Bsc 2nd Year Botany IV Long Question Answer Notes
खण्ड ‘ब‘, ‘स‘, ‘द‘, तथा ‘इ‘ : विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
खण्ड ‘ब’
प्रश्न 1 – बेन्थम व हुकर द्धारा दिए गए आवृतबीजियों के वर्गीकरण की केवल रुपरेखा बनाइए।
प्रश्न 2 – जातिवृत्तीय पद्धति के हचिन्सन द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरण की रूप हुए इस पद्धति के सिद्धान्तों का भी उल्लेख कीजिए।
अथवा हचिन्सन द्वारा दिए गए आवृतबीजियों के वर्गीकरण की रूपरेखा वर्णित का 24 फाइलोजेनी के सिद्धान्त भी बताइए।
उत्तर – हचिन्सन का वर्गीकरण
(Hutchinson’s Classification)
जॉन हचिन्सन (John Hutchinson) ने सन् 1959 में यह वर्गीकरण फाइलोजेनी के 24 सिद्धान्तों के आधार पर अपनी पुस्तक ‘फेमिलीज ऑफ फ्लावरिंग प्लान्ट्स‘ के 2 भागों में दिया। हचिन्सन अंग्रेज वनस्पतिविज्ञ थे। उन्होने फाइलम एजिन्योस्पर्मी को दो सब-फाइलम डाइकॉटीलीडन्स तथा मोनोकॉटीलीडन्स में विभाजित किया।
डाइकॉटीलीडन्स को उन्होंने लिग्नोसी व हर्बेसी में प्रकृति (habit) के आधार पर . विभाजित किया तथा लिग्नोसी में काष्ठीय तथा हर्बेसी में शाकीय पौधों को स्थान दिया। उन्होंने मोनोकॉटीलीडन्स को तीन भागों केलिसीफ्लोरी, कोरोलीफ्लोरी तथा ग्लूमीफ्लोरी में बाँटा। केलिसीफ्लोरी में बाह्यदलपुंज तथा दलपुंज दोनों मिलते हैं। कोरोलीफ्लोरी में परिदलपुंज मिलता है तथा ग्लूमीफ्लोरी में परिदल समानीत होकर लोडीक्यूल्स बनाते हैं।
हचिन्सन द्वारा दिया गया वर्गीकरण
विशेषताएँ (Merits)
हचिन्सन द्वारा दिए गए वर्गीकरण की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं
(1) यह एक जातिवृत्तीय पद्धति का वर्गीकरण है।
(2) एकबीजपत्री द्विबीजपत्री से उन्नत होते हैं।
(3) आवृतबीजी की उत्पत्ति प्रोएन्जियोस्पर्म के बेनीटाइटेलियन पूर्वजों से हुई है।
(4) मोनोकॉट की डाइकॉट के हइँसी से एकशाखी उत्पत्ति हुई है।
कमियाँ (Demerits)
इस वर्गीकरण में निम्नलिखित कमियाँ भी है-
(1) कछ कलों को केवल प्रकृति के आधार पर अलग किया गया जैसे रेननकलेसी को मेग्नोलिएसी से, एपिएसी को कोर्नेसी से, लेमिएसी को वर्बीनेसी से (जो पुष्पी लक्षणों में अधिक समान हैं)।
(2) पुष्पी लक्षणों से अधिक महत्त्व प्रकृति पर दिया गया है।
हचिन्सन द्वारा दिए गए जातिवृत्तीय पद्धति के 24 सिद्धान्त
(24 Principles of Phylogenetic System given by Hutchinson)
सामान्य (General)
(1) विकास बढ़ने अथवा घटने से होता है।
(2) पौधों के सभी अंगों में विकास एक ही समय पर हो, ऐसा आवश्यक नहीं है।
(3) विकास की क्रिया निरन्तर होती है।
आवास व प्रकृति (Habit and Habitat)
(4) वृक्ष तथा क्षुप शाकों से आद्य हैं।
(5) एक कुल अथवा वंश में वृक्ष व क्षुप आरोही से आद्य हैं।
(6) बहुवर्षी पादप द्विवर्षी से आद्य हैं तथा एकवर्षी पादप उन्नत हैं।
(7) स्थलीय पादपों से जलीय पादपों का विकास हुआ है।
(8) द्विबीजपत्री (कन्ज्वाइन्ट, कोलेटरल, खुले संवहन पूल, एक वलय में व्यवस्थित),
एकबीजपत्री (कन्ज्वाइन्ट, कोलेटरल, बन्द, बिखरे संवहन पूल) से आद्य (primitive) होते हैं।
कायिक लक्षण (Physiological Characters)
(9) एकान्तर क्रम, सम्मुख तथा चक्रिक क्रम से आद्य हैं।
(10) सरल पत्तियाँ, संयुक्त पत्ती से आद्य हैं।
पुष्पी लक्षण (Floral Characters)
(11) द्विलिंगी पुष्प एकलिंगी पुष्प से आद्य हैं। __
(12) हाइपेन्थोडियम सबसे उन्नत हैं।
(13) सर्पिल चक्रिक पुष्प चक्रिक पुष्प से आद्य होता है।
(14) बहुदली स्थिति, कम दल वाली स्थिति से आद्य है। ”
(15) पृथक्दली स्थिति संयुक्तदली से तथा पृथक् बाह्यदली से संयुक्त बाह्यदली आद्य है।
(16) दलीय पुष्पों से अदलीय (apetalous) पुष्पों का विकास हुआ है।
(17) त्रिज्यासममित पुष्पों से एकव्याससममित पुष्प उन्नत हैं।
(18) जायांगाधर पुष्प जायांगोपरिक अथवा परिजायांगी पुष्पों से आद्य हैं।
(19) मुक्ताण्डप स्थिति युक्ताण्डप से आद्य है।
(20) बहुअण्डपी स्थिति से एक अण्डपी स्थिति उन्नत है।
(21) बहुपुंकेसरी स्थिति युक्त पुंकेसरी (संघी अथवा युक्तकोशी) स्थिति से आद्य है।
(22) कॉलीफ्लोरी, रेमीफ्लोरी से आद्य है।
(23) भ्रूणपोषी बीज आद्य है।
(24) सरल फल, पुंज तथा संग्रथित फलों से आद्य हैं। साइकोनस सबसे उन्नत फल है।
प्रश्न, 3 – पादप वर्गिकी के इतिहास की विभिन्न प्रावस्थाओं ( फेज) का वर्णन कीजिए।
उत्तर – पादप वामका कातिहास
(History of Plant Claspification) –
वर्गिकी का इतिहास पौधों को आवश्यकता के अनुसार वर्गीकृत करने से आरम्भ होता है। जब पौधों को आर्थिक महत्त्व के अनुसार बाँटा गया, तब शाकीय वर्णिकी (herbal taxonomy) का जन्म हुआ। एक्सप्लोरेटरी फेज (Exploratory.Phase)
(1) थियोफ्रेस्टस (Theophrastus) ने 370-285 BC में ‘इन्क्वाइरी इनटू । प्लान्ट्स‘(Enquiry into plants) प्रकाशित की। उन्होंने इस कार्य में क्रेटीगस (Crataegus), डॉकस (Dauces), ऐस्पैरागस (Asparagus) तथा नारसिसस (Narcissus) आदि का उल्लेख किया।
(2) प्लीनी (Pliny) ने 23-79 AD में ‘नेचुरल हिस्ट्री‘ (Natural history) के लगभग 37 भागों का प्रकाशन किया।
(3) 1000 साल के पश्चात् 16वीं शताब्दी में फिर एक बार वर्गिकी पर कार्य किया गया।
(4) पहला हरबेरियम सन् 1553 में पाडुआ (Padua) इटली में बनाया गया।
(5) 17वीं शताब्दी के मध्य संसार के विभिन्न भागों में हरबेरिया स्थापित किए गए।
(6). लीनियस के समूह के महत्त्वपूर्ण अन्य टेक्सोनोमिस्ट थे-सिसलपिनो (1519-1603), बोहिन (1560-1624), जॉन रे (1627-1705), डी टर्नफोर्ट (1656-1708) आदि। उन्होंने उस समय की जानकारी पर आधारित कन्सेप्ट ऑफ स्पीशीज, सिनोनमी, वर्गीकरण, नामकरण आदि दिए। उनके अनुसार जाति की परिभाषा निम्नलिखित थी-
“जीवों का एक प्राकृतिक समूह जिनके सभी सदस्यों में सभी सामान्य लक्षण मिलते हैं।”
(7) लीनियस (1753) ने स्पीशीज प्लान्टेरम में द्विनाम नामकरण (Binomial
nomenclature) प्रकाशित किया जो पादप वर्गिकी में मील का पत्थर था।
(8) लीनियस द्वारा दिया गया वर्गीकरण लैंगिक पद्धति का कृत्रिम वर्गीकरण था जो
कुछ लक्षणों पर आधारित था।
(9) एक्सप्लोरेटरी फेज में वर्गिकी का अर्थ केवल जातियों का नाम देना मात्र था।
कन्सोलीडेशन फेज (Consolidation Phase)
इस समय में बहुत-से कार्य पादप वर्गीकरण के सम्बन्ध में प्रकाशित हुए.
(1) डी कन्डोले (1778-1841) ने लीनियस के वर्गीकरण का रूपान्तरण किया। __
(2) बेन्थम तथा हुकर ने (1864…) जेनेरा प्लान्टेरम का प्रकाशन किया जिसमें उन्होंने
पौधों का वर्गीकरण प्राकृतिक पद्धति के आधार पर किया। यह वर्गीकरण आज भी प्रयोगात्मक रूप से बहुत अधिक प्रभावी है।
(3) चार्ल्स डार्विन (1859) ने ‘ऑन द ऑरिजन ऑफ स्पीशीज‘ का प्रकाशन किया , जिसमें प्राकृतिक चयन तथा जातियों के विकास का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। ”
(4) डोब्जेन्स्की (1937) ने “बायलोजिकल स्पीशीज कन्सेप्ट“ प्रकाशित किया।
– इसमें उन्होंने अन्तःप्रजनन करने वाले समूह को दूसरी समष्टि से पृथक् किया।
(5) टेक्सोनोमिस्ट ने यह भी पाया कि जातियाँ डायनेमिक होती हैं तथा
(a) सभी समष्टियाँ अलग-अलग होती हैं। किन्हीं दो समष्टियों में सभी समानताएँ
– नहीं मिल सकती हैं।
(b) कुछ परिवर्तनों को समाहित अथवा अनुकूलित (adapt) किया जा सकता है,
जो जीवन के लिए आवश्यक हों।
(c) प्राकृतिक परिस्थितियाँ कुछ जीवों को समाप्त कर देती हैं, परन्तु कुछ जीव .. उसमें जी पाते हैं।
(d) एक समष्टि में कुछ जीवों द्वारा दिखाए गए परिवर्तन आनुवंशिक होते हैं।
(e) जीवों का वातावरण स्थैतिक नहीं होता है।
(6) जातिवृत्तीय वर्गीकरण विकास पर आधारित है। इसका आरम्भ एन्डाइकलर
(1804-1849) तथा आइकलर (1837-1887) के द्वारा हुआ।
(7) एन्गलर व प्रान्टल (1887-1915) ने अर्द्धजातिवृत्तीय पद्धति का वर्गीकरण ‘डाइ
‘नेचर लाइकेन फेलेन्जन फेमीलीज‘ में दिया।
(8), प्रथम पूर्ण जातिवृत्तीय पद्धति का वर्गीकरण बेसे ने (1845-1915) दिया जिसे
हेलियर (1860-1938) ने सुधारा।
(9) जॉन हचिन्सन (1995) ने विकास के 24 सिद्धान्त दिए तथा उन पर आधारित वर्गीकरण “फेमिलीज ऑफ फ्लोवरिंग प्लान्दस“ में सन् 1959 में दिया।
(10) इस वर्गीकरण को फिर कछ वैज्ञानिकों ने बदला जैसे तख्तजान ने सन् 1969 में
‘फ्लोवरिंग प्लान्ट्स-ओरिजिन एन्ड डिस्पर्सल‘ में, क्रोन्क्विस्ट ने सन् 1968 में ‘इवोल्यूशन एण्ड क्लासीफिकेशन ऑफ फ्लोवरिंग प्लान्ट्स‘ में तथा सन् 1981 में “एन इन्टीग्रेटेड सिस्टम ऑफ क्लासीफिकेशन ऑफ फ्लोवरिंग प्लान्ट्स‘ में, स्टेबिन्स ने सन् 1974 में ‘फ्लोवरिंग प्लान्ट्स : इवोल्यूशन अबाव द स्पीशीज लेवेल‘ में, रॉबर्ट थोर्न ने सन् 1976 में ‘ए फाइलोजेनेटिक
क्लासीफिकेशन ऑफ एन्जियोस्पर्मी‘ में आदि।
(11) वर्गीकरण आकारिकी के अतिरिक्त वितरण, पारिस्थितिकी, शारीरिकी, परमाण
विज्ञान, कोशिका विज्ञान तथा जैव रसायन पर आधारित है।
बायोसिस्टमेटिक फेज (Biosystematic Phase) –
(1) पिछले 50 वर्षों से वर्गिकी की जानकारी में गुणात्मक सुधार हुआ है; यह जैव
वर्गिकी (Biosystematic) के कारण सम्भव हो पाया है।
(2) न्यू सिस्टमेंटिक्स‘ का लक्ष्य ‘होलोटेक्सोनोमी“ को प्राप्त करना है।
(3) हक्सले ने सन् 1940 में शब्द ‘न्यू सिस्टमेटिक्स‘ दिया।
(4) केम्प तथा गिली ने सन 1943 में न्यसिस्टमेटिक्स को बायोसिस्टमेटिक्स कहा।
(5) साइटोटेक्सोनोमी के द्वारा गुणसूत्र संख्या, माप व आकार को भी वर्गीकरण में
महत्त्व दिया गया।
(6) कीमोटेक्सोनोमी का विकास द्विविम पेपर क्रोमैटोग्राफी (Two dimensional
paper chromatography) तक तकनीक के विकास से हुआ।
(7) नई तकनीकों में ऐमीनो ऐसिड सीक्वेन्सिग, DNA व RNA न्यूक्लिओटाइड क्रम
ज्ञात करना आदि आते हैं।
एन्साइक्लोपीडिक अथवा होलोटेक्सोनोमिक फेज
(Encyclopaedic or Holotaxonomic Phase)
(1) जानकारियों को एकत्र कर, विश्लेषण किया जाता है तथा इससे फाइलोजेना का
जानने के लिए सार निकाला जाता है।
(2) विश्लेषण तथा संश्लेषण के डाटा को एकत्र करना, यह वर्गिकी की स्वतन्त्र शाखा है जिसे न्यूमेरिकल टेक्सोनोमी कहते हैं।
(3) न्यूमेरिकल टेक्सोनोमी अथवा क्वान्टिटेटिव टेक्सोनोमी जीवों के समूहों के. मध्य समानताओं की गणनाओं पर आधारित है तथा इसके अनुसार उसे उच्च स्थिति प्रदान की जाती है।
(4) प्रथम दो फेज अर्थात् एक्सप्लोरेटरी तथा कन्सोलीडेशन फेज को एल्फा टेक्सोनोमी के अन्तर्गत तथा अन्तिम दो फेज अर्थात बायोसिस्टमेटिक फेज व एन्साइक्लोपीडिक अथवा होलोटेक्सोनोमिक फेज को ओमेगा टेक्सोनोमी के अन्तर्गत रखा गया है।
प्रश्न 4 – बेन्थम, हुकर तथा हचिन्सन के वर्गीकरण की तुलना कीजिए।
उत्तर – बेन्थम, हुकर तथा हचिन्सन के द्वारा दिए गए
वर्गीकरण की तुलना
(Differences between Classification of Bentham, Hooker and Hutchinson)
क्र० सं० | बेन्थम व हुकर | हचिन्सन |
1. | इस पद्धति को जेनेरा प्लान्टेरम में दिया। | यह ” वर्गीकरण फेमिलीज ऑफ फ्लावरिंग प्लान्ट्स में दिया। |
2. | इसका प्रकाशन सन् 1862 में हुआ। | इसका प्रकाशन सन् 1959 में हुआ। |
3. | यह प्राकृतिक पद्धति का वर्गीकरण है। | यह शुद्ध जातिवृत्तीय पद्धति का वर्गीकरण हैं। |
4. | यह वर्गीकरण डी कन्डोले (1819) के वर्गीकरण पर आधारित है तथा जेसू की पद्धति का परिवर्तन है। | यह वर्गीकरण जातिवृत्तीय पद्धति के 24 सिद्धान्तों पर आधारित है। डाइकॉट व मोनोकॉट का विभाजन प्रकृति के आधार पर किया गया है। |
5. | पुष्पी पादपो को डाइकॉटीलीड्न्स, जिम्नोस्पर्मी तथा मोनोकॉटीलीडन्स में बाँटा गया है। | आवृतबीजी को डाइकाँट व मोनोकाँट में बाँटो गया है। |
6. | पुष्पी पादपों को 202 कुलों में बाँटा गया है। | पुष्पी पादपों को 411 कुलों में बाँटा गया है। |
7. | जिम्नोस्पर्म को डाइकॉट व मोनोकॉट के मध्य रखा गया है। | एन्गलर व प्रान्टल के समान। |
8. | डाइकॉट को मोनोकॉट से पुर्व रखा गया है। | इसमें भी डाइकॉट को मोनोकॉट से पूर्व रखा गया है। |
9. | डाइकॉट को तीन वर्गों पॉलीपेटेली, गेमोपेटेली तथा मोनोक्लेमाइडी में बाँटा। | डाइकॉट को लिग्नोसी व हर्बेसी में बांटा। |
10. | इन वर्गो को आगे त्रेणी में बाँटा गया। | सीधे गणों में बाँटा गया। |
11. | मोनोकॉट को 7 वर्गो में बाँटा गया। | मोनोकॉट को केलिसीफ्लोरी, कोरोलीफ्लोरी तथा ग्लूमीफ्लोरी में बाँटा गया है। |
12. | पाँलीपेटेली को 3 त्रेणी थैलेमीफ्लोरी, डिस्कीफ्लोरी तथा केलिसीफ्लोरी में बाँटा तथा कुल 15 गुण रेनेल्स से अम्बलेल्स तक बनाए गए है। | लिग्नोसी को 54 गणों में मेग्नोलिएल्स से वर्बीनेल्स तक बाँटा गया है। |
13. | गेमोपेटेली को तीन त्रेणी इनफेरी, हेटरोमेरी तथा बाइकार्पलेटी में बाँटा, इसमें रुबिएल्स से लेमिएल्स तक 10 गण हैं। | हर्बेसी को 28 गणों में रेनेल्स से लेमिएल्स तक बाँटा गया है। |
14. | कुकुरबिटेसी को (संयुक्तदली पुष्प) को पाँलीपेटेली के पेसीफ्लोरेल्स में स्थान मिला है। | कुकुरबिटेसी को लिग्नोसी के कुकुरबिटेल्स में रखा गया है। |
15. | सर्वाधिक उन्नत एस्टरेसी को इनफेरी के एस्टरेल्स में गेमोपेटेली में स्थान मिलता है। | एस्टरेसी को हर्बेसी के एस्टरेल्स में रखा गया। |
16. | आर्किडेसी को मोनोकाँ के प्रारम्भ में वर्ग माइक्रोस्पर्मी में रखा। | आर्किडेसी को कोरोलीफ्लोरी के अन्तिम कुल के रूप में जगह दी है। |
17. | ग्रैमिनी को सर्वाधिक उन्नत मानते हुए मोनोकॉट के अन्त में रखा गया है। | ग्रैमिनी को ग्लूमीफ्लोरी के अन्त में रखा गया है। |
प्रश्न 5 – वानस्पतिक नामकरण एवं द्विनाम पद्धति का वर्णन कीजिए।
उत्तर – वानस्पतिक नामकरण
(Plant Nomenclature) –
प्रत्येक पौधे को भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है। यह उस स्थान विशेष की भाषा पर निर्भर करता है। प्रत्येक राष्ट्र, प्रान्त तथा सूबे की भाषा विशेष होती है। इसलिए यह कह पाना कि किस नाम से किस पौधे की बात हो रही है कठिन होता है। जिस प्रकार एक व्यक्ति का एक नाम होता है और संसार के किसी भी कोने में वह उसी नाम से जाना जाता है उसी प्रकार पेड़-पौधों का भी एक ऐसा नाम होना चाहिए जो कि सर्वमान्य हो तथा संसार में उसी नाम से जाना जाए।
इस काम के लिए एक वैज्ञानिक नाम आवश्यक है। यह नाम लैटिन (latin) या ग्रीक (greek) भाषा में दिया जाता है। पौधों के इस नाम को वानस्पतिक नाम (botanical name) कहा जाता है। प्रत्येक पौधे का एक ऐसा नाम भी होता है जिससे वह उस स्थान विशेष में जाना जाता है। इसे सामान्य या वर्नाकुलर (vernacular) नाम भी कहते हैं। यह प्रत्येक भाषा में अलग होता है।
बहुत वर्षों तक पौधों को एक ही वानस्पतिक नाम से जाना जाता रहा है जैसे—गुलाब (Rose = Rosa), आलूचा (Plum=Pyrus), शहतूत (Mulberry = Morus) आदि। । बाद में इनकी जातियों के उपनाम भी इनमें जोड़ें जाने लगे। जातियों में पौधे के विभिन्न लक्षण जोड़ दिए जाते थे। तब नाम इतना लम्बा हो जाता कि याद रखना मुश्किल होता था जैसे यदि घास जैसी पत्तियाँ हों तो फोलीस ग्रैमिनियस (folies gramineus), फूल यदि छत्रक कोरिम्ब में हों तो अम्बलेटिस कोरिम्बस (umbellatis corymbis) आदि।,
द्विनाम पद्धति (Binomial System of Nomenclature)
सर्वप्रथम स्वीडन के प्रकृति वैज्ञानिक (naturalist) कैरोलस लीनियस (Carolus Linnaeus) ने पौधों को दो नाम देने की शुरुआत सन् 1753 में अपनी स्पीसीज प्लान्टेरम (Species plantarum) से की थी। उन्होंने पौधों के नामकरण में द्विनाम पद्धति के अनुसार बताया कि प्रत्येक नाम के दो हिस्से (epithet) होते हैं
(1) वंशीय (generic) नाम तथा (2) जातीय (specific) नाम।
वंशीय (generic) नाम सदा एक संज्ञा होती है। इसका पहला अक्षर अंग्रेजी के बड़े अक्षर (capital letter) से शुरू होता है। यह नाम किसी-न-किसी विशेष चीज को इंगित करता है जैसे रंग, नाम अथवा विशेषण। उदाहरण के लिए सरासीनिया (Sarracenia) एक वैज्ञानिक माइकिल सरासीन (Michael Sarracin) के नाम पर रखा गया है। वंशीय नाम उन सब पौधों के लिए प्रयोग होता है, जो एक-दूसरे से समरूपता (similarity) तथा सम्बन्ध दर्शाते हैं।
जातीय (specific) नाम सदा विशेषण होते हैं तथा किसी विशेष चीज को दर्शाते हैं जैसे सफेद फूलों के लिए एल्बा (alba), खाने की चीज के लिए सेटाइवा (sataiva), काली वस्तु के लिए नाइग्रम (nigrum) इत्यादि। यह आवश्यक नहीं कि हमेशा ये शब्द ही प्रयोग में लाये जाएँ। जातीय नाम किसी जगह के लिए भी हो सकता है जैसे अमेरिकाना (americana), इण्डिका (indica), बेन्गालेन्सिस (bengalensis) आदि। यह पौधे का कोई विशेष लक्षण भी हो सकता है जैसे पत्ती का आकार सेजीटीफोलिया (sagittifolia); किसी वैज्ञानिक का नाम जैसे प्रो० बीरबल साहनी के नाम पर साहनी (sahnii), प्रो० डेविस के नाम पर डेविसी (davisii) आदि। यह संज्ञा भी हो सकता है जैसे पायरस मेलस (Pyrus malus) इसमें मेलस जातीय नाम है जिसका रोमन भाषा में अर्थ है-सेब (apple)।
प्रश्न 6 – आवृतबीजियों के वर्गीकरण के प्राकृतिक पद्धति के सिद्धान्त को बताते हुए इस पर आधारित बहु-उपयोगी आपके द्वारा पढ़ा हुआ एक वर्गीकरण विस्तार से लिखिए तथा इसकी विशेषताएँ व कमियों का भी वर्णन कीजिए।
उत्तर – प्राकृतिक पद्धति (Natural System).
इसका आरम्भ बर्नार्ड डी जसू (Bernard de Jussieu,1699-1777) से हुआ। ये लीनियस के साथी थे। ये फ्रांस के निवासी थे तथा रॉयल बोटेनिकल फेसर थे। उन्होंने लीनियस के द्वारा दिए गए वर्गीकरण को थोड़ा-सा रूपान्तरित कर पुष्पी पादपों को. अण्डाशय की स्थिति, दल की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति, संयुक्त अथवा पृथकदली स्थिति आदि के आधार पर एकबीजपत्री तथा द्विबीजपत्री पादपों में बाँटा। उनके भतीजे एन्टोनी लारेन्ट डी जस (A.L.de Jussieu) ने सन् 1778 में वर्गीकरण प्रस्तुत किया जो बीजपत्रों की संख्या तथा स्थिति, दलों की संख्या व जुड़ने आदि पर आधारित था। उन्होंने ‘जेनेरा प्लान्टेरम‘ पस्तक सन् 1779 में लिखी जिसमें पादपों को 15 वर्गों, 100 गणों अथवा कुलों में बाँटा गया। उन्होंने क्रिप्टोगेम्स को एकॉटीलीडन्स अथवा अबीजपत्री में रखा।
ऑगस्टीन पी०डी० कन्डोले (Augustin P. de Candolle) ने अपना पानी वर्गीकरण सन् 1819 में ‘प्रोडोमस सिस्टेमेटिक्स नेचुरेलिस रेग्नी वेजीटेबिलिया में प्रस्तुत किया। उनके पुत्र एल्फान्से डी कन्डोले ने इस कार्य को आगे बढ़ाते हए 10 प्रकाशित किए। अन्तिम भाग (volume) सन् 1873 में प्रकाशित हुआ।
बेन्थम व हुकर द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरण
(Classification by Bentham and Hooker)
सर्वाधिक महत्त्व का प्राकृतिक पद्धति का वर्गीकरण जॉर्ज बेन्थम । Bentham) तथा जोसेफ डाल्टन हुकर (Joseph Dalton Hooker) ने अपनी पुस्तक जेनेरा प्लान्टेरम (Genera plantarum) के तीन भागों (three volumes) २. सन् 1862-1883 में दिया। इस वर्गीकरण में पौधों को उनके प्राकृतिक रूप में ही लक्षणों के आधार पर वर्गीकृत किया गया। इसमें पौधों के रहन-सहन से लेकर उसकी संरचना. जर पड़ी तथा फूल को महत्त्व दिया गया है। जॉर्ज बेन्थम तथा सर जे० डी० हुकर द्वारा दिए गए वर्गीकरण में आवृतबीजियों को 202 गणों में बाँटा गया है। यह वर्गीकरण प्रयोगात्मक रूप से बहुत उपयोगी है तथा बहुत-से हरबेरिया (Herbaria) में अपनाया जाता है। यह वर्गीकरण
निम्नवत् है –
बीजयुक्त पौधों (Seed Plants or Spermatophyta) को सर्वप्रथम तीन भागों में बाँटा है-
- डाइकॉटीलीडन्स, II. जिम्नोस्पर्मी, III. मोनोकॉटीलीडन्स।
- डाइकॉटीलीडन्स (Dicotyledons):
इसके अन्तर्गत आने वाले पौधों में द्विबीजपत्री बीज होते हैं। सामान्यत: पत्तियों में जालिकावत् शिराविन्यास ‘ (reticulate venation) तथा फूल पंचभागी (pentamerous) होते हैं। इसको तीन वर्गों (classes) में बाँटा गया है।
- पॉलीपेटेली (Polypetalae)-इसमें फूल पृथक्दली (polypetalous) होते हैं।
- गैमोपेटेली (Gamopetalae)- इसमें फूल संयुक्तदली (gamopetalous) होते हैं।
- मोनोक्लेमाइडी (Monochlamydeae)-इसके फूलों में परिदलपुंज (perianth) मिलता है अथवा फूल में दलपुंज अनुपस्थित (apetalous) होता है। –
- वर्ग पॉलीपेटेली—इस वर्ग को 3 सीरीज में बाँटा गया है
(i) थैलेमीफ्लोरी (Thalamiflorae)-पष्प ऊर्ध्व अण्डाशयी (superior ovary होते हैं। सीरीज थैलेमीफ्लोरी में 6 गण हैं
(a) रेनेल्स, (b) पेराइटेल्स, (c) पॉलीगेलिनी. (d) कैरियोफिल्लिनी, (e) गट्टीफरेल्स, (f) माल्वेल्स।
(ii) डिस्कीफ्लोरी (Disciflorae)-पुष्प में अण्डाशय के नीचे मकरन्द पट्टिका (nectar disc) पायी जाती है तथा ये ऊध्व्र अण्डाशयी (superior ovary) होते हैं। सीरीज में 4 गण हैं।
(a) जिरेनिएल्स, (b) ओलाकेल्स, (c) सेपिन्डेल्स, (d) सिलस्ट्रेल्स।
(iii) केलिसीफ्लोरी (Calyciflorae)-पुष्प अधिकतर अधो-अण्डाशयी (inferior ovary) होते हैं। सीरीज केलिसीफ्लोरी में 5 गण हैं
(a) रोसेल्स, (b) मिरटेल्स, (c) पेसीफ्लोरेल्स, (d) फिकोइडेल्स; (e) अम्बलेल्स।
- वर्ग गैमोपेटेली-इस वर्ग को भी तीन सीरीज में बाँटा गया है-
(i) इनफेरी (Inferae)-पुष्प अधोअण्डाशयी (inferior ovary) होते हैं। इस सीरीज में 3 गण हैं –
(a) रूबिएल्स, (b) एस्टरेल्स, (c) कम्पेनेल्स।
(ii) हेटरोमेरी (Heteromerae) इसको भी 3 गणों में बाँटा गया है।
(a) एरीकेल्स, (b) प्राइम्यूलेल्स, (c) इबेनेल्स।
(iii) बाइकार्पलेटी (Bicarpellatae)-पुष्प द्विअण्डपी, युक्ताण्डपी तथा ऊर्ध्व अण्डाशयो (bicarpellary, syncarpous, superior ovary) होता है। इस सीरीज में
4 गण हैं
(a) जेन्शिएनेल्स, (b) पॉलीमोनिएल्स, (c) पोंनेल्स, (d) लेमिएल्स।
- वर्ग मोनोक्लेमाइडी—इस वर्ग को आठ सीरीज में बाँटा गया है। इन सीरीज में कुलों को रखा गया है। बीच में गण नहीं हैं। सीरीज निम्नलिखित है –
(i) कर्वएम्ब्री (ii) मल्टीओव्यूलेटी टेरेस्ट्रिस (iii) मल्टीओव्यूलेटी एक्वेटिसी – (iv) माइक्रोएम्ब्री (v) डेपनेल्स (vi) एक्लेमाइडोस्पोरी – (vii) यूनीसेक्सुएल्स (viii) आरडिनिस अनामली।
- जिम्नोस्पर्मी (Gymnospermae) ____ इसके अन्तर्गत आने वाले पौधों में बीज तो बनते हैं, परन्तु ये नग्न होते हैं। पौधे बहुवर्षीय एवं काष्ठीय होते हैं। ये जड़, तना तथा पत्तियों में विभाज्य होते हैं। पौधे प्रकृति में शुष्कोद्भिद हैं। पत्ती के दो प्रकार मिलते हैं-foliage तथा scaly leaf प्रजननांगों को कोन (Cone) कहते हैं जो प्रायः एकलिंगी होते हैं। इनमें मादा कोन नर कोन से बड़े तथा दीर्घजीवी होते हैं। बहुभ्रूणीयता मिलती है। इनमें अण्डाशय अनुपस्थित होने के कारण सत्य फल नहीं बनते हैं।
इस विभाग को बेन्थम व हुकर ने सीधे कुलों में विभाजित किया है-
(i) साइकेडेसी (Cycadaceae), (ii) नीटेसी (Gnetaceae), (iii) कोनीफेरी (Conifereae)|
III. मोनोकॉटीलीडन्स (Monocotyledons)
इसके अन्तर्गत आने वाले पौधों के एकबीजपत्री बीज होते हैं। इनकी पत्तियों में समान्तर शिराविन्यास (parallel venation) पाया जाता है तथा पुष्प त्रिभागी (trimerous) होते हैं।
इस विभाग को सात वर्गों में विभाजित किया गया है। वर्गों को सीरीज तथा गणों में न बाँटकर सीधे कलों में विभाजित कर दिया गया है। वर्ग अग्रलिखित हैं।
(1) माइक्रोस्पर्मी, (2) एपीगाइनी, (3) कोरोनरी, (4) केलीसिनी ( (5) न्यूडीफ्लोरी, (6) एपोकापी, (7) ग्लूमेसी।
जोसेफ डाल्टन हुकर वनस्पतिविज्ञ थे तथा ये सन् 1805 में क्यू बोटेनिकल गाह (Kew Botanical garden) के प्रथम डायरेक्टर (director) बने। सर जे० डी० करने ‘फ्लोरा ऑफ ब्रिटिश इण्डिया‘ (Flora of British India) तथा ‘इन्डेक्स कीविन्सिस’ (Index kewensis) के 7 भाग लिखे।
बेन्थम तथा हुकर ने केवल बीजी पादपों (Seed plants) अथवा आवृतबीजी (Ancial sperm) का ही वर्गीकरण दिया। इन्होंने सभी पौधों को 202 कुलों में तथा 97,205 जातियों में बाँटा।
बेन्थम तथा हुकर के वर्गीकरण की विशेषताएँ ।
(Merits of Bentham and Hooker’s Classification)
बेन्थम तथा हुकर के वर्गीकरण की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं।
(1) यह प्रायोगिक वर्गीकरण है।
(2) रेनेल्स को आद्य (primitive) द्विबीजपत्री माना है।
(3) गैमोपेटेली की स्थिति पॉलीपेटेली के पश्चात् आना विकास के सिद्धान्त के अनुसार भी सही है।
(4) पॉलीपेटेली के अन्त में पेसीफ्लोरेसी तथा एपिएसी की उपस्थिति सही है।
(5) पुष्पी पादपों को 202 कुलों में बाँटा गया है। इसका पहला कुल रेननकुलेसी तथा
– अन्तिम कुल ग्रैमिनी है।
(6) एकबीजपत्री पादपों का विभाजन अण्डप की परिस्थिति तथा परिदल के लक्षणों पर – आधापरत हैं।
(7) गैमोपेटेली. के गण त्रिज्यासममितः पुष्पों (रूबिएल्स) से आरम्भ होकर एकव्याससममित पुष्पी गण (परसोनेल्स व लेमिएल्स) में समाप्त होते हैं।
वर्गीकरण की कमियाँ (Demerits of classification)
इस वर्गीकरण की निम्नलिखित कमियाँ भी हैं-
(1) पॉलीपेटेली का: आरम्भ जायांगाधर (hypogynous) पादपों से केलिसीफ्लारा श्रेणी में समाप्त होता है, जबकि गेमोपेटेली का आरम्भ इनफेरी श्रेणी से होता है जिसमें जायांगोपरिक पादप आते हैं तथा इसका अन्त बाइकार्पलेटी श्रेणी में होता है जिसमें पादप जायांगाधर होते हैं।
(2) अनावृतबीजी (gymnosperm) को द्विबीजपत्री पादपों के मध्य रखा गया।
(3) मोनोक्लेमाइडी (Monochlamydeae) एक अप्राकृतिक (unnatur वर्ग है, जो केवल एक लक्षण एक चक्र पुष्प दल पर आधारित हैं। इसमें कर्वएम्ब्री श्रेणी के सदस्यों के अन्य लक्षण कैरियोफिल्लेसी से मिलते हैं।
(4) पोडोस्टीमेसी रोसेल्स से, नेपेन्थेसी पेराडटेल्स से सम्बन्धित है।
(5) निक्टाजिनेसी, पॉलीगोनेसी, एमारेन्थेसी, चीनोपोडिएसी आदि कुलों की उपस्थिति मोनोक्लेमाइडी में उचित नहीं है क्योंकि इनके सदस्यों में पुष्प दल द्विचक्री (dichlamydous) होता है।
(6) एकबीजपत्री पादपों का प्रारम्भ जायांगोपरिक (epigynous) पुष्पों जैसे
माइक्रोस्पर्मी, एपीगायनी आदि वर्गों से होता है, जबकि इन्हें अन्त में लेना चाहिए।
(7) आर्किडेसी कुल को आद्य (primitive) माना गया है, जबकि इसके लक्षण उन्नत
__(advanced) हैं।
(8) लिलिएसी व एमरिलिडेसी को केवल अण्डप की परिस्थिति के आधार पर पृथक
किया गया है।
(9) मोनोक्लेमाइडी को केवल श्रेणी तक वर्गीकृत किया गया है। __
(10) मोनोकॉटीलीडन्स को केवल वर्ग तक विभाजित किया गया है।
|
||||||