया को बहिःपरासरण (exosmosis) कहते हैं। यदि एक कोशिका को शर्करा के गाढ़े घोल में रख दिया जाए तो कोशिका सिकुड़ने लगती है। यह इस कारण से होता है क्योंकि बाहर का घोल अतिपरासारा (hypertonic) है।
- अधोपरासारी विलयन (Hypotonic Solution)-ऐसा घोल जिसकी सान्द्रता (concentration) इतनी हो कि वह अर्द्धपारगम्य झिल्ली (semipermeable membrane) द्वारा कोशिका में प्रवेश कर जाए तथा कोशिका का घोल बाहर न आ सके, अधोपरासारी विलयन (hypotonic solution) कहलाता है। इस क्रिया को, अन्तःपरासरण (endosmosis) कहते हैं जैसे किशमिश पानी में डालने से फूल जाती है।
- समपरासारी विलयन (Isotonic Solution)-ऐसा घोल जिसकी सान्द्रता पादप कोशिका के अन्दर उपस्थित घोल की सान्द्रता के बराबर हो, समपरासारी विलयन (isotonic solution).कहलाता है।
प्रश्न 10 – रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर – रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन –
(Stomatal Transpiration)
रन्ध्र (Stomata)-रन्ध्र पत्ती की सतह पर पाए जाने वाले छोटे-छोटे छिद्र हैं। ये पत्ती के अतिरिक्त फल, कोमल तने आदि वायवीय भागों पर भी मिलते हैं। रन्ध्र (stoma) दो वृक्काकार द्वार कोशिकाओं (kidney shaped guard cells) से घिरा हुआ छिद्र है। यह अति सूक्ष्म संरचना है। छिद्र अण्डाकार (elliptical) होता है। द्वार कोशिका (guard cell) बाह्यत्वचा की अन्य कोशिकाओं से भिन्न होती है। इसकी बाह्य सतह पतली, परन्तु भीतरी सतह मोटी होती है। कभी-कभी द्वार कोशिकाओं . के बाहर सहायक कोशिकाएँ (subsidiary cells) भी मिलती हैं। जब द्वार कोशिकाएँ स्फीत (turgid) होती हैं तो छिद्र खुला (open) होता है तथा उनकी श्लथ (flaccid) अवस्था में ये बन्द (close) होते हैं (चित्र देखिए)। द्वार कोशिकाओं में केन्द्रक (nucleus) तथा क्लोरोप्लास्ट (chloroplast) पाए जाते हैं। द्वार कोशिकाओं में मिलने वाला क्लोरोप्लास्ट मीसोफिल के क्लोरोप्लास्ट से भिन्न होता है। इसमें दोनों PS I तथा. PS II तन्त्र मिलते हैं। अत: फोटोफॉस्फोरिलेशन
(photo- phosphorylation) की क्रिया प्रकाश में पूर्ण होती है, परन्तु रिबुलोस ह कार्बोक्सिलेज एम्जाइम (ribulose diphosphate carboxylase enzyme) के से भोजन नहीं बनता है। आस-पास की कोशिकाओं से मिलने वाली शर्करा मण्ड में रात के समय मण्ड की मात्रा अधिक होने से स्टोमेटा बन्द हो जाते हैं तथा दिन में शर्करा में बदलने के कारण ये खुल जाते हैं।
रन्ध्रों के खलने तथा बन्द होने की प्रक्रिया
(Mechanism of Stomatal Opening and Closing),
द्वार कोशिकाओं की स्फीत (turgid) तथा श्लथ (flaccid) अवस्था पर भी का खुलना तथा बन्द होना निर्भर करता है। द्वार कोशिकाओं की परासरण या (osmotic concentration) अधिक होने पर इनमें पानी प्रवेश करता है और कोशिका में स्फीति दाब (turgor pressure) बढ़ता है। बाहर की भित्ति पर दबाव पड़ने से रन्ध खत जाते हैं। इसके विपरीत जब द्वार कोशिकाओं से पानी निकल जाता है, तब कोशिकाएँ श्लश (flaccid) हो जाती हैं तथा रन्ध्र बन्द हो जाते हैं।
रन्ध के बन्द होने तथा खुलने पर प्रकाश तथा अन्धकार का बहुत प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त पानी की उपस्थिति, कोशिका रस की सान्द्रता, CO, सान्द्रता आदि भी इस क्रिया को प्रभावित करते हैं।
वान मोल (Von Mohl) ने सन् 1856 में देखा कि यदि बाह्यत्वचा (epidermal peel) को पानी में रखा जाए तो रन्ध्र खुल जाते हैं, परन्तु यदि इसे शर्करा के घोल (sugar solution) में रखा जाए तो ये बन्द हो जाते हैं। हीथ (Heath) ने सन् 1938 में बताया कि यदि एक तरफ की द्वार कोशिका में बारीक छिद्र कर दिया जाए तो रन्ध्र एक तरफ से बन्द हो जाता है। अत: यह सिद्ध होता है कि रन्ध्र केवल स्फीत दशा में ही खुलते हैं।
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