BSc 2nd Year Botany V Cytology Genetics Evolution And Ecology Part C Notes

BSc 2nd Year Botany V Cytology Genetics Evolution And Ecology Part C Notes :- 

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खण्ड ‘द’ 

प्रश्न 1 – विकास के भ्रौणिकी तथा प्रत्यावर्तन से प्रमाण पर लेख लिखिए। 

उत्तर – भौणिकी से प्रमाण

(Evidences from Embryology) 

यदि हम विभिन्न जन्तुओं की भ्रूणीय अवस्थाओं का अध्ययन करें तो हमें यह पता चलता है कि विभिन्न जन्तुओं के भ्रूण में उनकी प्रौढ़ अवस्थाओं से अधिक समानताएँ होती हैं। इस तथ्य से प्रभावित होकर वैज्ञानिक अनस्ट हीकल (1834-1919) ने यह नियम बनाया जिसे उन्होंने पुनरावृत्ति सिद्धान्त (Recapitulation theory) या बायोजेनिटिक नियम (Biogenetic law) कहा जिसके अनुसार प्रत्येक जीव का व्यक्तिवृत्त उसके जातिवृत्त की पुनरावृत्ति करता है (ontogeny repeats phylogeny) व्यक्तिवृत्त एक जीव का जीवनकाल है जो अण्डाणु से शुरू होता है तथा जातिवृत्त (phylogeny) जीवों के परिपक्व या वयस्क पूर्वजों का वह क्रम है जो उस जीव समूह के जैव विकास के दौरान बने होंगे। इससे

तात्पर्य यह है कि प्रत्येक जीव अपनी भ्रौणिक अवस्था में अपने पूर्वजों के इतिहास को प्रदर्शित करता है अर्थात् पुनरावृत्ति सिद्धान्त के अनुसार उच्च कोटि या जाति के जन्तुओं की भौणिक अवस्था उनके पूर्वजों की वयस्क अवस्था से मिलती है।

सभी बहुकोशिकीय जीवों में लैंगिक जनन के समय अण्डाणु तथा शुक्राण के और युग्मनज (zygote) बनता है जिसमें विदलन (cleavage) के फलस्वरूप, मॉरुला. ब्ल गैस्टुला अवस्थाएँ पायी जाती हैं जिससे आगे चलकर भ्रूण का विकास होता है। यति विभिन्न कशेरुकियों के भ्रूण को पास-पास रखकर अध्ययन करें तो उसमें बहुत-सी समा दिखाई देती हैं जैसे क्लोम तथा क्लोम दरारें, नोटोकॉर्ड, दो वेश्मी हृदय तथा पँछ। इस से यह प्रमाणित हो जाता है कि सभी कशेरुकियों का विकास मछलियों के समान किसी श्रेणी के जन्तु से हुआ है। इसलिए वॉन बियर (Von Bear, 1792-1876) ने इससे पहले भ्रूणीय परिवर्तन के चार मूल सिद्धान्त दिए जो निम्नलिखित हैं___

(i) सामान्य . लक्षण (general characters) विशिष्ट लक्षणों (shati – characters) से पहले बनते हैं। 

(ii) अधिक सामान्य लक्षणों से कम सामान्य लक्षण तथा फिर विशिष्ट लक्षण विकसित

होते हैं। 

(iii) परिवर्धन के समय भ्रूण धीरे-धीरे दूसरे जीवों के भ्रूण से अलग होता जाता है। (iv) किसी जन्तु की प्रारम्भिक भ्रूण अवस्था दूसरे कम विकसित जन्तु के भ्रूण से ज्यादा मिलती है न कि उसके वयस्क से।

पूर्वजता या प्रत्यावर्तन से प्रमाण

(Evidences from Atavism or Reversion) 

किसी जीव या जीवों के समूह में आकस्मिक किसी ऐसे लक्षण का आना जो सामान्य रूप से उस जाति में नहीं पाया जाता, परन्तु पहले किसी पूर्वज में पाया जाता था पूर्वजता या प्रत्यावर्तन (atavism or reversion) कहलाता है। इन लक्षणों का पुनः आ जाना इस बात को प्रमाणित करता है कि इन जन्तुओं का जैव विकास के दौरान उनमें कोई सम्बन्ध रहा होगा। पूर्वजता या प्रत्यावर्तन के निम्न उदाहरण हैं-

(i).मनुष्य में कभी-कभी मुख के साथ , गर्दन में भी दरार होती है जिसे सरवाइकल फिस्टुला (cervical fistula) कहते हैं। जो सम्भवत: मछलियों में पायी जाने वाली पाँच क्लोम दरारों का अवशेष है। 

(ii) मनुष्य में पूँछ अनुपस्थित होती है, लेकिन कभी-कभी बच्चे में जन्म के समय एक छोटी माँसल रचना के रूप में यह उपस्थित होती है।

(iii) मनुष्य में सामान्यत: वक्ष भाग में एक जोड़ी चूचुक (nipples) पाए जाते हैं, लेकिन

कभी-कभी एक जोड़ी से अधिक चूचुक पाए जाते हैं जो वक्ष के अलावा उदर भाग में होते हैं। 

(iv) मनुष्य के शिशु में कभी-कभी कैनाइन दाँत बड़े और नुकीले होते हैं जो मांसाहारी

पूर्वजों के प्रतीक हैं। 

(v) कुछ मनुष्यों में आदिकपियों की तरह बहुत अधिक बाल पाए जाते हैं।

प्रश्न 2 – जैव विकास के जीवाश्म विज्ञान, भौगोलिक वितरण, कार्यिकी तथा जीव रसायन तथा आनुवंशिकी से प्रमाण दीजिए।

उत्तर : 1. जीवाश्म विज्ञान से प्रमाण (Evidences from Palaeontology) 

(Gr. Palaeos = ancient, onta

– -existing things and logous = Science) 

जीवाश्म (fossil) का अध्ययन जीवाश्म विज्ञान (Palaeontology) कहलाता है। जीवाश्म का अर्थ है उन जीवों के बचे हुए अंश जो अब से पहले जीवित रहे होंगे। जीवाश्म लैटिन भाषा के शब्द फॉसिलिस (fossilis) से बना है जिसका मतलब है खोदना (dug up)। यह जीवविज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण शाखा है जो जीव विज्ञान (Biology) और भूविज्ञान (Geology) को जोड़ती है। 

जीवाश्म का बनना (Formation of Fossils)

जीवाश्म मख्यत: अवसादी शैल (sedimentary rocks) में पाए जाते हैं जो समुद्र या झीलों के तल पर रेत के जमा हो जाने से बनते हैं। मरे हुए जीवों का पूरा शरीर रेत से ढक जाता था तथा धीरे-धीरे यह ठोस पत्थर में परिवर्तित हो जाता है। इसी प्रकार मृत जीवों के विभिन्न भागों का एक स्पष्ट अक्स पत्थर पर बन जाता है। इस क्रिया को अश्मीभवन (petrifaction) कहते हैं। काफी समय बाद जब इन चट्टानों का अध्ययन किया जाता है तो उन जीवों की शारीरिक रचना के सुन्दर चित्र प्राप्त होते हैं। इस प्रकार बने जीवाश्मों को अश्मीभूत जीवाश्म (petrified fossils) कहते हैं। उन जीवाश्मों में जिनमें शरीर का कोई भाग शेष नहीं रहता केवल शरीर का साँचा मात्र रह जाता है, ऐसे जीवाश्म को साँचा जीवाश्म (mould fossils) कहते हैं। जब जीवधारी का पूरा शरीर बर्फ में भली प्रकार से सुरक्षित रहकर सम्पूर्ण जीवाश्म बनता है तब इन्हें अपरिवर्तित जीवाश्म (unaltered fossils) कहते हैं। कभी-कभी मरने के बाद सड़ने से पहले जीव चट्टानों पर अपना ठप्पा बना जाते हैं, ऐसे जीवाश्म को ठप्पा जीवाश्म (print fossils) कहते हैं। 

जीवाश्म का महत्त्व (Significance of Fossils)

जीवाश्म के अध्ययन से जीवों की उपस्थिति का पता चलता है। जीवाश्म यह भी दर्शाते हैं कि विभिन्न पौधों एवं जन्तुओं में जैविक विकास किस तरह हुआ। अग्र तथ्यों से इसका पता चलता है-

(1) विभिन्न भू-शैल के स्तरों से प्राप्त जीवाश्म विभिन्न वंशों के होते हैं। 

(2) सबसे नीचे पाए जाने वाले भू-शैल के स्तरों में सबसे सरल जीव होते थे।

ऊपर पाए जाने वाले स्तरों में क्रमशः जटिल जीवों के जीवाश्म पाए जाते हैं। यह पता चलता है कि जन्तुओं का विकास निम्न प्रकार से हुआ है। एककोशिकीय प्रोटोजोआ→ बहुकोशकीय जन्तु → अकशेरुक जन्तु।

(3) विभिन्न स्तरों से प्राप्त जीवाश्मों से पता चलता है कि विभिन्न वर्गों के जीवों के बी

की संयोजी कड़ी भी थी जो जैव विकास की जटिल गुत्थी को सलयाने सहायक है। 

(4) जीवाश्मों के अध्ययन से किसी एक जन्तु की वंशावली (pedigree) के क्रम का पता चलता है। 

(5) जीवाश्मों के आधार पर भूवैज्ञानिकों ने भूवैज्ञानिक समय सारणी बनायी जिसके स आधार पर यह कह सकते हैं कि पौधों में पुष्पधारी पौधे (angiosperm) तथा जन्तुओं में स्तनधारी (mammals) सबसे आधुनिक एवं विकसित हैं। 

लियोनार्ड दे विन्सी (Leonard de Vinci, 1462-1510) जीवाश्म विज्ञान (Palaeontology) के जनक माने जाते हैं, किन्तु आधुनिक जीवाश्म विज्ञान की स्थापना जॉर्ज क्यूवियर (George Cuvier, 1800) द्वारा की गई।

किसी जीवाश्म की आयु ज्ञात करने की विधि सर्वप्रथम एक अमेरिकन वैज्ञानिक विलार्ड एफ० लिबी (Willard F. Libby) द्वारा सन् 1950 ई० में विकसित की गई थी जिसके लिए उन्हें सन् 1960 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। 

  1. जन्तुओं के भौगोलिक वितरण से प्रमाण 

(Evidences from Geographical Distribution of Animals)

जन्तुओं एवं पौधों का भौगोलिक वितरण भी जैव विकास का एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। जीवों का वितरण सामान्यतः असमान्य होता है। प्रत्येक जीव के वितरण का एक विशष भौगोलिक परिसर (range) होता है जिसमें इनकी अधिकता होने पर इनमें परिसर स बाहर अभिगमन प्रारम्भ हो जाता है जिसके कारण इनकी संख्या में भोजन की स्थिति, दुश्मना तथा मौसम के प्रभाव से कमी आ जाती है, फिर भी कुछ अपने नए वातावरण से अनुकूलित नयी जाति में परिवर्तित हो जाते हैं। इस तरह के असमान वितरण से यह प्रमाणित हाता । आपस में मिलती-जुलती जातियों का उद्भव समान पूर्वज से हुआ है तथा यह अपन स्थान से स्थानान्तरित हो गए तथा परिवर्तित हो गए।

प्रोटोथीरिया (Prototheria) जैसे डकबिल प्लेटीपस (Duckbill Platypus) एकिडना (Echidna) तथा मा पियल्स जैसे कंगारु इस समय सिर्फ ऑस्ट्रेलिया में जाते हैं। यह इस बात को दर्शाता है कि ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप किसी समय एशिया महान जुड़ा हुआ था किन्तु क्रिटेशियस काल में मांसाहारी स्तनधारियों के आने से पहले पार अलग हो गया। एशिया के मांसाहारी स्तनियों ने मार्सपियल्स को खत्म कर दिया, लेकिन के बीच सागर होने के कारण ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप में मांसाहारी स्तनधारियों का आगमन पाया था इसलिए वहाँ प्रोटोथीरिया एवं मासुपियल्स का विकास हुआ था अनेक नया विकास भी हुआ।

इसी प्रकार असमान वितरण के कारण फुफ्फुसीय मछलियों की तीनों जीवित जातियाँ अलग-अलग भौगोलिक वातावरण में पायी जाती हैं जैसे अफ्रीका में प्रोटोप्टेरस (Protopterus), ऑस्ट्रेलिया में नियोसिरेटोडस (Neoceratodus) तथा दक्षिणी अमेरिका में लेपिडोसायरन (Lepidosiren)। हाथी व शेर केवल अफ्रीका तथा भारतवर्ष में पाए जाते हैं। अफ्रीका के गैलापैगोस (Galapagos) द्वीप पर डार्विन ने 20 प्रकार के फिंच पक्षी देखे। इस प्रकार के पक्षी दक्षिणी अमेरिका के महाद्वीप पर भी पाए गए जिससे यह कहा जा सकता है कि ये पक्षी गैलापैगोस द्वीपों में पहुंच गए और वहाँ पर विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों तथा वातावरण के कारण नयी जातियों में बदल गए। 

जन्तुओं के वर्तमान वितरण को इस तरह समझाया जा सकता है कि विभिन्न भौगोलिक परिवर्तनों के कारण भौतिक, मौसमी व जैववैज्ञानिक अवरोध (barrier) बने जिनके कारण जन्तुओं के समूह अलग-अलग होकर विभिन्न क्षेत्रों में फैल गए। इस प्रकार फैले जन्तु नये वातावरण के अनुसार अनुकूलित होकर उत्परिवर्तित होने के फलस्वरूप नयी जातियों का निर्माण हुआ। 

  1. कार्यिकी तथा जीवरसायन से प्रमाण

(Evidences from Physiology and Biochemistry). – 

विभिन्न जन्तुओं के शरीर की कार्यिकी तथा जीवरसायन के अध्ययन से पता चलता है कि सभी जन्तुओं में अनेक मूल समानताएँ होती हैं। __ 

(1) जीवद्रव्य की रचना एवं रसायनिक संयोजन प्रोटोजोआ से लेकर स्तनधारियों तक सभी जन्तुओं में समान होती है। 

(2) DNA (डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल) तथा RNA (राइबोन्यूक्लिक अम्ल) .. सभी जीवों में पाए जाते हैं तथा इनकी मूल रचना समान होती है। 

(3) सभी जन्तुओं में जैविक ऑक्सीकरण के फलस्वरूप ऊर्जा ATP (एडिनोसिन ट्राइफॉस्फेट) के रूप में संचित रहती है। ऑक्सीकरण से सम्बन्धित विभिन्न -., एन्जाइम जैसे साइटोक्रोम भी सभी में समान होते हैं। – 

(4) विभिन्न जन्तुओं में समान प्रकार के पाचक एन्जाइम पाए जाते हैं जैसे. एमाइलेज

स्पंज से स्तनधारी तक, ट्रिप्सिन प्रोटोजोआ से स्तनधारी तक सभी जन्तुओं में पाए जाते हैं। 

(5) सभी कशेरुकियों की रुधिर की संरचना समान होती है। हीमोग्लोबिन के क्रिस्टल के – अध्ययन से पता चलता है कि मनुष्य एवं चिम्पैन्जी के हीमोग्लोबिन में बन्दरों की अपेक्षा अधिक समानता थी। इसी प्रकार कपि तथा मनुष्य में रुधिर A तथा B पाएं गए जो बन्दरों में नहीं होते। 

(6) विभिन्न कशेरुकियों में पाए जाने वाले समान हॉर्मोन का समान कार्य होता है जैसे थायरॉक्सिन हॉर्मोन सभी कशेरुकियों में कायान्तरण में सहायक होता है।

कार्यिकी तथा जीव रसायन के विभिन्न प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि सभी जन्तुओं के समान पूर्वज (common ancestors) थे।

  1. आनुवंशिकी से प्रमाण (Evidences from Genetics) 

आनुवंशिकी विज्ञान के अध्ययन से यह स्थापित हो चुका है कि ‘जीन’ एक इकाई है जो पीढ़ी दर पीढ़ी बिना वंश बदले वंशागत हो जाती है, परन्तु इनमें जब परिवर्तन आता है तो उत्परिवर्तन (mutation) के कारण उनमें भिन्नताएँ आ जाती हैं। ये उत्परिवर्तित जीन लक्षणों को एक नयी दिशा प्रदान करती है। उत्परिवर्तन पर पथ (isolation) तथा प्राकृतिक चयन (natural selection) का भी प्रभाव पड़ता है जिससे नयी जातियाँ बन जाती हैं। घोड़े (Equus cabalus) तथा गधे (Equus asinus) दोनों जातियों के बीच संकरण (cross breeding) द्वारा संकर जाति (hybrid species) खच्चा (mule) बनायी गयी। इस प्रकार के संकरण से यह स्पष्ट होता है कि घोड़े और गधे एकही पूर्वज के वंशज थे।

मनुष्य द्वारा विभिन्न जन्तुओं और पौधों में कृत्रिम रूप से उत्परिवर्तन द्वारा नयी लाभदायक जातियों का निर्माण किया जाता है। ऐसे ही उत्परिवर्तन प्रकृति में आदिकाल से वर्तमान तक हुए होंगे. जिसकी वजह से जैव विकास हुआ।

प्रश्न 3 – लैमार्कवाद तथा डार्विनवाद की तुलना चित्रों के माध्यम से कीजिए। 

उत्तर –

(homology) कहते हैं। उदाहरण-पक्षी का पंख, सील का फ्लीपर, ह्वेल का चप्पू, गादड के पंख, घोड़े की अगली टाँग, मनुष्य के हाथ। इन सभी में कंकाल की मूल रचना मान होती है क्योंकि सभी में ह्यूमरस, रेडियस-अल्ला, कार्पल्स, मेटाकार्पल्स तथा अंगलास्थियाँ पायी जाती हैं, परन्तु सभी के कार्य भिन्न होते हैं। जैसे पक्षी तथा चमगादड़ का उडने में, ह्वेल का चप्पू तथा सील का फ्लीपर तैरने में, घोड़े की अगली टाँग दौड़ने में तथा मनुष्य का हाथ वस्तुओं को पकड़ने का काम करता है।

विभिन्न कीटों के मुखांगों में भी समजातता पायी जाती है जैसे मच्छर के भेदने तथा रक्त चूसने के लिए (piercing and sucking type), कॉकरोच के काटने व चबाने के लिए (cutting and chewing type), मक्खी के तरल पदार्थ ग्रहण करने के लिए (sponging type) तथा तितली के साइफन के लिए (siphoning type) मुखांग काम आते हैं लेकिन इनकी मूल रचना समान होती है। 

(ii) समरूपता या समवृत्तिता तथा समरूप अंग

(Analogy and Analogous Organs)

विभिन्न जन्तुओं के वह अंग जो देखने में समान होते हैं तथा संमान कार्य करते हैं लकिन जिनकी मूल रचना, उद्भव एवं भ्रूणीय परिवर्तन असमान होते हैं, समरूप अंग (analogous organ) कहलाते हैं तथा ऐसी समानता को समरूपता (analogy) कहते हैं। उदाहरण-कीट के पंख, चिड़िया के पंख, चमगादड़ के पंख तथा विलुप्त टेरोडेक्टाइल के प्रख, सभी उड़ने का कार्य करते हैं, लेकिन इनकी मूल रचना भिन्न होती है। कीट के पंख काइटिन के बने होते हैं जो शिराओं द्वारा दृढ़ रहते हैं, पक्षी के पंख अग्रपाद की अस्थियों पर लग पिच्छों द्वारा बने होते हैं, चमगादड़ का पंख हाथ की चारों अँगुलियों तथा धड़ के बीच

त्वचा के वलन द्वारा बनते हैं जिसे चर्मप्रसार (patagium) कहते हैं, टेरोडेक्टाइल के पंख, अंगुलियों, धड़ तथा पिछली टाँग के बीच खिंची त्वचा के बने होते थे।

इस प्रकार जल में पाए जाने वाली मछलियों के पखने (fins) तथा ह्वेल एवं सील के चप्पू एवं फ्लीपर्स तैरने का कार्य करते हैं लेकिन इनकी मूल रचना भिन्न होती है। मछलियों के पखने फिन रे (fin ray) के बने होते हैं तथा ह्वेल के चप्पू और सील के फ्लीपर्स का आधार अग्रपादों की पंचांगुलियाँ होती हैं।

समरूपता अथवा तुल्यरूपता के पादप उदाहरण शकरकंदी (जड़ का रूपान्तर) तथा आलू (तने का रूपान्तर)।

समरूपता के उदाहरणों के अध्ययन से यह पता चलता है कि समरूप अंग पाए जाने वाले विभिन्न जन्तुओं.का विकास अलग-अलग पूर्वजों से हुआ तथा जैव विकास एक समान दिशा में हुआ है। इस प्रकार के विकास को अभिसारी जैव विकास या कनवरजेन्ट इवोल्यूशन (convergent evolution) कहते हैं। 

  1. जीवों के वर्गीकरण से या वर्गिकी से प्रमाण 

(Evidences from Classification or Taxonomy of Animals)

विज्ञान की वह शाखा जिसमें जीवों का नामकरण, वर्णन तथा वर्गीकरण किया जाता वर्गिकी (Taxonomy) कहलाता है। वर्गीकरण में समान लक्षण वाले जीवों को एक समूह में

रखा जाता है। जाति (species) वर्गीकरण की इकाई होती है। एक जाति में वे जीव आते हैं जो

कार्यिकी तथा भ्रूणीय लक्षणों में समान होते हैं तथा आपस में संकरण weed) कर सकते हैं। समान जातियों को एक वंश (genus) में तथा समान वंशों को family) में रखा जाता है। समान कुलों को गण (order) में तथा समान गणों को वर्ग में रखा जाता है। एक समान वर्गों को एक संघ (phylum) में रखा जाता है। इस कार वर्गीकरण का आधार कुछ जीवों में आपस में दूसरों की अपेक्षा ज्यादा समानता पर आधारित है। यदि हम जन्तु वर्गीकरण पर एक नजर डालें तो विभिन्न संघों में काफी भिन्नता दिखाई देती है लेकिन इन्हें बढ़ती हुई जटिलता के आधार पर क्रमबद्ध किया जा सकता है जैसे पोटोजोआ सबसे सरल तथा कॉर्डेटा सबसे जटिल रचना वाला संघ है। जटिलता की कमबद्धता जैव विकास का एक सबल प्रमाण प्रस्तुत करती है अर्थात् जटिल जीव विकास के दौरान सरल जीवों से बने हैं।

इस तरह का वर्गीकरण प्राकृतिक वर्गीकरण प्रणाली (natural system of classification) कहलाता है। इसे वंश वृक्ष (phylogenetic tree) के रूप में दर्शाया जाता है जिसकी शाखाओं के सिरों पर वर्तमान प्राणी रखे गए हैं, इसकी मुख्य शाखाएँ उनके आपसी सम्बन्धों को दर्शाती हैं तथा मुख्य तना उनके जीवित या भूतपूर्व पूर्वजों को दर्शाते हैं। इस तरह यह वृक्ष दर्शाता है कि सभी जन्तु आपस में सम्बन्धित हैं तथा समान पूर्वज से विकसित हुए हैं।

जीवों के वंश वृक्ष को देखने से पता चलता है कि जन्तु तथा पादपों का कोई समान पूर्वज (यूग्लीना समान) रहा होगा जिससे धीरे-धीरे जन्तुओं में एककोशिकीय तथा फिर बहुकोशिकीय जन्तुओं का विकास हुआ। बहुकोशिकीय स्तर वाले जन्तु से ऊतक स्तर वाले जन्तु तथा फिर अंग स्तर वाले जन्तु बने। अंग स्तर वाले जन्तुओं में भी विकास होता गया और सरल से अधिक जटिल जन्तु बने जैसे संघ कॉर्डेटा से पहले मत्स्य वर्ग के जन्तु, फिर उभयचर, इसके बाद स्थलीय सरीसृप, फिर पक्षी तथा अन्त में स्तनधारी जन्तु बने। इन सभी जन्तुओं में भिन्नता होते हुए भी समानताएँ पायी जाती हैं जिससे स्पष्ट है कि समान पूर्वज से इनका जैव विकास हुआ जिससे आदिकाल में समय-समय पर नये-नये जीव बनते गए और उनमें जटिलता आती गयी।

प्रश्न 5 – विकास में संयोजी कड़ियों से प्रमाण लिखिए। – 

उत्तर – संयोजी कड़ियों से प्रमाण

(Evidences from Connecting Links) – 

जन्तु जगत में कुछ ऐसे जीव हैं जिनके लक्षण दो समीप के वर्गों के लक्षणों से मिलते हैं, इनमें से एक वर्ग के जन्तु कम विकसित तथा दूसरे वर्ग के जन्तु अधिक विकसित होते हैं। ऐसे जन्तुओं को संयोजी कड़ियाँ (connecting link) कहा जाता है। ये दो वर्गों के बीच एक सेतु बनाते हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण संयोजी कड़ियाँ निम्न प्रकार हैं

(1) विषाणु (Virus)-विषाणु को जीवित तथा अजीवित के बीच की कड़ी माना जाता है।

(2) यूग्लीना (Euglena)—यह एक कोशिकीय प्रोटोजोअन जन्तु है, जिसमें क्लोरोफिल पाया जाता है। अतः यह पौधों तथा जन्तुओं के बीच की संयोजक कड़ी है।

  1. संख्या में तेजी से बढ़ जाने की प्रवृत्ति 

(Tendency to Rapidly Increase in Number)

प्रत्येक जीव की यह प्रवृत्ति होती है कि वह अपनी संख्या में अधिक-से-अधिक वृद्धि करे लेकिन उससे उत्पन्न सभी संतानें जीवित नहीं रह पातीं, क्योंकि उनकी उत्पत्ति की संख्या ज्यामितीय अनुपात में होती है, जबकि रहने और खाने की जगह स्थिर होती है। इसलिए यदि सबसे धीमी गति से प्रजनन करने वाले जीव पर भी प्राकृतिक अंकुश न लगे तो वह पूरी पृथ्वी के भोजन व स्थान को समाप्त कर देगा। इसके लिए उन्होंने सबसे मन्द गति से प्रजनन करने वाले हाथी का उदाहरण दिया जो लगभग 100 वर्षों तक जीवित रहता है। एक जोड़ा हाथी 30 वर्ष की उम्र में प्रजनन करना शुरू करता है तथा 90 वर्ष तक करता रहता है। इस बीच यह औसतन 6 बच्चों की उत्पत्ति करता है। उन्होंने हिसाब लगाया कि यदि हाथी की सभी संतानें जीवित रहें तो एक जोड़ा हाथी 740-750 सालों में लगभग 19 मिलियन हाथी पृथ्वी पर पैदा कर देगा। इसी प्रकार यदि एक जोड़ी मक्खी अप्रैल में प्रजनन करना शुरू करती है और उसका प्रत्येक अण्डा जीवित रहे तथा उससे निकली मक्खी पुनः प्रजनन करती रहे तो अगस्त के अन्त तक 191×1018 मक्खियाँ पैदा हो जाएँगी। इसी प्रकार टोड एक बार में 12,000 अण्डे देती है और वे सब जीवित रहें तो यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि पृथ्वी पर कितने टोड हो जाएंगे। इसी प्रकार एक कवक 65 करोड़ बीजाणु (spores) तथा एक समुद्री सीप 60 लाख अण्डे प्रतिवर्ष देती है। 

  1. सीमान्त कारक (Limiting Factors)

हमारी पृथ्वी हाथियों से क्यों नहीं रोंधी हुई है, हमारे खेत टोड से क्यों नहीं ढके हुए हैं, हमारे तालाब ऑयस्टर से क्यों नहीं भरे हुए हैं, इन सभी प्रश्नों का उत्तर यह है कि क्योंकि प्रत्येक जाति को रोकने के लिए कुछ बाधक कारक होते हैं जिससे उनकी संख्या सीमित हो जाती है।

(i) सीमित भोज्य सामग्री (Limited food)-जनसंख्या भोज्य सामग्री की कमी के कारण सीमित हो जाती है। डार्विन इस बात में माल्थस (Malthus) के सिद्धान्त से सहमत थे जिनके अनुसार जनसंख्या ज्यामितीय अनुपात में बढ़ती है जिसके सापेक्ष भोज्य सामग्री बहुत धीमी गति से बढ़ती है।

(ii) परभक्षी जन्तु (Predatory animals)-परभक्षी जन्तु जनसंख्या पर अंकुश लगाते हैं जैसे अफ्रीका के जंगलों से यदि शेर को खत्म कर दिया जाए जो जेब्रा की जनसंख्या . उस समय तक इतनी बढ़ जाएगी जब तक की सीमित भोज्य सामग्री व रोग उनके लिए बाधक न बन जाएँ।

(iii) रोग (Disease)-रोग इसका तीसरा सीमान्त कारक है। जब भी जनसंख्या की अति हो जाती है तो कोई न कोई महामारी इस पर रोक लगा देती है। 

(iv) स्थान (Space)-स्थान की कमी के कारण जनसंख्या की अनियमित वृद्धि रुक जाती है क्योंकि इसकी वजह से भुखमरी, महामारी फैल जाती हैं तथा प्रजनन भी सीमित हो । जाता है।

(v) प्राकृतिक विपदाएँ (Natural calamities)-जन्तु के वातावरण में कोई भी बदलाव बाधक बन जाता है; जैसे-सूखा, बाढ़, तूफान, अत्यधिक गर्मी व ठण्ड आदि। 

  1. जीवन के लिए संघर्ष (Struggle for Existence)

प्रायः यह देखा गया है कि प्रत्येक प्रजाति की प्रत्येक पीढ़ी में अधिक-से-अधिक व्यष्टि (individuals) उत्पन्न करने की प्रवृत्ति होती है जो उपर्युक्त दिए गए सीमान्त कारकों से सीमित हो जाती है जैसे खाना, साथी, स्थान आदि के लिए होड़ (competition), परभक्षी जन्तु, रोग तथा प्राकृतिक विपदाएँ। इस प्रक्रिया को डार्विन ने जीवन के लिए संघर्ष – (struggle for existence) कहा। यही संघर्ष निर्णय करता है कि कौन-सी व्यष्टि सफल : होगी और कौन-सी नहीं। _

जीवन के लिए संघर्ष तीन तरह से हो सकते हैं

(i) सजातीय संघर्ष (Intraspecific struggle)-अपने ही तरह की अर्थात् एकही जाति के सदस्यों में आपस में होने वाले संघर्षों को सजातीय संघर्ष (intraspecific struggle) कहते हैं। जंगल में एक ही पेड़ के नीचे उगे जाति के छोटे-छोटे पौधे इसका अच्छा उदाहरण हैं, उन पौधों में से कुछ मिट्टी तथा नमी की कमी से मर जाते हैं तथा बचे हुए पौधों में से कुछ लम्बे होकर अविकसित छोटे पौधों की हवा व प्रकाश रोक देते हैं जिसके कारण छोटे पौधे नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार उस क्षेत्र में पेड़ों की संख्या लगातार गिरती रहती है तथा कुछ ही पौधे परिपक्व हो पाते हैं।

(ii) अन्तर्जातीय संघर्ष (Interspecific struggle)-प्रकृति में सबसे अधिक संघर्ष अन्तर्जातीय होता है अर्थात् एक साथ रहने वाली विभिन्न जातियों के बीच संघर्ष। एक जाति दूसरी जाति का भोजन बन जाती है। मनुष्य इस प्रकार के संघर्ष में सबसे अग्रणी है जो जीव इस संघर्ष में पिछड़ जाते हैं वे या तो अपने इस नुकसान को पूरा करते हैं या नष्ट हो जाते हैं . 

(iii) वातावरणीय संघर्ष (Environmental struggle)-सभी जातियाँ प्रतिकूल वातावरण जैसे अत्यधिक सर्दी व गर्मी, बाढ़, सूखा, तूफान आदि से अपने आपको बचाने के लिए लगातार संघर्ष करती रहती हैं। 

  1. विभिन्नताएँ (Variations)

यह बात सर्वविदित है कि दो जीव कभी भी एक से नहीं हो सकते। एक ही माता-पिता की दो सन्तानें कभी भी एक-सी नहीं होती, इसी को विभिन्नताएँ (Variations) कहते हैं। विभिन्नताएँ जैव विकास की एक मूल आवश्यकता तथा प्रगामी कारक हैं क्योंकि बिना विभिन्नताओं के जैव विकास नामुमकिन है। विभिन्नताएँ दो प्रकार की होती हैं—एक तो वे जो पीढ़ी-दर-पीढी वंशागत हो जाती हैं तथा दूसरी वे जो केवल उस जीव के जीवनकाल में ही . होती हैं, लेकिन वंशागत नहीं होती। 

  1. योग्यतम की उत्तरजीविता (Survival of the Fittest)

हरबर्ट स्पेन्सर (Herbert Spencer) ने योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धान्त विकास के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया। डार्विन इससे अत्यधिक प्रभावित हुए तथा इन्होंने

इसे जैव विकास के प्राकृतिक चयन के सम्बन्ध में समझाया। डार्विन के अनुसार जीवन के संघर्ष नदी जीव सफल होते हैं जो वातावरण के अनुरूप अनुकूलित हो जाते हैं। यह अधिक सफल जीवन व्यतीत करते हैं, इनकी जनन क्षमता भी अधिक होती है तथा यह स्वस्थ संतानों को न करते हैं, जिससे उत्तम लक्षण पीढ़ी दर पीढ़ी वंशागत हो जाते हैं और इस प्रकार उत्पन्न लाने वातावरण के प्रति अधिक अनुकूलित होती हैं। इसके साथ ही वातावरण के प्रतिकूल प्राणि नष्ट हो जाते हैं इसी को डार्विन ने प्राकृतिक वरण या चयन (natural selection) कहा। – 

डार्विन ने प्राकृतिक वरण द्वारा योग्यतम की उत्तरजीविता को लैमार्क के जिराफ द्वारा समझाया। जिराफ की गर्दन तथा पैरों की लम्बाई में अत्यधिक विभिन्नताएँ होती हैं। घास के मैदानों की कमी के कारण इन्हें ऊँचे पेड़ों की पत्तियों पर निर्भर होना पड़ा जिसके फलस्वरूप वह जिराफ जिनमें लम्बी गर्दन व टाँगें थीं, वह छोटी गर्दन व टाँगों वाले जिराफ से ज्यादा । अनुकूलित पाए गए। लम्बी गर्दन वाले जिराफ को उत्तरजीविता का अधिक अवसर मिला था तथा वह संख्या में बढ़ने लगे तथा छोटी गर्दन वाले जिराफ लुप्त हो गए। 

  1. नयी जाति की उत्पत्ति (Origin of New Species) है 

वातावरण निरन्तर परिवर्तित होता रहता है जिससे जीवों में उनके अनुकूल रहने के लिए विभिन्नताएँ आ जाती हैं। ये विभिन्नताएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवों में एकत्रित होती रहती हैं। धीरे-धीरे वह अपने पूर्वजों से इतने भिन्न हो जाते हैं कि वैज्ञानिक उन्हें नयी जाति (new species) का नाम दे देते हैं। इसी के आधार पर डार्विन ने जाति के उद्भव का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।

प्रश्न 8 – जैव विकास के सिद्धान्तों का वर्णन करते हुए लैमार्कवाद का वर्णन कीजिए।

उत्तर – जैव विकास के सिद्धान्त

(Theory of Evolution) 

  1. लैमार्कवाद (Lamarckism)

विकास का प्रथम सिद्धान्त फ्रांसीसी प्रकृति वैज्ञानिक जीन बैप्टिस्ट डी लैमार्क (Jean Baptiste de Lamarck, 1744-1829) ने सन् 1801 ई० में प्रस्तुत किया। सन् 1809 ई० में लैमार्क ने अपने वाद की विस्तृत रूपरेखा अपनी पुस्तक फिलोसोफी जुलोजीक (Philosophie Zoologique) में दी। इनका. सिद्धान्त लैमार्कवाद (Lamarckism) या उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त (Theory of Inheritance of Acquired Characters) कहलाता है। 

सिद्धान्त (Theory)

संक्षेप में यह सिद्धान्त अग्र प्रकार है-

(1) जीव के आन्तरिक बल में जीवों के आकार को बढ़ाने की प्रवृत्ति होती है जिसका ” अर्थ यह है कि जीवों के पूरे शरीर तथा उनके विभिन्न अंगों में बढ़ने की प्रवृत्ति

होती है। 

(2) जीवों की लगातार नयी जरूरतों के अनुसार नये अंगों तथा शरीर के दूसरे भागों का

विकास होता है। 

(3) किसी अंग का विकास तथा उसके कार्य करने की क्षमता उसके उपयोग तथा अनुपयोग पर निर्भर करती है। लगातार उपयोग से अंग धीरे-धीरे मजबूत होकर पूर्णत: विकसित हो जाते हैं, जबकि उनके अनुपयोग से इसका उल्टा प्रभाव पड़ता है फलत: इन अंगों का धीरे-धीरे अपह्रास (degeneration) हो जाता है और अन्त में ये लुप्त हो जाते हैं। 

(4) इस प्रकार जीवनकाल में आए परिवर्तनों को जीव उपार्जित (acquire) कर लेता है और उसे आनुवंशिकी (heredity) द्वारा अपनी संतानों को पहुँचा. देता है। 

लैमार्कवाद के उदाहरण (Example of Lamarckism) 

उपयोग का प्रभाव (Effect of Use) 

(1) अफ्रीका के रेगिस्तानों में पाया जाने वाला जिराफ ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की पत्तियों को खाता है जिसके लिए उसकी अगली टाँग पिछली टाँग से लम्बी तथा गर्दन भी लम्बी होती है। लैमार्क के मतानुसार इनके पूर्वज की गर्दन तथा अगली टाँगें सामान्य आकार की थीं क्योंकि उस समय वहाँ घने जंगल तथा घास-फूस के मैदान थे। जैसे-जैसे जलवायु शुष्क होती गयी, घास सूखने लगी तो उन्हें पेड़-पौधों पर निर्भर होना पड़ा जिसके फलस्वरूप अफ्रीका के रेगिस्तान में लम्बी अगली टाँग व लम्बी गर्दन वाले जिराफ का उद्भव हुआ।  

(2) लैमार्क का मानना था कि पक्षी प्रारम्भ में स्थलीय थे जो खाने की खोज में पानी में जाया करते थे। पानी में चलने के लिए उन्हें अपने पंजे फैलाने पड़ते थे। इसके परिणामस्वरूप उनके पंजों के आधार पर त्वचा लगातार खिंचती गयी और पेशीय चलन से पंजों में रुधिर का बहाव बढ़ गया। अन्ततः त्वचा ने अंगुलियों के बीच में पाद जाल (web) का रूप ले लिया, जैसे-बत्तख तथा अन्य जलीय पक्षी। 

अनपयोग का प्रभाव (Effect of Disuse) 

(1) लैमार्क के अनुसार साँप झाड़ियों तथा बिलों में रहता था तथा जमीन पर रेंगकर चलता था जिसके कारण उसके पैर इस्तेमाल नहीं होते थे तथा बिल में घुसने में भी बाधा उत्पन्न करते थे इसलिए इनके पैर धीर-धीरे लुप्त होते चले गए, जबकि यह 3 अन्य सरीसपों में होते हैं। 

(2) गहरे समुद्र में पायी जाने वाली चपटी मछलियाँ (Flat fish) निष्क्रिय जीवन व्यतीत करती हैं। अत्यधिक दबाव के कारण इनका शरीर चपटा हो जाता है जिसके कारण समुद्र के तल की ओर वाली सतह की आँखे ऊपर की ओर आ जाती है जिससे इसकी दोनों आँखें एक ओर पास-पास आ जाती हैं, जबकि इसके लारवा में दोनों आँखें सिर के पावों में पायी जाती हैं।

लैमार्कवाद की आलोचना (Criticism of Lamarckism)

लैमार्कवाद के सिद्धान्त की अत्यधिक आलोचना की गयी जिसमें मुख्य आलोचक वीजमान (Weismann, 1892) तथा लोएब (Loeb) थे। लैमार्कवाद की आलोचना निम्नलिखित उदाहरणों से की गयी थी –

(1) वीजमान ने अपने प्रयोग में सफेद चूहों की पूँछ काटकर उनमें प्रजनन कराया। कई – पीढियों तक यह प्रयोग करने के बाद भी इनसे उत्पन्न किसी भी शिशु में कटी हुई पंछ नहीं पायी गयी। इससे यह सिद्ध होता है कि उपार्जित लक्षण वंशागत नहीं होते। 

(2) चीन में स्त्रियों के छोटे पैर सुन्दरता के प्रतीक माने जाते हैं जिसके लिए वे लोहे के जूते पहनती हैं। कई पीढ़ियों तक लोहे के जूते पहनने के बाद भी उनके बच्चों के पैर – सामान्य आकार के होते हैं। 

(3) भारतीय संस्कृति में महिलाओं के नाक व कान छिदवाए जाते हैं, कई सदियों तक – बींधे जाने के बावजूद भी उनकी सन्तानों में छेद का कोई अंश भी नहीं पाया जाता। 

(4) यह देखा गया कि धावक के बच्चों की पेशियाँ कभी मजबूत तथा मांसल नहीं होती। 

(5) रूसी वैज्ञानिक पावलोव (Pavlov) ने चूहों को घण्टी सुनाकर खाने के पास आने के लिए प्रशिक्षित किया। उन्होंने यह पाया कि चूहों की हर पीढ़ी में उन्हें यह प्रशिक्षण – दोबारा देना पड़ा। इससे यह प्रमाणित होता है कि उपार्जित लक्षण वंशागत नहीं होते। 

(6) कैसल (Castle) एवं फिलिप्स (Philips) ने एक काली मादा गिनीपिग के अण्डाशय को निकालकर सफेद मादा गिनीपिग के शरीर में प्रतिरोपित (transplant) कर दिया तथा उसका सफेद नर गिनीपिग से मैथुन कराया। उन्होंने पाया कि इस जोड़ी से उत्पन्न सभी गिनीपिग काले रंग के थे जिससे यह प्रमाणित हो गया कि आनुवंशिकी पर वातावरण का कोई प्रभाव नहीं होता। इससे लैमार्कवाद का – खण्डन हुआ। 

प्रश्न 9 – एन्यूप्लॉयडी और यूप्लॉयडी का संक्षेप में वर्णन कीजिए। 

उत्तर – एन्युप्लॉयडी एवं यूप्लॉयडी’ 

(Aneuploidy and Euploidy)

गुणसूत्रों में संख्यात्मक परिवर्तन या विषमगुणिता की क्रिया दो प्रकार की होती हैएन्यूप्लॉयडी एवं यूप्लॉयडी। 

(A) एन्यूप्लॉयडी (Aneuploidy)

ऐसे पौधे एवं जीव-जन्तु, जिनमें अपूर्ण जीनोम होता है, एन्यूप्लॉयड्स (aneuploids) कहलाते हैं तथा इस कार्य-प्रणाली को एन्यूप्लॉयडी (aneuploidy) कहते हैं। एन्यूप्लॉयडी में कुछ प्रकार के गुणसूत्रों की संख्या दूसरे से अधिक होती है।

ऐसा एक जीव जिसमें एक द्विगुणित complement का एक गुणसूत्र (2n – 1) अनुपस्थित रहता है, उसे monosomic कहते हैं। इसके विपरीत ऐसे जीव जिनमें एक ज्यादा गुणसूत्र (2n + 1) होता है, trisomic कहलाते हैं।

परबहुगुणितों (allopolyploids) में multiple set बनाने वाले genomes विभिन्न होते हैं क्योंकि वे भिन्न-भिन्न जातियों से आते हैं। एक allopolyploid को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है-“यह एक ऐसी polyploid जाति होती है जिसमें गुणसूत्रों के सभी sets दो या दो से अधिक जाति से आते हैं।”

एक मोनोप्लॉयड (monoploid) केवल एक जीनोम होता है जिसमें कि प्रत्येक प्रकार का गुणसूत्र केवल एक बार ही दिखाई देता है। मोनोप्लॉयड पौधे डिप्लॉयड पौधों की तुलना में सामान्यतया छोटे तथा कम वृद्धि करने वाले होते हैं। इन पौधों में sterility भी बहुत अधिक होती है। ____

एक triploid की रचना तब होती है, जब एक गैमीट (जिसमें गुणसूत्रों का set होता है) ऐसे गैमीट से मिलता है जिसमें गुणसूत्रों के दो sets होते हैं। एक डिप्लॉयड एवं एक tetraploid क्रॉस कराने में जो सन्तान उत्पन्न होती है, उसमें गुणसूत्रों के तीन sets होते हैं, अर्थात् triploid होते हैं।

प्रश्न 10 – उत्परिवर्तन की परिभाषा दीजिए। उत्परिवर्तन को कैसे प्रेरित करते हैं तथा इनके विभिन्न प्रकारों का भी वर्णन कीजिए। 

उत्तर – उत्परिवर्तन

(Mutation) 

जीन्स एवं गुणसूत्रों में अचानक तेजी से अथवा थोड़े-थोड़े करके आए हुए परिवर्तनों को उत्परिवर्तन कहते हैं।

जीन्स में हुए परिवर्तनों के कारण होने वाले उत्परिवर्तन को जीन उत्परिवर्तन (gene mutation) एवं गुणसूत्रों में परिवर्तनों के कारण होने वाले उत्परिवर्तन को गुणसूत्र उत्परिवर्तन (chromosomal mutation or chromosomal aberrations) कहते हैं।

कायिक कोशिकाओं अथवा जीन द्वारा शरीर में होने वाले उत्परिवर्तनों को somatic mutations कहते हैं।

ह्यूगो डी-वीज नामक वैज्ञानिक ने सर्वप्रथम उत्परिवर्तन की क्रिया को खोज निकाला था तथा उन्हीं के नाम के कारण इस वाद को उत्परिवर्तनवाद (Mutation theory) कहा जाता है।

उत्परिवर्तन कैसे प्रेरित किया जाता है

(How.the Mutations are Induced) 

पौधों की जातियों में इच्छित गुण प्राप्त करने के लिए उत्परिवर्तनों को कृत्रिम तरीके से पैदा किया जाता है। मुख्य रूप से रोग प्रतिरोधी (disease-resistant) जातियों एवं अधिक पैदावार वाली (high-yielding) जातियों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित उत्परिवर्तन अपनाया जाता है। इस प्रकार की बहुत-सी जातियाँ गेहूँ, जौ, टमाटर, सोयाबीन आदि पौधों में उत्परिवर्तन से पैदा की जा चुकी हैं। ___

पौधों में उत्परिवर्तन प्रेरित करने के लिए बहुत-से तरीके काम में लाए जाते हैं; जैसेरेडिएशन (radiation), म्यूटाजेनिक रसायन पदार्थ, तापमान का treatment आदि।

(A) रेडिएशन (Radiation)-ऐसे रेडिएशन जिनसे उत्परिवर्तन कर सकता है, दो प्रकार के होते हैं-Ionizing एवं non-ionizing. Ionizing रेडिएशन के अन्तर्गत एल्फा, बीटा, गामा किरणें, प्रोटॉन्स एवं न्यूट्रॉन्स आदि आते हैं। 23 Non-ionizing रेडिएशन के अन्तर्गत अल्ट्रावॉयलेट किरणें आती हैं जिनकी 1850-3300 A के बीच होती है।

(B) म्यूटाजेनिक रसायन (Mutagenic Chemicals)-ये ऐसे रासायनिक पाक होते हैं जिनमें उत्परिवर्तन पैदा करने की क्षमता होती है। इस प्रकार के कुछ रासायनिक में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण हैं

कैफीन, मॉर्फीन, कॉल्चिसिन, एथिल यूरीथेन, मस्टर्ड गैस, फीनॉल, फॉर्मेल्डिहाइट • नाइट्रस अम्ल आदि।

(C) तापमान (Temperature)-गर्मी के झटकों तथा कुछ दूसरे प्रकार के तापमान के treatments से भी कुछ पौधों में उत्परिवर्तन पैदा किया जा सकता है। लेकिन इसके बारे । में बहुत अधिक ज्ञान अभी वैज्ञानिक जगत को नहीं है।

उत्परिवर्तनों के प्रकार

(Types of Mutations) 

उत्परिवर्तन निम्नलिखित प्रकार के हो सकते हैं

(A) स्पोन्टेनियस उत्परिवर्तन (Spontaneous Mutation)-जब उत्परिवर्तन प्राकृतिक रूप से बिना किसी सम्भावित कारण के होता है, तब यह ‘स्पोन्टेनियस उत्परिवर्तन’ कहलाता है।

(B) प्रेरित उत्परिवर्तन (Induced Mutation)-जब उत्परिवर्तन बनावटी तरीका स किसी जीव में पैदा किया जाता है, तब इसे ‘Induced Mutation’ कहते हैं। यह कुछ रसायनों एवं भौतिक कारकों के कारण होता है।

ऊतकों की प्रकृति के आधार पर उत्परिवर्तन निम्नलिखित प्रकार के होते हैं। –

(A) कायिक उत्परिवर्तन (Somatic Mutation)-ये इस प्रकार के उत्पा होते हैं, जो कि शारीरिक कोशिकाओं के केन्द्रक में होते हैं।

(B) जामनल उत्परिवर्तन (Germinal Mutation)-ये इस प्रकार के उत्परिवतन होते हैं, जो कि जनन कोशिकाओं (germ cells) के केन्द्रक में होते हैं। ये निम्न प्रकार के हो सकते हैं – 

(i) Biochemical mutations. 

(ii) Spurious mutations. 

(iii) Gene mutations or Point mutations.

(iv) Chromosomal mutations.

प्रश्न 11 – जैव विकास में अवशेषी अंगों से प्राप्त प्रमाणों का वर्णन कीजिए। 

उत्तर – अवशेषी अंगों से प्रमाण

(Evidences from Vestigial Organs) 

अधिकतर जन्तुओं में ऐसे अंग पाए जाते हैं जो अब अनावश्यक और क्रियाहीन हो गए हैं लेकिन उनके पूर्वजों में ये आवश्यक तथा क्रियाशील थे, ऐसे अंगों को अवशेषी अंग (vestigial organ) कहते हैं। जिन जन्तुओं में ये अंग पूर्ण विकसित रूप में पाए जाते हैं वे उन जीवों से सम्बन्ध स्थापित करते हैं। 

  1. मनुष्य में अवशेषी अंग

(Vestigial Organs in Man)

मनष्य में लगभग 180 अवशेषी अंग पाए जाते हैं जिसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।-

(i) कृमिरूप परिशेषिका (Vermiform appendix)—यह शाकाहारी जन्तुओं की अंधनाल (ceacum) का अवशेष भाग है जो उन जन्तुओं में क्रियाशील होता है तथा सेलुलोस के पाचन में सहायक होता है। मनुष्य में क्रियाविहीन कृमिरूप परिशेषिका की उपस्थिति से यह पता चलता है कि मनुष्य के पूर्वज शाकाहारी रहे होंगे, लेकिन धीरे-धीरे . मनुष्य . सर्वाहारी (omnivorous) होता चला गया जिसके कारण क्रियाशील अंधनाल एक अवशेषी अंग में परिवर्तित हो गयी।

(ii) पुच्छ कशेरुका (Caudal vertebrae)-मनुष्य में पूँछ का अभाव होने के बावजूद भी कशेरुक दण्ड के अन्त में 4 पुच्छ कशेरुकाएँ मिलकर कॉक्सिस (अनुत्रिकcoccyx) अस्थि बनाती है। मनुष्य में पुच्छ कशेरुकाओं की उपस्थिति यह प्रमाणित करती है कि मनुष्य के पूर्वज पूंछ वाले प्राणी थे। 

(iii) अक्ल दाड (Wisdom tooth)— तीसरा मोलर दन्त मनुष्य में अनावश्यक होता है क्योंकि यह सबसे बाद में निकलता है तथा कभी-कभी नहीं भी निकलता। यह प्राइमेट जन्तुओं में अब भी क्रियाशील है।

(iv) निक्टिटेटिंग झिल्ली या निमेषक पटल (Nictitating membrane)जलीय जन्तु जैसे मछली, मेढक, कुछ पक्षियों व स्तनधारियों में जैसे बिल्ली, कुत्ता आदि में आखों की रक्षा के लिए निक्टिटेटिंग झिल्ली पायी जाती है। मनुष्य में यह अवशेषी अंग के रूप

में पायी जाती है जो नेत्र के भीतरी कोने पर लाल व तिकोनी झिल्ली के रूप में पायी जाती है। ‘जिसे प्लीका सेमील्यूनेरिस (चन्द्रार्धवलन-plica cemilunaris कहते हैं।

(v) शरीर पर बाल (Hair on body)–मनुष्य में शरीर पर पाए जाने वाले बालों की उपयोगिता कम होने के कारण यह अवशेषी रूप में उपस्थित रहते हैं, जबकि अन्य स्तनियों में शरीर पर घने बाल पाए जाते हैं। .

(vi) कर्णपल्लवों की पेशियाँ (Muscles of pinna)-कर्णपल्लवों पर पायी जाने वाली पेशियाँ मनुष्य में अक्रियाशील हो जाती हैं जो मनुष्य के पूर्वजों में कार्यशील थीं तथा कर्णपल्लवों को घुमाने का कार्य करती थी। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि मनुष्य के पूर्वज आजकल के बन्दरों की तरह अपना कर्णपल्लव हिला सकते थे। 

  1. अन्य जन्तुओं में अवशेषी अंग (Vestigial organs in Other Animals) 

(1) ह्वेल एवं पायथन में पश्चपाद एवं श्रोणिमेखला की आवश्यकता न होने के कारण ये अवशेषी हो गए हैं। 

(2) उड़ने में असमर्थ पक्षी जैसे शुतुरमुर्ग, डोडो, न्यूजीलैण्ड के कीवी आदि में पंख अवशेषी रूप में पाए जाते हैं। 

(3) ह्वेल एवं अन्य जलीय स्तनियों में कर्णपल्लव (pinna) अवशेषी हो गए हैं। 

(4) घोड़े की टाँग में उपस्थित स्पलिंट अस्थि (splint bone) दूसरी व चौथी अंगुली का अवशेषी अंग है। इसमें केवल तीसरी अंगुली खुर बनाती है जो चलते समय जमीन के सम्पर्क में रहती है।

प्रश्न 12 – चार्ल्स डार्विन का परिचय दीजिए। , 

उत्तर – चार्ल्स डार्विन का संक्षिप्त परिचय

(A brief Introduction of Charles Darwin) 

चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन (Charles Robert Darwin) का जन्म सन् 1809 ई० को श्रूसबरी इंग्लैण्ड (Shrusbury-England) में हुआ। इन शिक्षा एडिनबर्ग (Edinburgh) के चिकित्सा स्कूल (Medical School) म न लगने के कारण यह चिकित्सा की पढ़ाई छोड़कर कैम्ब्रिज के क्राइस्ट महाविद्या (Christ 

प्रश्न 13 – पॉलिप्लॉयडी से आप क्या समझते हैं? पॉलिप्लॉयड्स के मुख्य गुणों का वर्णन कीजिए। 

उत्तर – पॉलिप्लॉयडी

(Polyploidy) 

ऐसे जीव जिनमें गुणसूत्रों की haploid संख्या से तीन गुना या अधिक गुना गुणसूत्र होते हैं, पॉलिप्लॉयड्स (polyploids) कहलाते हैं तथा इनके बनने की क्रियाविधि या प्रणाली को पॉलिप्लॉयडी (polyploidy) कहते हैं।

ऐसी कोशिकाएँ, जिनमें गुणसूत्रों के दो से अधिक sets होते हैं, पॉलिप्लॉयड कोशिकाएँ कहलाती हैं।

पॉलिप्लॉयड्स के सामान्य गुण

(General Properties of Polyploids) 

डिप्लॉयड पौधों की तुलना में पॉलिप्लॉयड पौधों में विभिन्न गुण होते हैं। पॉलिप्लॉयड्स के कुछ आकृतिकीय, कार्यिक एवं आनुवंशिक गुण निम्नलिखित होते हैं-

  1. आकृतिकीय गुण (Morphological Characters)

(1) इनके तने मोटे और मजबूत होते हैं। 

(2) इनकी पत्तियाँ मोटी, चौड़ी और गहरे रंग की होती हैं।

(3) डिप्लॉयड पौधों की तुलना में इन पौधों की रन्ध्रों की कोशिकाएँ बड़ी होती हैं। 

(4) इनके रोम मोटे एवं coarse होते हैं। 

(5) इनके पुष्पों एवं पुष्प के भागों का आकार बड़ा होता है। 

(6) डिप्लॉयड पौधों की तुलना में इनके परागकण बड़े होते हैं। 

(7) इनके फल एवं बीज बड़े होते हैं।

(8) डिप्लॉयड पौधों की तुलना में इनकी xylem की कोशिकाएँ बड़ी होती हैं। 

  1. कार्यिक गुण (Physiological Characters)

(1) इनमें पुष्प देर से खिलते हैं। 

(2) डिप्लॉयड पौधों की तुलना में इन पौधों में nectar अधिक होता है। 

(3) इन पौधों में डिप्लॉयड पौधों से ऐस्कॉर्बिक अम्ल ज्यादा होता है। 

(4) इनकी कोशिकाओं की osmotic सान्द्रता अधिक होती है। 

(5) डिप्लॉयड पौधों की तुलना में इनमें Na, Ca. K एवं Mg की प्रतिशत मात्रा अधिक – होती है। 

  1. आनुवंशिक गुण (Genetic Characters) 

(1) इनमें दो से अधिक allelomorphic जीन्स होते हैं।

(2) डिप्लॉयड पौधों की तुलना में पॉलिप्लॉयड पौधों में उत्परिवर्तन (mutation) गति कम होती है।

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