Bsc 2nd Year Botany VI Plant Physiology And Biochemisty Part C Notes :-
खण्ड ‘द’
प्रश्न 1 – पादप वृद्धि नियामक किसे कहते हैं। ऑक्सिन पर निबन्ध लिखिए।
उत्तर – पादप वृद्धि नियामक
(Plant Growth Hormones or PGR)
पादप वृद्धि एवं परिवर्धन बाह्य एवं आन्तरिक दोनों कारकों से नियन्त्रित होती है। अन्तरकोशीय आन्तरिक कारक रासायनिक तत्त्व हैं, जिन्हें वृद्धि नियामक (growth regulator) कहते हैं। ये पौधे के विभिन्न भागों में उत्पादित होते हैं तथा वृद्धि व परिवर्धन की क्रिया को नियन्त्रित करते हैं।
ये पादप कार्यिकी को प्रभावित करते हैं। ये सहक्रियाशील योगवाही अथवा प्रतिरोधात्मक के रूप में कार्य करते हैं तथा प्रकाश, ताप, गुरुत्वाकर्षण आदि बाह्य घटकों से प्रभावित होते हैं।
ऑक्सिन (Auxin)
ऑक्सिन वृद्धि कारकों का एक महत्त्वपूर्ण समूह है। ऑक्सिन प्रथम पादप हामान ह जिसकी खोज हुई। ऑक्सिन, का संश्लेषण तने व मूल शीर्ष में होता है और पादप के द्वारा स्थानान्तरित किया जाता है। ये कोशिका दीर्घन को उत्तेजित करने की क्षमता रखते हैं। इस अतिरिक्त अन्य वृद्धि अनुक्रिया जैसे -मूल आरम्भन (root initiation), वेस्कुलर विभेदन (vascular differentiation), कायिक गतियाँ तथा कक्षस्थ कलिका, पुष्प तथा फला क विकास की क्रिया आदि का भी नियमन करते हैं। इसको कोल तथा स्मिथ (Kogl ana smith) ने 1931 में मनुष्य के मूत्र से क्रिस्टलीकरण कर प्राप्त किया था। शुद्धिकरण पश्चात् जो प्रथम पदार्थ प्राप्त हुआ उसका नाम ऑक्सिन-A (Auxin ‘A’-auxeng triolic acid) दिया। उसके पश्चात् कोल, स्मिथ तथा एर्कसलबेन (Kogl, Smith Erxleben) ने 1934 में ऑक्सिन-B (Auxin B-auxeno ionic acid) की खोज मक्का में की। धीरे-धीरे इन्डोल ऐसीटिक एसिड (Indole-acetic acid) की खोज हुई, इसको IAA भी कहते हैं (चित्र)। ऑक्सिन की अधिकतम मात्रा शीर्ष (apex) तथा वृद्धि स्थानों (growth regions) पर मिलती है। इनकी गति नीचे की ओर अथवा तलाभिसारी (basipetal) होती है। ऑक्सिन दो प्रकार के होते हैं –
- मुक्त ऑक्सिन-इन्हें विसरण द्वारा निकाला जा सकता है।
- परिबन्ध ऑक्सिन–इन्हें विसरण द्वारा नहीं निकाला जा सकता।
रासायनिक संरचना (Chemical structure)
ऑक्सिन वे कार्बनिक पदार्थ हैं जो तने की कोशिकाओं का दीर्धीकरण (elongation) करते हैं।
IAA से मिलते-जलते और यौगिक हैं—नेफ्थाइल ऐसीटिक एसिड (NAA) कि ऐसीटिक एसिड (PAA), नेपथॉक्सी ऐसीटिक एसिड, फिनॉक्सी ऐसीटिक एसिड तथा डाइक्लोरो फिनॉक्सी ऐसीटिक एसिड (2, 4-D) आदि।
ऑक्सिन की थोड़ी-सी मात्रा तने में वृद्धि कारक तथा जड़ में वृद्धि रोधक हो सकती है।
ऑक्सिन का पादप शरीर क्रिया पर प्रभाव (Effects of Auxin on Plant Physiology ___
(1) कोशिका विवर्धन तथा लम्बाई में वृद्धि (Cell elongation and longitudinal growth)—3tufa (endogenous) Ticket chairgrot faqefi aen वृद्धि कारक है, परन्तु यदि पौधे में बाहर से ऑक्सिन लगा दिया जाए तो इसका वृद्धि पर कोई प्रभाव नहीं होता है। अधिक ऑक्सिन सान्द्रता तने में लम्बाई बढ़ाती है, परन्तु जड़ में वृद्धिरोधक होती है।
(2) कोशिका विभाजन (Cell division) – द्वितीयक वृद्धि (secondary growth) के समय ऑक्सिन कैम्बियम में विभाजन को बढ़ाता है। टिशु कल्चर (tisain culture) में इसका बहुत महत्त्व है। मीडियम अथवा माध्यम में ऑक्सिन की मात्रा में कोशिका जल्दी-जल्दी विभाजित होकर कैलस (callus) बनाती है।
(3) शीर्ष प्रमुखता (Apical dominance)-शीर्ष कलिका (apical bud) के रहते कक्षीय कलिकाओं (axial buds) की वृद्धि नहीं होती है। यदि शीर्ष कलिका को काट दिया जाए तो पार्श्व वृद्धि बढ़ जाती है। यदि शीर्ष कलिका को काटकर एगर (Agar) का ऑक्सिन वाला टुकड़ा लगा दिया जाए तब भी पार्श्व वृद्धि रुक जाती है। इससे यह पता चलता है कि शीर्ष पर मिलने वाला ऑक्सिन पार्श्व वृद्धिरोधक होता है। आधुनिक प्रयोगों से यह पता चलता है कि ऑक्सिन, इथाइलीन बनाता है और यह इथाइलीन वृद्धिरोधक होता है।
(4) जड़ विभेदन (Root differentiation)-कटे हुए पौधों, कमल इत्यादि में यदि __ कटे सिरे पर ऑक्सिन का घोल लगा दिया जाए तो अपस्थानिक जड़ें बनने लगती हैं। विशेष रूप से इन्डोल ब्यूटाइरिक एसिड (IBA) इस क्रिया को शीघ्रता से करता है।
(5) विलगन (Abscission)-फल व पत्ती इत्यादि पकने पर झड़ने लगते हैं। यह क्रिया वृन्त के नीचे विलगन परत (abscission layer) बनने के कारण होता है। यदि ऑक्सिन की एक विशेष सान्द्रता इन पर छिड़की जाए तो विलगन की क्रिया नहीं होती है।
(6) अनिषेकफलन (Parthenocarpy)-ऑक्सिन अनिषेकफलन को बढ़ावा देता है। रूप से यदि आँक्सिन वर्तिकाग्र पर लगा दिया जाए तो परागण तथा निषेचन के बिना भी फलन हो सकता है। ऐसे फल ऐसे फल बीजरहित (seedless) होते हैं; जैसे केला, टमाटर, सेब, खीरा, अंगूर आदि।
(7) पुष्प समारंभन (Flower initiation) सामान्यत: ऑक्सिन पुष्प बनने का रोकते हैं, परन्तु अनन्नास (Ananas sativus) में ऑक्सिन छिड़कने से सारी फसल में एक साथ पुष्पन होता है। ऑक्सिन सलाद में पुष्पन की क्रिया देर से आरम्भ करता है।
(8) श्वसन (Respiration)-बहुत-से पौधों में श्वसन की क्रिया पर ऑक्सिन का बहुत प्रभाव पड़ता है।
(9) खर-पतवार उन्मूलन (Weed eradication)-कछ कृत्रिम ऑक्सिन, ‘2.4-D खरपतवार उन्मूलन के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं। उनके छिडकाव में खरपतवार मर जाते हैं।
(10) प्रसुप्तता नियन्त्रण (Control of dormancy) – आलू के कन्द में कलिकाओं: के प्रस्फुटन को रोकने के लिए शीतगृह (cold storage) में रखने से पूर्व ऑक्सिन छिड़का जाता है।
प्रश्न 2 – जीर्णावस्था किसे कहते हैं? जीर्णन व मृत्यु की विधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर – जीर्णावस्था (Senescence)
पौधे तथा उसके भागों की आयु के बढ़ने को जीर्णावस्था कहते हैं। बहुत-से पौधों में ऑक्सिन, जिबरेलिन, साइटोकाइनिन, ‘ऐब्सिसिक अम्ल आदि भी जीर्णावस्था को प्रभावित करते हैं। इसका अर्थ है कि ये सभी यौगिक प्राकृतिक जीर्णावस्था की प्रक्रिया में भाग लेते हैं। कुछ जीवों में जीर्णावस्था का कारण उपापचयी पदार्थों का जमा होना व कोशिका क्षति है। पत्तियों व अन्य समरूप अंगों की, जैसे-दलों, बीजपत्र आदि जीर्णावस्था एक तय कार्यक्रम के अन्तर्गत होती है।
क्लोरोप्लास्ट अथवा हरितलवक की जीर्णावस्था
(Senescence of Chloroplast)
जौ की पत्तियों से पृथक् किए हरितलवक में देखा गया है कि यदि उन्हें अधिक समय तक अन्धकार में रखा जाए तो अवशोषण स्पेक्ट्रम के लाल अवशोषण क्षेत्र में परिवर्तन होने के कारण जीर्णावस्था का प्रेरण होता है अर्थात् अन्धकार के कारण हरितलवक की संरचना में कुछ परिवर्तन होते हैं जिससे उसका कार्य प्रभावित होता है।
अन्धकार के कारण प्रेरित जीर्णावस्था वाली पत्तियों में विभिन्न बहिर्जात इलेक्ट्रॉन दाता जैसे-MnCl, तथा डाइफिनाइल कार्बेजाइड (DPC) जो PS-II को इलेक्ट्रॉन देना भिन्न प्रकार का होता है। MnCI,DCPIP के उत्पादन को चौथे दिन तक सहायता करता है, जबकि DPC 7वें दिन तक रहता है। इसका अर्थ है कि इलेक्ट्रॉन संवहन श्रृंखला की स्थिति HO तथा PS-II अभिक्रिया के मध्य पहुँचती है। यदि इसको साइटोकाइनिन उपलब्ध करा दें तो इस प्रकार की जीर्ण पत्ती तथा हरितलवक की यह क्रिया कुछ देर तक निरुद्ध रहती है। ऑक्सिन व जिबरेलिन भी जीर्णावस्था को कुछ समय के लिए रोक सकते हैं, परन्तु इथाइलीन व ABA जीर्णन की क्रिया को तीव्र कर देते हैं।
जीर्णन व मृत्य की विधियाँ (Pattern of Ageing and Death)
पौधे सामान्यतः निरन्तर विकास की स्थिति में होते हैं। इसके पुराने अंग झड़ते हैं तथा नये अंग बनते हैं। यह क्रिया अंकुरण से मृत्यु तक इसी प्रकार चलता रहता है। पौधों की वृद्धि की प्रकृति के अनुसार ही पौधों का जीर्णन भिन्न होता है जैसे
(a) पूर्ण पौधों का जीर्णन (Whole plant senescence)-पूरा पौधा जीर्ण होकर मृत हो जाता है। पुष्पन व फल बनने के पश्चात् यह क्रिया एक ही बार होती है। जैसे—सभी वार्षिक पौधों में जैसे-चावल, गेहूँ सरसों आदि। यदि इन पौधों में पुष्पन को थोड़ी देर के लिए आगे बढ़ा दिया जाए तो जीर्णावस्था भी देर से आती है।
(b) अंग जीर्णन (Organ senescence)-पौधे के विभिन्न अंग; जैसे-पत्ती आदि में परिपक्व होने के पश्चात् जीर्णावस्था आती है, परन्तु उसकी जड़ें व अन्य अंग जीवित
रहते हैं। कुछ समय के पश्चात नई पत्तियाँ आती हैं तथा पुरानी का स्थान ग्रहण कर लेती है जैसे-वर्षानुवर्षी पौधे (क्षुप पेड़) में।
(c) ऊतक जीर्णन (Tissue senescence)-कुछ ऊतक जैसे-दृढ़ ऊतक (स्केलेरनकाइमा), वाहिनिका (tracheid) तथा वाहिका (vessels) आदि भी परिपक्व होकर जीर्णित होते हैं। परन्तु पौधे इससे प्रभावित नहीं होते हैं तथा सामान्य वृद्धि करते हैं। ___
पौधों की आयु में बहुत भिन्नता मिलती है; जैसे-कुछ पौधे वार्षिक होते हैं तथा उनकी आयु कुछ दिन अथवा घंटे (एक ऋतु) होती है। जैसे-वार्षिक पौधे हजारों वर्ष तक जीवित रहते हैं जैसे-सिकोआ (Sequoia) आदि 500 वर्षों से भी अधिक जीवित रहते हैं।
जीर्णावस्था का नियन्त्रण सामान्यतः आनुवंशिक स्तर पर होता है। मोलिश (Molischi के अनुसार जीर्णावस्था पोषक तत्त्वों की कमी से भी होती है। तीव्रता से वृद्धि कर रहे पौधे ‘सिन्क’ (Sink) का कार्य करते हैं तथा परिपक्व हो रही पत्तियों से सारा पोषक तत्त्व ले लेते हैं तथा उन्हें जीर्ण बनाते हैं।
वृद्धि कारकों का प्रभाव (Effects of Growth factors) _
यदि पत्तियों पर साइटोकाइनिन का अनुप्रयोग किया जाए तो जीर्णावस्था को उस विशिष्ट क्षेत्र में पल्टा (reverse) जा सकता है। इस परिघटना को रिचमण्ड तथा लेंग प्रभाव (Richmond and Lang effect) कहते हैं। साइटोकाइनिन लेबल ऐमीनो अम्ल का संवहन जीर्ण हो रही पत्तियों को और बढ़ा सकता है जिससे प्रोटीन का विघटन रुक जाता है तथा जीर्णावस्था प्रभावित होती है।
सामान्यत: पुरानी पत्तियों में जीर्णावस्था मिलती है नव पत्तियों में नहीं। इसका कारण पोषक तत्त्वों का संवहन होता है। पोषक तत्त्व नये बन रहे अंगों तथा वृद्धि कर रहे ऊतक की ओर तीव्रता से जाते हैं। ऑक्सिन की मात्रा भी बढ़ जाती है। पुरानी परिपक्व पत्तियों में जीर्णावस्था भूखे रहने का परिणाम भी है।
सभी पौधे एक ही हॉर्मोन के प्रति अनुक्रिया नहीं दर्शाते हैं। साइटोकाइनिन शाकीय पौधों को अधिक प्रभावित करते हैं। जिबरेलिन टेरेक्स्कम (डेन्डेलिऑन) तथा फेक्सिनस (एश) आदि पौधों, में जीर्णावस्था को अवरुद्ध करता है। पत्ती की जीर्णावस्था के समय अन्तर्जात जिबरेलिन का स्तर निरन्तर गिरता है। ऑक्सिन; जैसे-IAA तथा 2, 4D आदि कुछ पौधों में जीर्णावस्था को रोकते हैं। इथाइलीन जीर्णावस्था को बहुत से ऊतकों में बढ़ाता है। यदि इसका उपयोग बाहर से किया जाए तो इसका फाइटोजीरेन्टोलोजिकल प्रभाव तीव्र होता है।
प्रश्न 3 – दीप्तिकालिता पर लेख लिखिए।
उत्तर – दीप्तिकालिता (Photoperiodism) ,
पौधों में विभिन्न क्रियाओं के लिए प्रकाश का बहुत महत्त्व है। दिन और रात अथवा दीप्तिकाल (photoperiod) का पौधों की शारीरिक क्रिया तथा पुष्पन (flowering) पर भा प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए एक पेड़ पर फूल आने में कई वर्ष लग सकते हैं, जबकि एक शाक में बहुत जल्दी फूल आ जाते हैं। मक्के के पौधे में फूल लगने से पहले एक निश्चित संख्या में पत्तियों का होना आवश्यक है। बाँस की एक जाति में 32 वर्ष से पहले कोई फूल नही लगता है। इससे यह पता चलता है कि कायिक शरीर (vegetative body) को जनन शरार (reproductive body) में बदलने में कुछ निश्चित स्थितियाँ आवश्यक हैं।
पुष्पन के लिए दो मुख्य स्थितियाँ आवश्यक होती हैं-
(1) दीप्तिकाल (Photoperiod) (2) बसन्तीकरण (Vernalization)।
गारनर तथा एलार्ड (W.W. Garner and H.A. Allard) ने सन् 1920 में सर्वप्रथम दीप्तिकालिता का पुष्पन में महत्त्व बताया। उन्होंने देखा तम्बाकू (Tobacco) की एक जाति निकोशियाना टेबेकम (Nicotiana tabacum) में गर्मी में बहुत अधिक कायिक वद्धि होती है, परन्तु यदि यही प्रजाति सर्दियों (winter) में लगाई जाए तो कायिक वृद्धि के साथ-साथ बहुत अच्छा पुष्पन भी होता है। तब उन्होंने यह कहा कि दिन की लम्बाई अर्थात् प्रकाश के समय का पुष्पन पर प्रभाव पड़ता है। क्योंकि सर्दियों में प्रकाश की अवधि कम होती है। अत: इन्हें अल्प प्रदीप्तकाली पौधा (short day plant) कहा जाता है। ”
प्रकाश काल. (photoperiods) के पुष्पन पर प्रभाव के अनुसार पौधे तीन प्रकार के होते हैं (चित्र)
(1) अल्प प्रदीप्तकाली पौधे (Short day plants or SDP)-पौधों में क्रान्ति दीप्तिकाल (critical day length). से कम समय तक प्रकाश देने से पुष्पन होता है
जैसे–तम्बाकू।
(2) दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधे (Long day plants or LDP)-पौधों में क्रान्ति दीप्तिकाल (critical day length) से अधिक समय तक प्रकाश मिलने से ही पुष्पन होता है, जैसे-जई, मूली आदि।
(3) दिवस निरपेक्ष पौधे (Day neutral plants)-इन पौधों के पुष्पन पर प्रकाश के समय का कोई प्रभाव नहीं होता है।
कुछ पौधों में कुछ दिन अल्प प्रदीप्तिकाल के पश्चात् फिर दीर्घ प्रदीप्तिकाल मिलने से ही पुष्पन होता है। इन्हें अल्प-दीर्घ प्रदीप्तिकाली (short long day plant) पौधे कहते हैं, जैसे-कैन्डीटफ्ट (Canditufft)|
कुछ पौधों में कुछ समय तक दीर्घ प्रदीप्तिकाल के पश्चात् फिर कुछ समय अल्प प्रदीप्तिकाल मिलने से ही पुष्पन की क्रिया होती है। ऐसे पौधों को दीर्घ-अल्प प्रदीप्तिकाली (long-short day plants) पौधे कहते हैं; जैसे रात की रानी (Cestrum noctrurnum)।
अल्प प्रदीप्तिकाली पौधों में, लम्बे अन्धकार की आवश्यकता होती है। यदि अन्धकार के मध्य में कुछ समय के लिए प्रकाश का अन्तराल दे दिया जाए तब पुष्पन की क्रिया नहीं होगी।
इसी प्रकार दीर्घ प्रदीप्तिकाली पौधों में प्रकाश का अन्तराल अन्धकार के समय (dark period) में देने पर पुष्पन हो सकता है (चित्र) अर्थात पुष्पन के लिए प्रकाश तथा अन्धकार का बहुत अधिक महत्त्व है।
क्रान्ति दीप्तिकाल (Critical day length) क्रान्ति दीप्तिकाल वह दीप्तिकाल है जो पौधे में पुष्पन की क्रिया का आरम्भ करने के लिए आवश्यक है। दीप्तिकाल में प्रकाश से अधिक सतत् अन्धकार की आवश्यकता होती है। क्योंकि प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि अन्धकार के समय पड़ने वाली प्रकाश की कुछ किरणें भी पुष्पन को प्रभावित करती हैं।
प्रश्न 4 – जिबरेलिन वृद्धि कारक है। इसकी व्याख्या कीजिए।
उत्तर – जिबरेलिन (Gibberellin)
जिबरेलिन वह वृद्धि कारक है जो पौधों की असमान्य रूप से लम्बाई में वृद्धि करता है। यह केवल गमले में लगे सम्पूर्ण पौधे पर प्रभाव दिखाता है। जिबरेलिन का कटे हुए अंगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
कुरोसावा (Kurosawa) नामक वैज्ञानिक ने धान के खेत में फफूंद के कारण अत्यधिक लम्बे पौधे देखे। इस बीमारी को बेकेन (Bakane) अथवा फूलिश सीडलिंग (foolish seedling) बीमारी कहा जाता था। इन पौधों में यह बीमारी जिबरेला फ्युजीकोराई (Gibberella fujikuroi – syn, Fusarium moniliforme) से होती है। याबुता तथा हयाशी. (Yabuta and Hayashi) ने 1939 में इस फफूंद से एक वृद्धि नियन्त्रक (growth regulator) पृथक् किया। उसे जिबरेलिन-A (Gibberellin-A. GA) नाम दिया। यदि जिबरेलिन को बौने पौधे पर छिड़का जाए तो पौधे लम्बे हो जाते हैं। अभी तक लगभग 62 प्रकार के जिबरोलिन का पता चल चुका है, जिनमें से 25 इसी फफूँद से निकले गए हैं। जिबरेलिन अकेले ऐसे हॉर्मोन्स हैं, जिन्हें उनकी रासायनिक संरचना के आधार पर पहचाना जाता है न कि जैविक क्रिया के आधार पर।
रासायनिक संरचना (Chemical Structure)
इसकी संरचना का मुख्य भाग गिबेन वलय (Gibbane ring) होती है। इससे OH, GOOH समूह जुड़ते हैं। GA3 मुख्य रूप से उपयोग में आने वाला जिबरेलिन है (चित्र)।
जिबरेलिन की गति ऑक्सिन के समान ध्रुवीय (polar) नहीं होती है। यह फ्लोएम के द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचता है। यह जाइलम में भी स्थानान्तरित (translocate) हो सकता है।
जिबरेलिन के अनुप्रयोग (Applications of Gibberellin)
(1) तने का दीर्धीकरण (Elongation of stem)—यह तने के पर्वो को लम्बाई में बढ़ाता है जिसके फलस्वरूप पौधे काफी लम्बे हो जाते हैं।
(2) दीर्घ प्रदीप्तिकाली पौधों में पुष्पन (Flowering in long day plants)दीर्घ दीप्तिकाली पौधों में जिबरेलिन छिड़कने से अल्पदीप्तिकाल में भी पुष्पन प्रारम्भ किया जा सकता है।
(3) अनिषेकफलन (Parthenocarpy)-कुछ पौधों में जिबरेलिन छिड़कने से ऑक्सिन की अपेक्षा जल्दी अनिषेकफलन हो जाता है।
(4) प्रसप्ति काल को तोड़ना (Breaking of dormancy)-कन्द में जिबरेलिन देने से उनकी कलिकाओं का प्रसुप्ति काल दूर हो जाता है तथा वे उपज़ जाते हैं।
(5) आनुवंशिक बौने पौधों में दीर्धीकरण (Elongation of genetically dwarf plants)-कुछ पौधों में जीन के कारण बौनापन रह जाता है। इस प्रकार के बौनेपन को जिबरेलिन देकर दूर किया जा सकता है। चुकन्दर (beet root) के तने को भी जिबरेलिन देकर लम्बा किया जा सकता है इस क्रिया को बोल्टिंग (bolting) कहते हैं।
(6) शीत उपचार का प्रतिस्थापन (Substitution of cold treatment)-द्विवर्षी पाधों के पुष्पन के लिए आवश्यक ठण्डे तापमान को जिबरेलिन देकर प्रतिस्थापित किया जा सकता है। जिबरेलिन देने पर इन पौधों को शीतकाल के प्राकृतिक तापमान की कोई आवश्यकता नहीं होती है।
(7) अनाज के अंकरित होते दानों में -एमाइलेस का संश्लेषण (Synthesis of amylase in the germinating grains of cereals)-जिबरेलिन की कुछ मात्रा अनाज के दानों के अंकुरण के समय ऐल्यरोन कणों में प्रसारित हो जाती है। जिबरेलिन के कारण एल्यूरीन के कण शीघ्र ही एमाइलेस नामक विकर बना लेते हैं जो भ्रूणपोष में उपस्थित अणु का जल-अपघटन कर शर्करा में परिवर्तित कर देता है। न्यूक्लिएज (nuclease) द्वारा प्राटान तथा न्यूक्लीक एसिड (nucleic acid) के विघटन पर साइटोकाइनिन (cytokinin) तथा आक्सिन (auxin) संश्लेषित होती है। इसके कारण कोशिका विभाजन से भ्रूण की वृद्धि होती है।
(8) पुंजननता (Maleness) का विकास – जिबरेलिन छिड़कने से पुष्प में पुंजननता का विकास होता है।
प्रश्न 5 – नाइट्रोजन चक्र का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर – नाइट्रोजन चक्र (Nitrogen Cycle)
वायुमण्डल में उपस्थित नाइट्रोजन के अणु तड़ित तथा वर्षा (thunder and rain) से पानी के साथ मिलकर नाइट्रस तथा नाइट्रिक अम्ल के रूप में मृदा में आते हैं जहाँ पर तत्त्वों के साथ मिलकर नाइट्रिक यौगिक बनाते हैं। ये यौगिक पानी में घुलनशील होते हैं और पानी के साथ ही जड़ द्वारा अवशोषित किए जाते हैं। नाइट्रिक यौगिक इसके अतिरिक्त सूक्ष्मजीवियों द्वारा सहजीवी अथवा असहजीवी (मुक्त) रूप में वायुमण्डलीय नाइट्रोजन के नाइट्रोजन यौगिकीकरण (nitrogen fixation) द्वारा अथवा सूक्ष्मजीवियों से नाइट्रोजन को अमोनिया में परिवर्तन कर अमोनीकरण (ammonification) द्वारा अथवा अमोनिया को नाइट्रेट में परिवर्तन कर नाइट्रीकरण (nitrification) द्वारा भी बनते हैं। ___
ये यौगिक पौधों द्वारा उपयोग में लाए जाते हैं जहाँ विभिन्न उपापचयी (metabolic) क्रियाओं से अमीनों अम्ल तथा प्रोटीन आदि बनते हैं। ये प्रोटीन जन्तुओं तथा परपोषियों द्वारा उपयोग में लाए जाते हैं। जीवधारियों की मृत्यु तथा उत्सर्जन आदि के रूप में ये फिर मृदा में आ जाते हैं, जहाँ पर उपस्थित डीनाइट्रीफाइंग जीवाणु उन्हें फिर नाइट्रोजन में बदल देते हैं ये मुक्त नाइट्रोजन वायुमण्डल में एक बार फिर मिल जाती हैं। इस प्रकार चक्र चलता रहता है (चित्र)।
नाइट्रीकरण (Nitrification)
अमोनिया के ऑक्सीकरण के कारण नाइट्रेट बनती है। इस क्रिया को नाइट्रीकरण (nitrification) कहते हैं। यह क्रिया स्वपोषी (autotrophic) जीवाणु नाइट्रोसोमोनास तथा नाइट्रोबैक्टर द्वारा सम्पन्न होती है। पादपों में उपापचयी क्रियाओं के लिए ऊर्जा का प्रबन्ध इस क्रिया से होता है। यह क्रिया दो चरणों में पूर्ण होती है
(1) अमोनिया का नाइट्राइट में ऑक्सीकरण नाइट्रोसोमोनास (Nitrosomonas) जीवाणु द्वारा।
उसमें तीव्र वृद्धि होती है, परन्तु उसी समय उसके शुष्क भार में कमी आ जाती है क्योंकि पौधा लम्बाई में संचित भोजन का उपयोग करके वृद्धि करता है।
विभिन्न विधियों से वृद्धि को मापा जा सकता है-
(1) प्रत्यक्ष विधि (Direct method)—इस विधि द्वारा वृद्धि करने वाले अंग पर चिह्न लगाकर समय के अन्तराल पर स्केल से मापा जाता है और विशिष्ट समय पर हुई वृद्धि का पता लगाया जाता है।
(2) आर्क वृद्धिमापी (Arc auxanometer)-इस यन्त्र में एक छोटी घिरीं से लम्बा सूचक (pointer) लगा रहता है। यह सूचक चाप (arc) के आकार की प्लेट पर घूमता है। घिरौं के ऊपर एक मजबत धागा दोनों और लटका रहता है। धागे का एक सिरा पौधे से तथा दूसरा भार से बाँधते हैं ताकि धागा तना रहे। जैसे-जैसे पौधा वृद्धि करता है सूचक चाप पर चलेगा और पौधे की बढ़ोत्तरी नापी जा सकती है। सही लम्बाई नापने के लिए निम्न सून का प्रयोग करते हैं (चित्र A)।
पॉइन्टर द्वारा चली गई दूरी x घिरीं की त्रिज्या (घिरीं के केन्द्र से पॉइन्टर द्वारा नापी गई लम्बाई)
(3) क्षैतिज सूक्ष्मदर्शक यन्त्र (Horizontal microscope)-इस सूक्ष्मदर्शी को बहुत पास से पौधे के एक विशेष क्षेत्र में फोकस (focus) कर देते हैं। तने में वृद्धि के साथ चिह्न ऊपर उठता है। कुछ समय बाद क्षैतिज सूक्ष्मदर्शी को फिर चिह्न पर फोकस करने के लिए ऊपर उठाना होगा। इससे लम्बाई में वृद्धि का पता चलता है (चित्र B)
(4) फेफर का ऑक्सेनोमीटर (Pfeffer’s auxanometer)-इसमें दो घिर्रियाँ होती र एक बड़ी तथा एक छोटी। छोटी घिरौं एक धुरी से बड़ी घिरीं से जुड़ी रहती है। छोटी घिरीं को भाग क सिरे से पौधे को बाँध देते हैं। दूसरे सिरे पर धागे से भार लटकाते हैं। इसी प्रकार बड़ी घिरा के धागे के दोनों सिरों पर थोड़े से भार लटकाते हैं। बीच में एक सूचक को एक बेलन के सम्पर्क में रखते हैं। इस बेलन पर कालिख लगा दी जाती है। जैसे-जैसे वृद्धि होती है सचक के चारों ओर लगे कागज पर घूमता है और वृद्धि ग्राफ बनता है (चित्र)।
प्रश्न 7 – वृद्धि क्रम, वृद्धि दर तथा वृद्धि के कारण की व्याख्या कीजिए।
उत्तर – वृद्धि के चरण अथवा वृद्धि क्रम
(Steps of Growth or Course of Growth)
समय के सापेक्ष वृद्धि को नापने के लिए जीव के किसी भी अंग की वृद्धि को कोशिका तन्त्र अथवा अलग-अलग जीवों के समूह को ग्राफ के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है। वृद्धि के मुख्यत: चार चरण होते हैं-
(1) प्रारम्भिक लेग फेस (Initial lag phase)
(2) लॉग फेस (Log phase)
(3) डिक्लाइन फेस (Decline phase)
(4) सेनेसेन्ट फेस (Senescent phase)
लॉग फेस (Log phase) को सेच (Sachs) के अनुसार समग्र वृद्धि काल (Grand period of growth) भी कहते हैं।
वृद्धि दर (Rate of Growth)
समय की प्रति इकाई के दौरान बढ़ी हुई वृद्धि को वृद्धि दर कहते हैं। वृद्धि दर को गणितीय तरीके से व्यक्त किया जा सकता है। एक जीव अथवा उसके अंग विभिन्न विधियों से अधिक कोशिकाएँ पैदा कर सकते हैं-
1. अंकगणितीय वृद्धि (Mathematical growth)-समसूत्री विभाजन के पश्चात् केवल एक पत्री कोशिका लगातार विभाजन करती है, जबकि दूसरी विभेदित व परिपक्व होती है। अंकगणितीय वृद्धि एक सरलतम वृद्धि है जिसे हम निश्चित दर पर दीर्धीकृत
जीवित प्रणाली से वृद्धि के मध्य मात्रात्मक तलना दो विधियों से करते हैं-
(1) सम्पूर्ण वृद्धि दर (Absolute growth rate)-जीव अथवा उसके दो अंगों में 3 पाछ म बढ़ोतरी का मापन तथा पूर्ण वृद्धि प्रति इकाई समय की तुलना सम्पर्ण वृद्धि कहलाती है।
(ii) सापेक्ष वृद्धि दर (Relative growth rate)-दा गइ प्रणाल इकाई समय पर वृद्धि को सामान्य आधार पर मापना तब उसे सापेक्ष वृद्धि दर कहते हैं।
उदाहरण के लिए प्रति युनिट प्रारम्भिक मापदण्ड अथवा पैमाइश को सापेक्ष वृद्धि दर कहते हैं।
वृद्धि के कारण (Factors of Growth)
वृद्धि को मुख्यतः पोषक तत्त्व, जल, ऑक्सीजन आदि प्रभावित करते हैं। जल एक सार्वत्रिक माध्यम है इसकी उपलब्धता से ही शरीर के कार्य सम्पन्न हो सकते हैं। पादप कोशिकाएँ आकार में वृद्धि करती हैं। सभी जैविक क्रियाओं के लिए उपभोगी विकर जल के माध्यम में ही कार्य कर सकते हैं। उपापचयी क्रियाओं से ऑक्सीजन मुक्त होती है।
स्थूल व सूक्ष्म पोषक तत्त्व जीवद्रव्य के संश्लेषण व मुख्य ऊर्जा स्रोतों के रूप में कार्य करते हैं।
इसके अतिरिक्त एक विशिष्ट ताप पर ही वृद्धि की क्रिया होती है। यह पौधे पर निर्भर है। अधिक या न्यून ताप से वृद्धि की हानि होती है। यह उत्तरजीविता के लिए भी हानिकारक है।
कुछ पौधे की वृद्धि पर प्रकाश व गुरुत्वाकर्षण भी प्रभाव डालते हैं।
प्रश्न 8 – फोटोमोर्कोजेनेसिस पर लेख लिखिए।
उत्तर – फोटोमोफोजेनेसिस (Photomorphogenesis) –
पौधे के जीवन में प्रकाश का बहुत महत्त्व है। यह केवल प्रकाश संश्लेषण के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है। यदि कोई बीज अंधेरे में अंकुरित होता है तो वह लम्बा व पीला (etiolated) होता है, जबकि प्रकाश में अंकुरित बीज हरा होता है। प्रकाश पर आधारित अनेक उपापचयी क्रियाएँ हैं। यदि अंधेरे से इस नवोद्भिद् को प्रकाश में रख दें तो तुरन्त प्रकाश का असर दिखाई देता है अर्थात् प्रकाश द्वारा नवोद्भिद् को ऐसा कोई सिग्नल मिलता है जिससे कोई विशेष पदार्थ सक्रिय हो जाता है और वह नवोद्भिद् पुनः सामान्य हो जाता है। इसके लिए प्रकाश संश्लेषण उत्तरदायी नहीं है क्योंकि इस समय इस नवोद्भिद् में क्लोरोफिल नहीं बनता है।
अत: तीव्र गति से विभिन्न प्रकार के प्रकाश से प्रेरित परिवर्तन को फोटोमॉर्पोजेनेसिस (photomorphogenesis) कहते हैं। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्णक जो फोटोमोफोजेनेसिस को प्रभावित करते हैं वो लाल व नीले प्रकाश को अवशोषित करते हैं। नीले प्रकाश को अवशोषित करने वाले वर्णक प्रकाश अनुवर्तन को प्रभावित करते हैं। परन्तु लाल प्रकाश को प्रभावित करने वाले प्रोटीन के वर्णक को फाइटोक्रोम (phytochrome) कहते हैं तथा वह दीप्तिकाल को प्रभावित करते हैं।
फाइटोक्रोम नीला बाइलोप्रोटीन (bluish biloprotien) है जो दो अन्तर्परिवर्तित (bluish biloprotien) जो दो अन्तर्परिवर्तित (interconvertible) रूपों में मिलता है। Pr जो प्रकाश को अवशोषित करता है तथा Pfr में न जाता है। PHP रूप में यह परा.लाल (far-Red light). किरणों को अवशोषित कर फिर
बीज प्रसुप्ति के कारण (Caused of Seed Dormancy)
बीज प्रसुप्ति निम्नलिखित में से किसी एक अथवा अनेक कारणों से होती है_
- बीज कवचों की पानी के लिए अपारगम्यता (Impermeability of Seed Coat to Water)-अनेक कुलों (e.g. Malvaceae, Fabaceae) के पौधों को जब उचित तापक्रम, पानी आदि की अवस्था में अंकरित किया जाता है, तब ये अंकरित होने में असमर्थ रहते हैं क्योंकि इनका बीज कवच पानी को बीज के अन्दर प्रविष्ट नहीं होने देता।
- सख्त बीज कवच की उपस्थिति (Presence of Hard Seed Coat)-सरसों, अमारन्थस आदि पौधों के बीजों के ऊपर बहत सख्त बीज कवच होता है। ये बीज कवच भ्रण (embryo) को बढ़ने से रोकते हैं।
- बीज कवचों की ऑक्सीजन के लिए अपारगम्यता (Impermeability of Seed Coats to Oxygen)-जैन्थियम तथा अनेक अन्य पौधों के बीजों का बीज कवच ऑक्सीजन के लिए अपारगम्य (impermeable) होता है। यह. बीज की प्रसुप्ति का एक मुख्य कारण है।
- बीजों में अविकसित भ्रूण की उपस्थिति (Presence of Rudimentary Embryos in Seeds),—इस अवस्था में बीज उस समय तक सुप्त रहता है जब तक कि बीज में भ्रूण का विकास पूर्ण न हो जाए।
- प्रसुप्त भ्रूण (Dormant Embryo)-आडू, सेब आदि के बीजों में भ्रूण काफी समय तक प्रसुप्त रहता है। इसलिए इनके बीज भी प्रसुप्त (dormant) अवस्था में रहते हैं।
प्रसुप्ति दूर करने की विधियाँ (Methods of Breaking Dormancy),
- बीजों की प्रसुप्ति को नष्ट करने की कुछ प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं_
- बीज कवच को खुरचकर (Sclarification of Seed Coat)-सख्त बीज कवच वाले बीजों की प्रसुप्ति को दूर करने के लिए चाकू द्वारा उन्हें खुरचा जाता है, लेकिन ऐसा करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि बीजों का भ्रूण चोटिल (injured) न हो। कभी-कभी ऐसे बीजों को अम्लों (HCl अथवा HASO) से भी उपचारित किया जाता है।
- शीत उपचार द्वारा (By Low Temperature Treatment)-कुछ पौधों के । बीजों की प्रसुप्ति को दूर करने के लिए उन्हें कम तापमान (low temperature) जैसे 0°C से 6°C पर रखा जाता है।
- तापमानों के एकान्तरण द्वारा (By Alternating Temperatures)-अनेक पौधों के बीजों की प्रसुप्ति उनके तापमानों में एकान्तरण द्वारा दूर हो जाती है। इस विधि में बीजों को पहले 20°C पर लगभग 15 घण्टे तक तथा 30°C पर लगभग 8 घण्टे तक रखा जाता है। इस तापमान एकान्तरण के कारण बीजों में वात विनिमय (gaseous exchange) आसान हो जाता है।
- प्रकाश द्वारा (By Light)-तम्बाकू तथा कुछ अन्य पौधों के बीजों को कुछ समय के लिए सूर्य के प्रकाश में रखने से भी उनमें प्रसुप्ति दूर की जा सकती है।
प्रश्न 10 – ऐब्सिसिक एसिड पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
उत्तर – ऐब्सिसिक एसिड (Abscisic Acid, ABA)
सन 1965 में केर्न्स तथा एडीकोट (Cairns and Addicott) ने कपास में से एक ऐसा पदार्थ निकाला जो विलगन (abscission) के लिए उत्तरदायी था। उसका नाम उन्होंने
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