Bsc 2nd Year Botany VI Plant Physiology And Biochemistry Short Notes

Bsc 2nd Year Botany VI Plant Physiology And Biochemistry Notes :-

 

Paper III : Plant Physiology and Biochemisty.

UNIT-I: 

Plant and water relationship, colligative properties of water. Water uptake, conduction, transpiration, mechanism and its regulation by environmental variables. Mineral Nutrition : Macro and micronutrients, their role, deficieny and toxicity, symptoms, plant culture practices, mechanism of ion uptake and translocation.

UNIT-II :

Photosynthesis and Chemosynthesis : Photosynthetic pigments, 02 evolution, photophosphorylation. CO2 fixation : C3, C4 and CAM plants. Respiration : Aerobic and anaerobic respiration, respiratory pathways glycolysis, Krebs’ cycle, electron transport, oxidative phosphorylation, pentose phosphate pathway, photorespiration, cyanide resistant respiration. Lipid biosynthesis and its oxidation.

UNIT-III :

Nitrogen Metabolism : Atmospheric nitrogen fixation,

nitrogen cycle, nitrogen assimilation, Growths, general aspects of phytohormones, inhibitors auxins, kinetin, gibberellins and ethylene : action and their application; photoperiodism and vernalization. Germination, growth movements, abscission and senescence.

UNIT-IV :

Biomolecules : Classification, properties and biological role of carbohydrates, protein and lipids. Chemistry of nucleic acids, vitamins Discovery and nomenclature. Characteristics of enzymes, concepts of holoenzyme, apoenzyme, coenzyme and cofactorsRegulation of enzyme activity, Mechanism of action. Bioenergetics : Laws of thermodynamics, concept of Gibbs free energy and high energy compounds.

प्रश्न 2 – प्रकाश-फॉस्फेटीकरण पर टिप्पणी लिखिए। 

उत्तर – पर प्रकाश-फॉस्फेटीकरण

(Photophosphorylation) 

प्रकाश संश्लेषण के लिए प्रकाशीय ऊर्जा का अवशोषण हरितलवकों में उपस्थित पर्णहरित द्वारा होता है। यह ऊर्जा प्रकाश रासायनिक क्रिया (photochemical reaction) में ADP द्वारा उच्च ऊर्जा बन्ध (high energy bonds) के रूप में एकत्र की जाती है। इस प्रकार प्रकाशीय ऊर्जा के उपयोग से ATP (एडीनोसीन ट्राइफॉस्फेट) के संश्लेषण को आर्नन Arnon) ने फोटोसिन्थेटिक फॉस्फोराइलेशन (photosynthetic phosphorylation) कहा तथा ATP को प्रकाश संश्लेषण की स्वांगीकरण शक्ति (assimilatory power) माना। यह क्रिया दो वर्णक तन्त्रों (pigment system) में उपस्थित प्रकाशकों (photo acts) के अन्तर्गत होती है। प्रकाशकर्म I में प्रकाश फॉस्फेटीकरण की क्रिया चक्रिक (cyclic) होती है तथा प्रकाशकर्म II में ये क्रियाएँ अचक्रिक (non-cyclic) होती हैं। अचक्रिक क्रिया में ATP का कम मात्रा में उत्पादन होता है, जबकि चक्रिक क्रिया में ATP का उत्पादन अधिक होता है।

प्रश्न 3 – हाइड्रोपोनिक्स क्या है? इसके प्रयोग को समझाइए।

उत्तर – जल संवर्धन प्रयोग अथवा मृदारहित संवर्धन (Hydroponics or Soilless growth) सामान्यतः पौधे वृद्धि के लिए आवश्यक सभी खनिज पोषकों (mineral nutrients) का अवशोषण मृदा से करते हैं, परन्तु पौधे सभी पोषक तत्त्वों का अवशोषण विलयन अवस्था (solution state) में भी सरलतापूर्वक कर सकते हैं। पौधों को

ऐसे जल में उगाना सम्भव है, जिसमें वृद्धि के लिए आवश्यक सभी खनिज लवण पी में उपस्थित हों तथा पौधे के वायवीय भागों (aerial parts) को उचित मात्रा में वाय का प्रकाश प्राप्त होता रहे। इस प्रकार, पौधे की जड़ों को पोषक पदार्थयुक्त विलयन में पादप संवर्धन (plant cultivation) की क्रिया हाइड्रोपोनिक्स (hydroponi कहलाती है (चित्र)। संवर्धन की इस विधि में पादपों को मृदारहित शुद्ध विलयनों में 3 जाता है तथा पादप की जड़ों को सहारा प्रदान करने हेतु विलयन अर्थात् जल में मृदा के सी पर क्वार्ट्स, प्लास्टिक की छोटी-छोटी गोलियाँ या वर्मिकुलाइट का प्रयोग किया जाता है। पोषक विलयन में वायु संचार की व्यवस्था द्वारा ऑक्सीजन की आपूर्ति बनी रहती है। समय-समय पर विलयन में विभिन्न पोषक तत्त्व तथा pH नियन्त्रित करते हैं। जल संवर्धन की यह तकनीक टमाटर, गाजर तथा गुलाब के पौधों में सफल रही है।

हाइड्रोपोनिक्स (hydroponix) के अन्तर्गत बीज का ऐसे जलीय विलयन में संवर्धन किया जाता है, जिसमें खनिज पोषक तत्त्व उचित अनुपात में उपस्थित हों। संवर्धन माध्यम में एक भी आवश्यक तत्त्व की कमी पौधे की वृद्धि को प्रभावित करती है। तत्त्व की कमी के लक्षण प्रत्यक्ष रूप से देखे जा सकते हैं तथा कमी के ये लक्षण प्रत्येक जाति के पौधों में भिन्न-भिन्न

प्रश्न 4 – विसरण पर टिप्पणी लिखिए। – 

उत्तर – विसरण (Diffusion)-यदि एक कमरे के एक कोने में एक गैस से भरी हुई बोतल खोल दी जाए तो गैस के अणु पूरे कमरे में बराबर रूप से फैल जाते हैं। उच्च सान्द्रता से निम्न सान्द्रता की ओर अणुओं के इस तरह फैल जाने की क्रिया को विसरण (Diffusion) कहते हैं। फैलने वाले अणुओं में एक निश्चित तरह का दबाव होता है जिसे विसरण दाब (diffusion pressure) कहते हैं। ताप के बढ़ने से विसरण की दर बढ़ जाती है। विसरण दाब के बढ़ने से भी यह क्रिया बढ़ती है। विसरित अणुओं के घनत्व के कम होने से भी विसरण की क्रिया बढ़ती जाती है। पौधों में गैसों का आवागमन विसरण का एक अच्छा उदाहरण है। इस क्रिया में किसी प्रकार की झिल्ली की आवश्यकता नहीं होती है।

प्रश्न 5 – पादप हॉर्मोन क्या है तथा उनका पादप वृद्धि पर प्रभाव क्या पड़ता है?

उत्तर – पादप हॉर्मोन अथवा फाइटोहॉर्मोन वृद्धि को संचालित करने वाले कार्बनिक पदार्थ हैं जो पौधों के विभज्योतक द्वारा संश्लेषित होते हैं। 

पादप हॉर्मोन की खोज सर्वप्रथम जॉन वॉन सैच्स (John Von Sachs, 1900) की तथा इन्हें वृद्धिकारक बताया। पादप हॉर्मोन वृद्धिकारक जैसे ऑक्सिन व जिबरेलिन । वृद्धिरोधक जैसे ऐब्सिसिक अम्ल आदि होते हैं। कुछ कृत्रिम रासायनिक वृद्धि नियन्त्रक पा में उपलब्ध हैं; जैसे-2, 4-D, IAA तथा NAA आदि।

पादप वृद्धि पर हॉर्मोन का प्रभाव

(Effect of Hormones on Plant’s Growth) 

पादप वृद्धि समस्त जैविक क्रियाओं का अन्तिम परिणाम है। वृद्धि विभिन्न प्रकार से मापी जाती है। जैसे-आमाप में वृद्धि (लम्बाई, चौड़ाई), मात्रा में वृद्धि (भार) तथा संख्या में वृद्धि (विभाजन) आदि।

वद्धि तीन प्रमख चरणों में होती है-(a) प्ररोह तथा जड के शीर्षस्थ विभज्योतकों की कोशिकाएँ निरन्तर विभाजित होती रहती हैं। इसके फलस्वरूप कोशिकाओं की संख्या में वृद्धि होती है। इनमें सघन कोशाद्रव्य तथा स्पष्ट केन्द्रक पाया जाता है। कोशिकाओं में रिक्तिकाएँ (vacuoles) नहीं होती।

(b) कोशिकाओं की विवर्धन प्रावस्था में कोशिका विभाजन के फलस्वरूप बनी कोशिकाओं में अनेक छोटी-छोटी रिक्तिकाएँ बन जाती हैं। अन्त में ये सभी रिक्तिकाएँ परस्पर मिलकर केन्द्रीय रिक्तिका बनाती हैं।

(c) कोशिकाओं की परिपक्वता प्रावस्था में कोशिका एक निश्चित आकार आकृति ग्रहण कर लेती है। इनकी कोशाभित्ति दृढ़ हो जाती है।

पादप हॉर्मोन्स-विभज्योतकी कोशिकाओं में संश्लेषित होकर दूसरे अंगों में पहुंचकर वृद्धि तथा उपापचयी क्रियाओं को प्रभावित एवं नियन्त्रित करते हैं। पादप हॉर्मोन्स कोशिका विभाजन तथा कोशिका दीर्धीकरण को प्रेरित करते हैं। ऑक्सिन की सान्द्रता प्ररोह कोशिकाओं दीर्धीकरण को प्रेरित करती है तो मूल कोशिकाओं में इनकी सान्द्रता वृद्धि का संदमन करती है।

प्रश्न 6-क्रोमैटोग्राफी पर टिप्पणी लिखिए। 

उत्तर – क्रोमैटोग्राफी (Chromatography) 

रुंगे (1850) ने ब्लॉटिंग पेपर पर एक रंग की बँद लगाकर विभिन्न रंगों को अलग-अलग किया लेकिन इसका विस्तार का तरीका टवैट (Twett) नामक वैज्ञानिक ने 1906 ई० में दिया जिन्होंने पौधे के विभिन्न वर्णकों (pigments) को अलग-अलग किया। प्रत्येक absorbed तत्त्व को absorbate कहते हैं। ये ब्लॉटिंग पेपर पर अलग-अलग solvents में अलग-अलग bands के रूप में अलग होते हैं। विभिन्न प्रकार की क्रोमैटोग्राफी निम्नलिखित होती है

(i) पेपर क्रोमैटोग्राफी, 

(ii) थिन लेयर क्रोमैटोग्राफी (T.L.C.),

(iii) गैस क्रोमैटोग्राफी,

(iv) आयन-एक्सचेंज क्रोमैटोग्राफी, 

(v) कॉलम क्रोमैटोग्राफी।

इनमें से सबसे मुख्य T.L.C. है।

थिन लेयर क्रोमैटोग्राफी (T.L.C.)-इसमें एक कांच की स्लाइड के ऊपर जेल की परत जमा ली जाती है। स्लाइड के एक तरफ अलग-अलग रंगों का मिश्रण लगा जाता है। फिर इस स्लाइड को solvent में रख दिया जाता है। इस पर अलग-अलग वर्ग अलग-अलग ऊँचाई पर अलग होते हैं।

प्रश्न 7 – विभेदन, निर्विभेदन तथा पुनर्विभेदन पर टिप्पणी लिखिए। 

उत्तर – विभेदन, निर्विभेदन तथा पुनर्विभेदन

(Differentiation, Dedifferentiation and Redifferentiation)

पादपों में कुछ विशिष्ट कोशिकाएँ ही विभाजन की क्षमता रखती हैं तथा विभज्योतक (meristematic tissue) में मिलती हैं। प्ररोह शिखाग्र विभज्योतक (Shoot aper meristem) तथा कैम्बियम (cambium) की कोशिकाएँ ही विभाजन की क्षमता रखती हैं। मूलाग्र विभज्योतक (root apex meristem) पौधे को नीचे की ओर लम्बाई में वृद्धि प्रदान करता है।

विभेदन (Differentiation)

सर्वप्रथम विभाजित होकर बनने वाली सभी पुत्री कोशिकाएँ समान होती हैं, परन्तु बाद में उनमें विकास से पूर्व विभेदन (differentiation) होता है जिससे वे कार्य, आकार व आमाप में विशिष्ट हो जाती हैं। इस क्रिया को जो परिपक्वता की ओर कोशिका को ले जाता है विभेदन कहते हैं। कोशिका भित्ति व जीवद्रव्य दोनों में ही संरचनात्मक परिवर्तन होते हैं। जैसे जाइलम की वाहिका अथवा वाहिनिका में परिपक्व होते समय जीवंद्रव्य नष्ट हो जाता है तथा कोशिका भित्ति सुदृढ़, सुतान्य व लिग्नोसेल्युलोसिक हो जाती है।

इस द्वितीयक कोशिका भित्ति की दृढ़ता व संरचनात्मक विशेषता के फलस्वरूप यह जल । को गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विरुद्ध भी ऊपर खींचने में सक्षम होती है। 

निर्विभेदन (Dedifferentiation).

कुछ जीवित विभेदित कोशिकाएँ विशेष परिस्थितियों में विभाजन की क्षमता पुन: प्राप्त कर लेती हैं। इस क्रिया को निर्विभेदन कहते हैं। जैसे अन्तरापूलीय वाहिकी कैम्बियम (interfescicular cambium) एवं कॉर्क कैम्बियम (cork cambium)। 

पुनर्विभेदन (Redifferentiation)

निर्विभेदन कोशिकाओं अथवा ऊतकों द्वारा विभाजन के पश्चात् बनी कोशिका में पुनर्विभेदन (redifferentiation) होता है जिससे वह कोशिका/ऊतक विशिष्ट कार्य के अनुरूप विकसित होता है।

पौधों में वृद्धि असीमित होती है उसी प्रकार विभेदन भी असीमित होता है। विभज्योतक से उत्पन्न, ऊतक/कोशिकाएँ विभिन्न प्रकार की संरचनाओं में विकसित होती हैं। यह मुख्यतः परिपक्वता के समय अन्तिम संरचना कोशिका के आन्तरिक स्थान पर निर्भर होता है। जो शिखाग्र विभज्योतक से दूरस्थ कोशिका मूल गोप (root cap) के रूप में विभेदित होती है।

प्रश्न 8 – टिप्पणी लिखिए-

(अ) बालू-संवर्धन 

(ब) वायव संवर्धन 

(स) आइसोएन्जाइम।

उत्तर – (अ) बालू-संवर्धन (Sand Culture)-इस प्रयोग में पौधे मिट्टी के स्थान पर रेत में उगाए जाते हैं। इसमें पोषक माध्यम (nutrient medium) इसी में दिया जाता है। इस प्रकार के संवर्धन को जल-संवर्धन से अधिक अच्छा माना गया है क्योंकि इसमें रेत होने से । सूखापन रहता है और वायु का संचरण अच्छा होता है।

(ब) वायव संवर्धन (Aeroponics) – इस प्रयोग में पौधों को इस तरह उगाया जाता है कि उनकी जड़ें पानी में रहती हैं। जड़ों पर पोषक खनिज विलयन अच्छी तरह से छिड़का ” जाता है तथा शेष पोषक माध्यम बर्तन के तल पर रखा जाता है। इस प्रकार का प्रयोग जोबेल आदि (Zobel et al) ने 1976 ई० में सफलतापूर्वक नींबू तथा जैतून (Citrus and Olive) के पौधों पर किया था। इसमें जड़ों में अच्छी वृद्धि मिलती है।

(स) आइसोएन्जाइम (Isoenzyme) – दो या अधिक विभिन्न प्रकार के अण्ड मिलकर एक ही विकर बनाते हैं। ऐसे एन्जाइम के भौतिक व रासायनिक गुणों में अन्तर होता है। आइसोएन्जाइम एक-दूसरे से विद्युत आवेश (electrical charge) में अन्तर वाले होते हैं। अतः इन्हें इलेक्ट्रोफोरेसिस (electrophoresis) से पृथक् किया जा सकता है। आइसोएन्जाइम उत्क्रमणीय अभिक्रियाओं (reversible reactions) का उत्प्रेरण करते हैं अर्थात् इनके एक प्रकार के एन्जाइम, अभिक्रिया का एक दिशा में उत्प्रेरण (catalyse) करते हैं। इसी एन्जाइम का दूसरा रूप इस अभिक्रिया का विपरीत दिशा में उत्प्रेरण करता है।

प्रश्न 9 – सूक्ष्मजीवों की नाइट्रोजन चक्र में भूमिका को तालिका के रूप में प्रदर्शित कीजिए। — 

उत्तर – तालिका : सूक्ष्मजीवों की नाइट्रोजन चक्र में भूमिका

उत्तर- (1) पानी के अवशोषण को प्रभावित करने वाले कारक 

निम्नलिखित कारक पानी के अवशोषण को प्रभावित करते हैं-

(i) भूमि का तापक्रम (soil temperature), 

(ii) भूमि की वायु (soil air), 

(iii) भूमि का पानी (soil water), 

(iv) भूमि में लवणों की सान्द्रता (concentration of mineral salts)।

(2) विसरण दाब न्यूनता अथवा DPD 

डी०पी०डी० (Diffusion Pressure Deficit)-इसे डिफ्यूजन प्रेशर डेफिसिट (Diffusion Pressure Deficit) भी कहते हैं। किसी भी शुद्ध विलायक (pure solvent)

का विसरण दाब (diffusion pressure) सदैव इसके solution के दाब से बड़ा होता है। किसी भी निश्चित ताप तथा अन्य दशाओं में एक विलयन (solution) तथा विलायक (solvent) के विसरण दाब के अन्तर को Diffusion Pressure Deficit (D.P.D.) कहते हैं। 

Diffusion Pressure Deficit = Osmotic Pressure (O.P.) – Wall Pressure

(3) वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारक 

वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं

(i) हवा में नमी। 

(ii) वातावरण का तापमान। 

(iii) हवा की गति। 

(iv) प्रकाश की अवधि तथा दिशा। 

(v) वातावरण का दाब। (

  1. vi) जमीन में उपलब्ध पानी। 

(vii) रन्ध्रों की बहुतायतता। 

प्रश्न 13 वसा के विश्लेषण पर टिप्पणी लिखिए। 

उत्तर–वसा का विश्लेषण निम्नलिखित प्रकार से किया जाता है-

  1. अम्ल संख्या (Acid Number)-1 ग्राम वसा को उदासीन करने के लिए KOH की मिलीग्राम मात्रा जिससे वसा में मुक्त वसा अम्ल की मात्रा को ज्ञात करते हैं, अम्ल संख्या कहलाती है।
  2. आयोडीन संख्या (Iodine Number)-100 ग्राम वसा द्वारा अवशोषित आयोडीन का ग्राम में भाग है जिससे वसा में असंतृप्त वसीय तेल का पता चलता है।
  3. साबुनीकरण संख्या (Saponification Number)-1 ग्राम वसा के पूर्ण साबुनीकरण के लिए आवश्यक KOH की मात्रा (मिग्रा में) को साबुनीकरण संख्या कहते हैं। अधिक अणु भार के वसीय अम्लों की उपस्थिति से साबुनीकरण संख्या कम होती है।

4.रीकर्ट-मीसल संख्या (Reichert-Meissel Number)-वसा के ज्ञात भारं का साबुनीकरण करके मुक्त साबुन को वसा में परिवर्तित करते हैं। वसीय अम्लों को भाप द्वारा,

आसवन से (वाष्पशील अम्ल) अलग करते हैं। 5 ग्राम वसा से प्राप्त वाष्पशील वसा उदासीन करने के लिए आवश्यक NaOH अथवा KOH की मात्रा रीकर्ट-मीसन कहलाती है। रीकर्ट-मीसल संख्या से वसा के ग्लिसरॉइड में उपस्थित वाष्पशील व मात्रा का पता चलता है।

प्रश्न 14 – माइकेलिस स्थिरांक पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-माइकेलिस स्थिरांक (Michaelis Constant)-क्रियाधार की वह साल जिस पर अभिक्रिया की गति अधिकतम गति की आधी होती है, माइकेलिस लि कहलाती है। माइकेलिस स्थिरांक (Michaelis constant) को Km से दर्शाया जाता है। किसी भी विकर के लिए माइकेलिस स्थिरांक क्रियाधार के अनुसार अलग-अलग होता है।

प्रश्न 15–परासरण विभव तथा जल विभव पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-परासरण विभव (Osmotic Potential)—परासरण दाब (Osmotic pressure) को एटमोस्फीयर (atmosphere) में नापते हैं। यह विलेय (solute) के अणुओं के अनुक्रमानुपाती (directly proportional) होता है। अत: विलेय की मात्रा बढ़ाने से परासरण दाब बढ़ता है। शुद्ध विलायक से विलयन का परासरण दाब सदैव आध होता है। चूंकि दाब केवल तब उत्पन्न होता है जब इन्हें झिल्ली द्वारा पृथक् करते हैं, इसलिए इस दाब को परासरण दाब न कहकर परासरण विभव (osmotic potential) कहते हैं।

परासरण दाब = – परासरण विभव (-) • 

परासरण विभव को ऋण (-) चिह्न से दर्शाते हैं क्योंकि यह हमेशा 1 से कम होता है। शुद्ध जल का परासरण विभव ‘1’ atm होता है।

जल विभव (Water Potential)-नई पद्धति के अनुसार अब पानी की गति क ऊर्जा में ऊष्मागतिक (thermodynamics) नियमों के अनुसार बताते हैं।

इसके अनुसार विसरण दाब न्यूनता (DPD) को जल विभव (water potential) कहते हैं। इसे … में अंकित करते हैं। परासरण दाब (OP) को विलेय विभव अथवा परासरण विभव (solute potential or osmotic potential) तथा स्प (turgor pressure) का दाब विभव (pressure potential) कहते है।

प्रश्न 16 – विकर की त्रिविमीय संरचना लिखिए।

उत्तर – विकर की त्रिविमीय संरचना (Three Dimensional Structure of Enzyme)-विकर की त्रिविमीय संरचना का अध्ययन एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी (X-Ray Crystallography) द्वारा किया जा सकता है।

उदाहरण—रिबोन्यूक्लिएज (Ribonuclease)-यह गुर्दे की आकृति का अणु है जिसकी विमाएँ (dimensions) 3.2, 2.8 तथा 2.8 नैनोमीटर हैं। यह 124 ऐमीनो अम्ल,

अवशिष्टों की एकल पॉलिपेप्टाइड श्रृंखला से निर्मित होता है। इसके N-अन्त्यस्थ EN-terminal) पर लाइसीन तथा C-अन्त्यस्थ (C-terminal) पर वेलीन होता है। इसका अणु भार 14000 डाल्टन है। इसमें 8 सिस्टीन के अणु-26-84, 40-95, 58-110 तथा 1 65-72 हैं जो ऐमीनो अम्ल के मध्य 4 डाइसल्फाइड बन्ध बनाते हैं। इसकी कुण्डली में 4 मोड़ होते हैं। दो मोड़ 5-12 तथा दो अन्य मोड़ 28-35 वें अवशिष्ट के मध्य होते हैं। सक्रिय स्थल (active site) एक मोड़ (fold) के मध्य में बना होता है। सक्रिय स्थल बनाने वाले अवशिष्ट हैं 6-8, 11, 12, 41, 42, 46-48 तथा 117-119। विकर के सक्रिय स्थल से एक फॉस्फेट आयन सीधे ही संयोजित होता है। सन् 1960 में हिर्स, मूर तथा स्टाइन ने इस संरचना के विषय में जानकारी प्रदान की।

प्रश्न 17 – टिप्पणी लिखिए-

(1) आयोडीन नम्बर 

(2) वसा व स्टेरॉयड।

उत्तर – (1) आयोडीन नम्बर (Iodine Number)-100 ग्राम वसा आयोडीन के जितने ग्राम को सोखती है, वह उसका आयोडीन नम्बर होता है। किसी दिए हुए तेल का आयोडीन नम्बर पता लगाने के लिए करीब 10 मिली तेल का स्टॉक घोल लेकर उसमें 25 मिली पिरिडीन सल्फेट डाइब्रोमाइड मिलाते हैं। लगभग पाँच मिनट तक प्रतीक्षा करने के बाद इसमें 10 मिली पोटैशियम आयोडाइंड मिलाकर रेजिडुअल ब्रोमीन का पता लगाया जाता है। इसमें 2 मिली स्टार्च का घोल मिलाने से नीला रंग हो जाता है। इसे titrate करते हैं। 25 मिली पिरिडीन सल्फेट डाइब्रोमाइड रिएजेंट को 0.1 N सोडियम थायोसल्फेट के विरुद्ध रखकर भी titrate करते हैं। जब नीला रंग बिल्कुल समाप्त हो जाता है, तब रीडिंग ले लेते हैं। इससे गणना करके आयोडीन नम्बर निकाला जाता है।

(2) वसा व स्टेरॉयड

वसा (Fats)-ये ग्लिसरॉल (glycerol) तथा वसीय अम्ल (fatty acid) के एस्टर (esters) हैं। सामान्य ताप पर ये ठोस होते हैं। ये सरल लिपिड्स हैं।

स्टेरॉयड (Steroids) – ये व्युत्पन्न लिपिड्स (derivative lipids) हैं। ये कार्बनिक विलायक में ही घुलनशील होते हैं। ये साइक्लोपेन्टोन परथाइराइडो फिनान्थ्रीन वलय (cyclopentane perthyrydo phenanthrene) के व्युत्पन्न होते हैं। इन्हें स्टेरेन (sterane) भी कहते हैं। जैसे—फर्गोस्टेरॉल, कोलेस्टेरॉल आदि।

 

प्रश्न 19-सह-विकर पर टिप्पणी लिखिए। – 

उत्तर-सह-विकर (Co-enzyme)-जब अप्रोटीन भाग कार्बनिक अणु के रूप में कार्य करते हैं तो इन्हें सह-विकर कहते हैं। यदि ये अप्रोटीन भाग अकार्बनिक अणु के रूप में होते हैं तो इन्हें सहकारक (cofactor) कहते हैं। इन्हें सरलता से एपोएन्जाइम से पृथक् कर सकते हैं; जैसे – NAD, ATP, NADP.

Co~A [(Co-enzyme-A), FAD आदि)] कोएन्जाइम प्रायः उपचयक-अपचयक (oxidation-reduction) अभिक्रियाओं से सम्बन्धित विकरों में पाए जाते हैं।

प्रश्न 20-परासरण पर टिप्पणी लिखिए। 

उत्तर – परासरण (Osmosis) 

यदि एक विलयन (solution) और उसके शुद्ध विलायक (solvent) को एक ‘अर्द्धपारगम्य झिल्ली (semipermeable membrane) से अलग कर दिया जाए तो विलायक के कण विलयन की ओर चले जाते हैं। विलायक के कणों के इस तरह के विसरण की क्रिया को, जिसमें अर्द्धपारगम्य झिल्ली काम आती है, परासरण (osmosis) कहते है।

अर्द्धपारगम्य झिल्ली वह झिल्ली होती है जिसके द्वारा कछ पदार्थ विसरित हो सकते है, सभी नहीं। इसमें से विलेय (solute) या पानी में घुला हुआ पदार्थ नहीं निकल पाता।

पौधों में कोशिका भित्ति (cell wall) पारगम्य (permeable) होती है तथा प्रोटोप्लाज्मिक झिल्ली (protoplasmic membrane) अर्द्धपारगम्य होती है। अण्डे की झिल्ली. पार्चमेंट पेपर तथा बकरे की खाल का ब्लैडर एक प्रकार की अर्द्धपारगम्य झिल्लियाँ ही होती हैं। 

एक थिसिल फनल के मुँह पर बकरे की खाल की झिल्ली (goat bladder) बाघ देते हैं तथा इसे पानी से भरे बीकर में रख देते हैं। जैसा कि चित्र में दिखाया गया है। थिसिल फनल में चीनी का गाढ़ा घोल भर देते हैं तथा थिसिल फनल के घोल का तल अंकित कर लेते हैं। कुछ समय बाद देखने पर पता चलता है कि थिसिल फनल में घोल का तल बढ़ जाता है। इससे सिद्ध होता है कि बकरे की खाल की झिल्ली अर्द्धपारगम्य झिल्ली की तरह काय करती है तथा परासरण (osmosis) की क्रिया हो रही है।

प्रश्न 21 – प्रोटीन का वर्गीकरण लिखिए। 

उत्तर – प्रोटीन का वर्गीकरण (Classification of Protein) 

प्रोटीन की जटिल रचनाएँ होने के कारण इनका कोई निश्चित वर्गीकरण करना आसान नहीं है। इनकी रासायनिक रचना के आधार पर प्रोटीन को निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है –

  1. साधारण प्रोटीन (Simple Protein)—ये प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं तथा – इनके हाइड्रोलिसिस पर केवल एक -ऐमीनो अम्ल निकलता है। इनके उदाहरण हैंऐल्बुमिन, ग्लोबुलिन, प्रोलेमिन, हिस्टोन, प्रोटेमिन आदि।
  2. संयुक्त प्रोटीन (Compound Protein) – ये भी प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं। इनके हाइड्रोलिसिस पर एक अप्रोटीन समूह या प्रोस्थेटिक समूह (prosthetic group) तथा -ऐमीनो , अम्ल भी निकलता है। इनके उदाहरण हैं-न्यूक्लियोप्रोटीन, ग्लाइकोप्रोटीन, लिपोप्रोटीन, क्रोमोप्रोटीन, लेसीथोप्रोटीन आदि।
  3. व्युत्पन्न प्रोटीन (Derived Protein) प्राकृतिक प्रोटीन का आंशिक हाइड्रोलिसिस करने पर व्युत्पन्न (derived) प्रोटीन निकलते हैं। इस समूह में सिन्थेटिक पदार्थ भी आते हैं; जैसे-पेप्टाइड। इसके उदाहरण हैं-कोगुलेटिड प्रोटीन, प्रोटीएज, पेप्टोन्स (peptones) आदि।

प्रश्न 22-बिन्दुस्त्रावण, रसस्राव तथा प्रतिवाष्पोत्सर्ज़क से आप क्या समझते हैं? 

उत्तर – बिन्दुस्त्राव (Guttation) 

कुछ पौधों में पत्तियों के किनारों पर सुबह के समय द्रव बिन्दु (drop) के रूप में दिखाई देता है, इसे बिन्दुस्त्राव (guttation) कहते हैं। जब जड़ों द्वारा सक्रिय जल अवशोषण होता है, परन्तु वाष्पोत्सर्जन कम या नहीं होता है तब मूल दाब (root pressure) अधिक हो जाता है और वास्तविक घोल पत्तियों के किनारों पर उपस्थित जलरन्ध्र (hydathode) से बाहर आ जाता है। इसमें से निकलने वाला जल शुद्ध नहीं होता है बल्कि उसमें शर्करा ऐमीनो अम्ल आदि भी होते हैं। यह क्रिया गार्डन नास्टर्शियम (Tropaeolum majus), जई आदि में पायी जाती है।

रस स्राव (Exudation) 

किसी पौधे पर घाव करने से पौधे के कटे अंग से जो द्रव निकलता है, वह कोशिकार (cell sap) होता है, जल नहीं। इसे रस स्त्राव (exudation or bleeding) कहते हैं। ताडो पेड़ से एक दिन में 50 लीटर से अधिक रस निकल सकता है। इसे ही ‘ताड़ी’ कहते हैं।

प्रतिवाष्पोत्सर्जक (Antitranspirants) 

जो पदार्थ वाष्पोत्सर्जन की दर को कम करते हैं, प्रतिवाष्पोत्सर्जक (antitranspirants) कहलाते हैं; जैसे–फेनिल मयूंरिक ऐसीटेट (Phenyl mercuric acetate), ऐब्सिसिक अम्ल (Abscisic acid), ऑक्सीएथिलीन (Oxyethylene), CO2 आदि।

प्रश्न 23-तमोक्रियाशील गति पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-तमोक्रियाशील गति (Scotoactive Movement) सामान्यतः मांसलोद्भिद् (succulent) जैसे नागफनी में रन्ध्र प्रायः रात में खुलते हैं। सन्ध्या को रन्ध्र बन्द हो जाते हैं जिससे श्वसन के लिए ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। कोशिकाद्रव्य का pH अनॉक्सी श्वसन (anaerobic respiration) से कम हो जाता है। माइटोकॉण्ड्रिया के निष्क्रिय होने से अम्लता कम हो जाती है जिससे pH बढ़ता है तथा कार्बनिक अम्ल जैसे मैलिक अम्ल (malic acid) आदि बनते हैं,K+ आयन का स्थानान्तरण होता है और रन्ध्र खुल जाते हैं। रन्ध्र के खुलने से 02 का विनिमय होता है और माइटोकॉण्ड्रिया सक्रिय हो जाते हैं। * आयन के बढ़ने से कोशिकाद्रव्य की अम्लता बढ़ती है। अब pH कम हो जाता है और फिर से रन्ध्र बन्द हो जाते हैं। रात में रन्ध्र के बन्द होने तथा खुलने को तमोक्रियाशील गति (Scotoactive movement) कहते हैं।

प्रश्न 24-ऑक्सिन की रासायनिक प्रकृति पर टिप्पणी लिखिए। 

उत्तर- ऑक्सिन की रासायनिक प्रकृति

(Chemical Nature of Auxins) 

ऑक्सिन प्रायः असंतृप्त चक्रीय केन्द्रक (unsaturated cyclic nucleus) युक्त अथवा ऐसे ही पदार्थों के व्युत्पन्न (derivatives), अम्लीय पदार्थ (acidic substances) होते हैं। वेन्ट एवं उनके कुछ सहकर्मियों के अनुसार. वास्तविक ऑक्सिन हामान, इन्डोल-3-ऐसीटिक अम्ल (IAA). ही होता है। यद्यपि वर्तमान समय में 4-क्लोरोइन्डोल ऐसीटिक अम्ल (4-Chloro-Indole Acetic Acid, 4-Cl-IAA) तथा फिनाइल ऐसीटिक अम्ल (Phenyl Acetic. Acid PAA) इण्डोल ब्यूटाइरिक अम्ल (Indole Butyric Acid), a और B नैफ्थैलिन ऐसिटिक अम्ल (a. & B Napthalene Acetic Acid, NAA), 2, 4-डाइक्लोराफीनाक्सी ऐसिटिक अम्ल, (2, 4-Dichloro Phenoxy Acetic Acid, 2, 4-D) आदि रासायनिक पदार्थ भी ज्ञात हैं जिनकी क्रियाशीलता (activity), इन्डोल-3-ऐसीटिक अम्ल (IAA) से मिलती हैं अर्थात समानता दर्शाती है।

प्रश्न 25-टर्न ओवर संख्या से क्या समझते हैं? लिखिए।

उत्तर-टर्न ओवर संख्या (Turn Over Number)-क्रियाधार (substrate) के अणुओं की वह संख्या जो एक इकाई समय (unit time) में एक विकर के अणु द्वारा उत्पाद में परिवर्तित होती है, टर्न ओवर संख्या (Turn Over Number) कहलाती है। विकर किसी भी उपापचयी क्रिया को लाखों गुना तेज कर सकते हैं। कार्बोनिक एनहाइड्रेज की टर्न ओवर संख्या 3.6 x 107 होती है। इसका अर्थ है कि यह 3.6×107 CO, अणुओं को एक मिनट में HCO में परिवर्तित करता है। टर्न ओवर संख्या की इकाई कैटल (Katal) अथवा कैट (Kat) है। प्रति सेकण्ड क्रियाधार के एक मोल (mol) को उत्पाद में बदलने के लिए आवश्यक विकर की मात्रा एक कैट होती है।

प्रश्न 27 – CAM चक्र पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर – CAM चक्र (CAM Cycle) – क्रैसूलेसी (Crassulaceae) कुल के पास CO2 स्वांगीकरण पृथक विधि से करते हैं। इस कुल के पौधे ब्रायोफिलम (Bryophylunt कैलेन्चो (Kalanchoe) आदि गर्म व सूखे स्थानों पर उगते हैं। उनके रन्ध्र (stomata) रात में खुलते तथा दिन में बन्द होते हैं ताकि पानी का वाष्पोत्सर्जन कम हो। रात में Co. पनि प्रवेश करती है और मीसोफिल कोशिकाओं में पहुँचती है। यहाँ यह फॉस्फोइनोल पाइरुवेट (Phosphoenol Pyruvate, PEP) से क्रिया कर ऑक्सैलोऐसीटेट (oxaloacetates बनाती है। यह ऑक्सैलोऐसीटेट मैलेट (malate) में परिवर्तित होता है। मैलेट मीसोफिल की कोशिकाओं में उपस्थित बड़ी-बड़ी रिक्तिकाओं में आकर जमा हो जाता है। दिन के समय जन रन्ध्र बन्द होते हैं मैलेट का विकार्बोक्सीकरण (decarboxylation) होता है और Co, निकलती है। यह CO, RuBP द्वारा ग्रहण की जाती है तथा C-चक्र में प्रवेश करती है।

प्रश्न 28 – C4 – पौधों की विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर – C4 – पौधों की विशेषताएँ (Characteristics of C4-Plants)-CAचक्र अधिकतम उष्ण कटिबन्धीय पौधों में मिलता है, जैसे गन्ना (Sugarcane), ज्वार (Sorghum), चौलाई (Amaranthus), मक्का (Digitaria brownii), एट्रीप्लेक्स रोजिया (Atriplex rosea) आदि। इन पौधों में पत्ती की शारीरिकी (anatomy) विशेष प्रकार की होती है। इसको क्रेन्ज (Kranz) प्रकार (type) की शारीरिकी क़हते हैं। क्रेन्ज (Kranz) जर्मन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है- ‘माला’। पत्तियों में पर्णमध्योतक (mesophyll) खम्भ मृदूतक (palisade parenchyma) तथा स्पंजी मृदूतक (spongy parenchyma) में विभाजित नहीं होता है। खम्भ ऊतक (palisade tissue) अनुपस्थित होता है। संवहन बण्डल (vascular bundle) के चारों तरफ बण्डल शीथ (bundle sheath) मिलती है जिसकी कोशिकाओं में बड़े-बड़े हरितलवक मिलते हैं। इन हरितलवकों में ग्रैना कम विकसित अथवा नहीं होते हैं। पर्णमध्योतक (mesophyll) की कोशिकाओं में हरितलवक छोटे होते हैं। इनमें प्रैना (grana) सुविकसित (well developed) होते हैं। इस प्रकार इसमें दो तरह के क्लोरोप्लास्ट पाए जाते हैं। मीसोफिल कोशिकाओं में अन्तराकोशिकीय स्थान कम तथा छोटे होते हैं। मीसोफिल कोशिकाओं में C4-चक्र तथा बण्डल शीथ में C3-चक्र चलता है।

प्रश्न 29 – टिप्पणी लिखिए – कैलोरीमीटरी तथा स्पेक्ट्रोफोटोमीटरी।

उत्तर – कैलोरीमीटरी तथा स्पेक्ट्रोफोटोमीटरी (Calorimetry and Spectrophotometry)-बहुत-सी जैव-रासायनिक क्रियाओं के रासायनिक विश्लेषण में काम आने वाली ये दोनों सामान्य विधियाँ हैं। वे प्रक्रियाएँ जिनमें कैलोरीमीटर काम में आता है, उन्हें कैलोरीमीटरी (Calorimetry) से सम्बन्धित माना जाता है, जबकि ऐसी प्रक्रियाएँ जिनमें स्पेक्टोमीटर प्रयोग में आता है, उन्हें स्पेक्टोफोटोमीटरी (S सम्बन्धित माना जाता है। कैलोरीमीटरी में विभिन्न रंगों के प्रकाश के फिल्टर काम में लाए जाते हैं तथा ये उपकरण कम नाजुक होते हैं। दूसरी ओर स्पेक्ट्रोफोटोमीटर बहत ही नाजुक उपकरण

होते हैं। इनमें मोनोक्रोमैटर्स (monochromators) लगे होते हैं। प्रकाश की विशिष्ट तरंग-दैर्घ्य (specific wavelengths) का पता लगाने के लिए ये उपकरण काम में लाए जाते हैं।

कैलोरीमीटरी तथा स्पेक्ट्रोफोटोमीटरी की दोनों क्रियाओं में यह तथ्य काम में लाया जाता है कि अधिकतर पदार्थ प्रकाश की विशिष्ट तरंग-दैर्घ्य को सोखते हैं, लेकिन पूरी की पूरी तरंग-दैर्घ्य को नहीं सोखते जैसे कि न्यूक्लिक अम्ल पराबैंगनी किरणों (Ultraviolet rays) को ही सोखते हैं, जबकि क्लोरोफिल केवल प्रकाश की नीली या लाल तरंग-दैर्घ्य को ही सोखते हैं।

यह एक सामान्य तथ्य है कि रंगीन पदार्थ प्रकाश की कुछ निश्चित तरंग-दैर्यों को ही सोखते हैं तथा अन्य को वापस विकिरित कर देते हैं। यह विकिरित प्रकाश ही वास्तव में उस पदार्थ को उसका रंग प्रदान करता है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं होता कि जो पदार्थ रंगहीन होते हैं, उनमें ऐसा कोई गुण नहीं होता। ऐसे पदार्थों में भी कुछ तरंग-दैर्घ्य को सोखने का गुण होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कैलोरीमीटर तथा स्पेक्ट्रोफोटोमीटर प्रकाश की विशिष्ट तरंग-दैर्यों की पहचान करने में काम आते हैं।

प्रश्न 30 – ऑक्सिन्स के प्रभावों पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर – ऑक्सिन्स के प्रभाव (Effects of Auxins)-ऑक्सिन्स के पौधों पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं –

(1) ये तनों की कोशिकाओं को लम्बा करते हैं। 

(2) ये तनों की शीर्ष (apical) वृद्धि को नियमित करते हैं। 

(3) ये जड़ों के बढ़ने में सहायक होते हैं। 

(4) ऑक्सिन्स श्वसन दर को बढ़ाते हैं। 

(5) ये कोशिकाओं के विभाजन तथा कैलस (callus) निर्माण में सहायता करते हैं। 

प्रश्न 31 – जन्तु वसा व पादप वसा में अन्तर लिखिए। 

उत्तर – जन्तु वसा व पादप वसा में अन्तर : (Differences between Animal fat’and Plant fat) 

प्रश्न 32 – अन्तःशोषण पर टिप्पणी लिखिए। … 

उत्तर – अन्तःशोषण (Imbibition)-अगर हम कुछ सूखे बीजों को पानी में रखें तो वे पानी को सोख लेते हैं तथा फूल जाते हैं। सूखी लकड़ी के टुकड़ों तथा इसी तरह की अन्य चीजों के साथ भी. ऐसा ही होता है। इससे. बीजों तथा लकड़ी के टुकड़ों का आयतन बढ़ जाता है। फूलने की इस क्रिया को अन्तःशोषण (imbibition) कहते हैं तथा जो चीजें ‘फूलती हैं, उन्हें अन्तःशोषक (imbibiants) कहते हैं।

अन्त:शोषक तथा अन्तःशोषित वस्तुओं के बीच में आकर्षण की शक्ति के कारण ही । अन्तःशोषण होता है। पौधों में यह आकर्षण कार्बोहाइड्रेट तथा प्रोटीन्स के कारण होता है। ।

प्रश्न 33-विकरों के जैविक महत्त्व पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-विकरों का जैविक महत्त्व (Biological Importance of Enzymes)विकर अनेक प्रक्रियाओं में मुख्य भूमिका निभाते हैं। रेनिन (Rennin) विकर पनीर के निर्माण के लिए शिशु बछड़े के पेट से प्राप्त किया जाता है। रेनिन दूध के केसीन (casein) प्रोटीन को स्कंदित करता है। विकरों का प्रयोग फलों के रस के उत्पादन, कपड़े के रंग के नियमन में किया जाता है। पेप्सिन तथा एमाइलेज आमाशय द्वारा पचाने की प्रक्रिया में सहायक होते हैं। अग्न्याशय के विकर ड्यूओडिनम में क्रिया करते हैं। यूरोकाइनेज का प्रयोग मस्तिष्क तथा धमनी में रुधिर का थक्का जमने पर व अन्य संचरित होने वाले रोगों के उपचार में किया जाता है।

प्रश्न 34 – श्वसन व दहन में अन्तर लिखिए। … 

उत्तर – श्वसन तथा दहन में अन्तर (Differences between Respiration and Combustion) 

प्रश्न 35 – हैच एवं स्लैक चक्र का महत्त्व लिखिए।

उत्तर – हैच एवं स्लैक चक्र का महत्त्व (Significance of Hatch and Slack Pathway)-हैच एवं स्लैक चक्र का महत्त्व निम्नवत् है

(1) यह क्रिया ऐसे पौधों के लिए लाभदायक होती है जहाँ co, की सान्द्रता :: (concentration) काफी कम होती है।

(2) वातावरण की co, की सान्द्रता में कमी होने के कारण ही C-पौधों ने इस चक्र

को अपनाया होगा। 

(3) इन पादपों में प्रकाशीय श्वसन मन्द गति से होता है। 

(4) 1 mol CO का अपचयन 5 ATP तथा 2 NADP की सहायता से होता है। 

(5) 25-30°C ताप पर भी CO2 का अपचयन तीव्र गति से होता है।

प्रश्न 38 – जिबरेलिन्स पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर – जिबरेलिन्स (Gibberellins) – जापान के कुरोसावा नामक वैज्ञानिक ने जिबरेला फ्यूजीकरॉई (Gibberella nitamroi) नामक कवक से सर्वप्रथम जिबरेलिन की खाज को। Yabuta (1935) ने सर्वप्रथम इसे इस कवक से पृथक किया और इसका नाम जिबरेलिन (Gibberellin) रखा। Cross et al. (1961) तथा अन्य वैज्ञानिकों ने Gibberella से छह प्रकार के Gibberellins प्राप्त किए। इनके नाम हैं-GAJ, GAS, GA3, GA 4, GA, 7911 GA9 :

जिबरेलिन्स के पौधों पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं-

(1) ये बीजों के अंकुरण में सहायक हैं। 

(2) जिबरेलिन पौधों की वृद्धि में बहुत सहायक 

(3) इनसे internode की लम्बाई बढ़ जाती है। 

(4) बहुत-से पौधों में इनसे फूल जल्दी आने लगते हैं। 

(5) परागकणों के उगने में जिबरेलिन्स सहायता करते हैं। 

(6) एन्जाइम्स के बनने में भी ये काम में आते हैं।

प्रश्न 39 – पारगम्यता पर टिप्पणी लिखिए। 

उत्तर – पारगम्यता (Permeability)

पारगम्यता झिल्लियों का वह गुण है जिसमें उनसे होकर कोई विलेय या विलायक आसानी से निकल सके। इसी गुण के आधार पर झिल्लियाँ निम्नलिखित चार-प्रकार की होती हैं

  1. पारगम्य (Permeable)इस झिल्ली से विलेय (solute) तथा विलायक (solvent) दोनों ही पार हो सकते हैं; जैसे-कोशिका भित्ति (cell wall) आदि।
  2. अपारगम्य (Impermeable)-इसमें से विलेय तथा विलायक दोनों आर-पार नहीं हो सकते हैं। यह सभी को रोक सकने में सक्षम है; जैसे रबड़ की शीट, क्यूटिकिल (cuticle) आदि।
  3. अर्द्धपारगम्य (Semipermeable)-वह झिल्ली जिसके द्वारा विलायक (solvent) तो पार जा सकता है, परन्तु विलेय (solute) नहीं; जैसे-चर्मपत्र (parchment paper)।

4. विभेदी पारगम्य (Differentially permeable)-पौधों में पायी जाने वाली सभी झिल्लियाँ (biological membranes) जैसे प्लाज्मा मेम्ब्रेन (plasma membrane), टोनोप्लास्ट (tonoplast) आदि विभेदी पारगम्य (differentially permeable ) होती हैं। ये आवश्यकता के अनुसार विलेय तथा विलायक के कणों को आने-जाने देती हैं। इस विषय में इनका आचरण विशेष होता है। एक समय में एक प्रकार के विलेय (solute) को ये पार जाने देती है, परन्तु दूसरे समय में नहीं। ये सभी शिल्लियाँ विभेदी पारगम्य (differentially permeable) अथवा वरणात्मक पारगम्य (selectively permeable) होती हैं। ये आवश्य permeable) होती हैं।

प्रश्न 40 – ट्रेस तत्त्व तथा ट्रेसर तत्त्व की परिभाषा व उदाहरण लिखिए।

उत्तर – ट्रेस तत्त्व (Trace Elements)-पौधों को इन तत्त्वों की अल्प मात्रा की आवश्यकता होती है तथा ये मृदा से अवशोषित किए जाते हैं। इनकी उपस्थिति को पौधों में देखा नहीं जा सकता है; जैसे-Mn, Zn, Co, Mo, Cl, Cu आदि। इन्हें लघु तत्त्व भी कहते हैं।

ट्रेसर तत्त्व (Tracer Elements) 

ये रेडियोधर्मी तत्त्व हैं जो बाहर से पौधों में दिए जाते हैं। रेडियोधर्मी होने के कारण इनकी उपस्थिति चिह्नित की जा सकती है; जैसे-11c, 13N, 35s, 42K, 28Mg, 24Na आदि। – 

प्रश्न 41 –  जल-संवर्धन पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर – जल-संवर्धन (Hydroponics)-पौधों को विलयन में उगाया जाता है ताकि किसी प्रकार का कोई संक्रमण न हो सके। हेविट (Hewitt) ने 1963 ई० में विशेष प्रकार के बर्तनों में प्रयोग किए थे। ये बर्तन बोरोसिलिकेट (Borosilicate) या पॉलिएथिलीन (Polyethylene) के बने होते हैं। इस प्रकार के प्रयोगों में मिट्टी का प्रयोग नहीं होता है और ये प्रयोग जल में ही किए जाते हैं। इसे जल-संवर्धन अथवा मिट्टीरहित संवर्धन (Hydroponics or Soilless culture) कहते हैं।

प्रश्न 42 – ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम लिखिए। 

उत्तर – ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम

(Second Law of Thermodynamics) 

प्रत्येक ऊर्जा रूपान्तरण के समय कुछ ऊर्जा का उत्सर्जन ऊष्मा के रूप में वायुमण्डल अथवा परिपार्श्व में होता है। किसी भी प्रकार की ऊर्जा से परिवर्तन अथवा रूपान्तरण के समय ऊष्मा उत्सर्जित होती है। परन्तु इस प्रकार से उत्सर्जित ऊष्मा का ऊर्जा के रूप में किसी भी क्रिया में उपयोग नहीं हो सकता है। प्रत्येक स्थानान्तरण स्तर पर ऊष्मा के रूप में कुछ ऊर्जा का ह्रास होता है।

प्रश्न 43 – अतिविटामिनता तथा प्रतिविटामिन पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर – 

अतिविटामिनता (Hypervitaminosis)

विटामिन की अधिकता से होने वाले रोग को अतिविटामिनता कहते हैं। विटामिन्स की – अधिकता से होने वाले लक्षण निम्न प्रकार हैं

  1. विटामिन ‘A‘-सुस्ती, सिरदर्द, उल्टी, मोल्टिंग, बाल झड़ना, वजन कम होना, रक्त की कमी तथा ल्यूकोपेनिया (श्वेताणुन्यूनता) आदि।
  2. विटामिन ‘D’–हड्डी का टूटना, मत्र रोग, मेटास्टेटिक कैल्सीकरण, वृक्क पर अधिक बोझ होने से यह कार्य करना बन्द कर देते हैं। यह मृत्युकारक होता है।
  3. विटामिन ‘K’—RBC के विघटन से हीमोलिटिक एनीमिया तथा बच्चों में पीलिया हो जाता है।
  4. विटामिन ‘C’ हीमोक्रोमेटोसिस तथा मूत्र में ऑक्सैलेट की मात्रा बढ़ने से पथरी बनने की सम्भावना रहती है।
  5. विटामिन ‘B’-शरीर में विटामिन B की अधिकता होने पर यह स्वतः ही शरीर से बाहर उत्सर्जित हो जाता है। फोलिक अम्ल से वृक्क क्षतिग्रस्त हो जाता है। निकोटिनिक अम्ल से मूत्रमार्ग में जलन होने लगती है। प्रतिविटामिन (Antivitamin) .

ये पदार्थ विटामिन के सामान्य कार्यों में बाधक होते हैं; जैसे-

(1) एविडीन बायोटीन से संयुक्त होकर इसे प्रभावहीन कर देते हैं। 

(2) थायमिनेज थायमीन को नष्ट कर देता है। 

(3) 3-ऐसीटिल पिरीडीन, 6-ऐमीनों नियोसिनेमाइड आदि नियासिन को निष्क्रिय कर देते हैं। 

(4) फ्लेविन मोनोसल्फेट, राइबोफ्लेविन को निष्क्रिय कर देते हैं। 

प्रश्न 44′ – विकर के लक्षणों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर – विकर के लक्षण (Characters of Enzyme) 

  1. उत्प्रेरिक क्रिया (Catalytic action)

यह विकर का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण लक्षण है। ये किसी भी अभिक्रिया में उपयोग नहीं किए जाते हैं और बिना किसी परिवर्तन के क्रिया के अन्त में प्राप्त हो जाते हैं। __

  1. कलिलीय प्रकृति (Colloidal Nature).

जीवद्रव्य में विकर कलिलीय रूप में उपस्थित होते हैं। इस प्रकृति के कारण उनका अण भार अधिक तथा विसरण दर कम होती है। 

III. विशिष्टता (Specificity)

विकर, क्रिया विशिष्ट होते है। एक विशष अवस्तर के लिए विशेष विकर होता है जैसे प्रोटीन पर क्रिया करने वाला विकर मण्ड पर क्रिया नहीं करोगा। ये अग्र चार प्रकार से विशिष्ट होते हैं-

(i) निरपेक्ष विशिष्टता (substrate specificity) 

(ii) समूह विशिष्टता (group specificity) । 

(iii) ध्रुवण घूर्णकता (polar rotation)

(iv) ज्यामितीय विशिष्टता (geometric specificity)। 

  1. ताप अस्थिरता (Thermalability)

विकर ताप अस्थिर स्वभाव के होते हैं। ताप वृद्धि के साथ विकर क्रिया में वृद्धि करते हैं, परन्त 60-70°C. पर ये नष्ट हो जाते हैं। केवल शुष्क ऊतकों जैसे बीज तथा बीजाणुओं में ये 100-120°C तक तापमान सह सकते हैं। 

  1. उभयधर्मी प्रकृति (Amphoteric nature)

विकर क्षारीय pH में अम्लीय और अम्लीय pH में क्षारीय रूप में क्रिया करते हैं। 

  1. उत्क्रमणीय प्रकृति (Reversible nature)

विकरों द्वारा उत्प्रेरित अधिकांश अभिक्रियाएँ उत्क्रमणीय होती हैं, परन्तु कभी-कभी दोनों क्रियाओं के विकर अलग-अलग होते हैं।

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