Stages Of Puccinia Graminis Tritrici On Berberis BSc Notes

Stages Of Puccinia Graminis Tritrici On Berberis BSc Notes

 

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प्रश्न 7 बरबेरिस पर पक्सीनिया की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर

बरबेरिस पर पक्सीनिया ग्रैमिनिस ट्रिटिसार्ड की वस्थाएं

(Stages of Puccinia graminis tritrici on Berberis)

बरबेरिस (एकान्तर परपोषी) की सतह पर पहुँचकर बेसीडियोस्पोर्स एक अंकुरना। बनते है जो पत्ती की बाह्यत्वचा को भेदकर परपोषी के अन्दर प्रवेश करती है। इससे इण्टरकैलेरी स्थानों में मोनोकैरियोटिक कवकजाल (monokaryotic mycellum) बनता है शाखित,  पटयुक्त कवकजाल चूषकांग की सहायता से भोजन प्राप्त करता है तथा वृद्धि करता है। धन (+) तथा ऋण (-) स्टेन वाले बेसीडियोस्पोर्स परपोषी की एक ही पत्ती पर संक्रमण करने में सक्षम होते हैं। पत्ती की कोशिकाओं के बीच दोनों ही स्टेन के कवकजाल आस-पास रहते हैं।

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एकान्तरित परपोषी न मिलने पर ये स्पोर नष्ट हो सकते हैं। बेसीडियोस्पोर्स के अंकरण के चार दिन बाद पिक्नियोस्पोर्स बनते हैं पिक्निडियोस्पोर (pycniospore or blogical _pyenidiospore) एकान्तर परपोषी (alternate host) की ऊपरी बाह्यत्वचा के ठीक नीचे

मोनोकैरियोटिक कवकजाल एकत्रित होकर फ्लास्क समान संरचना बनाता है। फ्लास्क के आधार पर अनेक सीधे उदग्र कवकसूत्र (vertical hyphae) एक परत बनाते हैं। इसको हाइमीनियम कहते हैं। इसके प्रत्येक कवकसूत्र को स्पर्मेटियोफोर (spermatiophore) या

पिक्नियोस्पोरोफोर (pycniosporophore) कहते हैं। इनके सिरे से छोटी गोल या अण्डाकार अर्द्धक, एक केन्द्रकी संरचनाएँ आधारभिवर्धी श्रृंखलाओं (basigenous chains) में बनती हैं, इनको पिक्नियोस्पोर या स्पर्मेटियम कहते हैं। ये पिक्नियम के बीच में इकट्टे हो जाते हैं। पिक्नियम बाह्यत्वचा में बने छिद्र (ostiole) द्वारा बाहर खुलते हैं।छिद्र के पास कुछ बन्ध्य (sterile) कवकसत्र होते हैं, इनको पैराफाइसि कहते है। कुछ सीधे फ्लैक्सस हाइफी (flexous gyphae) छिद्र (ostiole) के बाहर निकले रहते हैं। ये जननक्षम (Fertile) होते हैं। ये उसी स्टेन के होते हैं जिससे कवकजाल बना होता है अर्थात एक स्टेन के कवक जाल पर उसी स्ट्रेन के पिक्नियोस्पोर तथा जननक्षम हाइफी मिलते है।

परिपक्व अवस्था में पिक्नियम के छिद्र से एक बूंद के रूप में रस बाहर निकलता है। इसी के साथ बहुत-से पिक्नियोस्पोर भी बाहर द्वार पर निकल आते हैं। परपोषी की संक्रमित पत्ती पर ये छोटे-छोटे पीले धब्बों के रूप में ऊपरी बाह्यत्वचा पर दिखाई देते हैं । इनको पिक्निया कहते हैं।

पिक्नियोस्पोर तथा फ्लेक्सस तन्तु (दोनों की स्ट्रेन अलग-अलग होती हैं) मिलकर डाइकैरियोटाइजेशन द्वारा नया कवकजाल बनाते हैं जिस पर एसियोस्पोर (aeciospores) बनते हैं।

डाइकैरियोटाइजेशन (Dikaryotization)-परिपक्व पिक्निया पर कीड़े-मकोडे रस चूसने आते हैं तथा पिक्नियोस्पोर्स को एक से दूसरे पिक्नियम पर पहुँचा देते हैं। विपरीत स्ट्रेन के पिक्नियोस्पोर तथा फ्लेक्सस तन्तु के सम्पर्क में आने पर दोनों के बीच की भित्ति नष्ट हो जाती है तथा पिक्नियोस्पोर का केन्द्रक फ्लेक्सस सूत्र कोशिकाओं के पट के छिद्रों में होकर नीचे की तरफ जाता है। इसी समय पिक्नियम के नीचे उसी पत्ती की निचली सतह की तरफ मोनोकैरियोटिक कवकजाल एकत्रित होने लगता है। इसी कवकजाल में डाइकैरियोटाइजेशन के पश्चात् एसियम (aecium) बनते हैं। अत: इसको एसियल प्रीमोर्डिया या प्रोटोएसिया कहते हैं। फ्लेक्सस सूत्र कोशिकाओं से गुजरती पिक्नियोस्पोर की केन्द्रक प्रोटोएसिया की कोशिकाओं में आकर उन्हें डाइकैरियोटिक बना देती है।

कभी-कभी विपरीत स्ट्रेन वाले दो मोनोकैरियोटिक कवकजाल के सूत्र आपस में मिलकर डाइकैरियोटिक कवकजाल बनाते हैं।

A.H.R. Buller ने पक्सीनिया हेलिएन्थाई (P. helianthi) में डाइकैरियोटिक माइसीलियम से मोनोकैरियोटिक कवकजाल के मिलने से मोनोकैरियोटिक कवकजाल को डाइकैरियोटिक कवकजाल में बदलते देखा। डाइकैरियोटिक कवकजाल की कोशिका का वह केन्द्रक जो मोनोकैरियोटिक कवकजाल की कोशिका में नहीं मिलता है, विभाजित होकर उसमें चला जाता है। इस प्रकार डाइकैरियोटाइजेशन हो जाता है। इसको बुलर परिकल्पना (Buller Phenomenon) कहा जाता है।

एसियोस्पोर (Aeciospore or Aecidiospore)

डाइकैरियोटाइजेशन के पश्चात् प्रोटोएसिया के कवकसूत्रों की कोशिकाएँ वृद्धि कर एक झण्ड बना लेती हैं। यह झुण्ड आभासी-पैरेन्काइमा (pseudoparenchyma) का बना होता है।

इस संरचना की सतह की कोशिकाएँ लम्बी तथा नीचे वाली छोटी होती हैं। ये सभी मोनोकैरियोटिक होती हैं। आभासी-पैरेन्काइमा की कोशिकाओं से घिरी डाइकैरियोटिक कोशिकाएँ एक घने समूह में सीधी, लम्बी निचली सतह की तरफ बढ़ती हैं। इसको

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हाइमीनियम कहते हैं। हाइमीनियम की कोशिकाएँ एसियोस्पोर मातृ कोशिकाएँ (aeciospore mother cells) कहलाती हैं। हाइमीनियम के बीच की कोशिकाओं से एसियोस्पोर बनने प्रारम्भ होते हैं। ये परिधि की कोशिकाओं में सबसे बाद में बनते हैं। हाइमीनियम की परिधि की सबसे बाहरी मातृ कोशिकाओं से अनेक कोशिकाएँ बनती हैं। इनकी पार्श्व दीवारें आपस में जुड़कर पेरीडियम (peridium) का निर्माण करती हैं। पेरीडियम की कोशिकाएँ अनुप्रस्थ तल में विभाजित होकर पेरीडियम की ऊँचाई में वृद्धि करती हैं। एसियोस्पोर मातृ कोशिका लम्बाई में बढ़कर अनुप्रस्थ काट में विभाजित होकर एक कोशिका बनाती है। यह कोशिका एक पट द्वारा मातृ कोशिका से पृथक् हो जाती है। यह एक बड़ी तथा एक छोटी कोशिका में बढ़ती है। ऊपरी बड़ी कोशिका जो निचली बाह्यत्वचा की तरफ होती है, एसियोस्पोर मातृ कोशिका लगातार विभाजित होकर बेसीपीटल क्रम में एसियोस्पोर तथा इण्टरकैलेरी क्रम में बन्ध्य कोशिकाएँ बनाती हैं। इण्टरकैलेरी कोशिकाएँ स्पोर्स की परिपक्वता पर नष्ट हो जाती। तथा स्पोर स्वतन्त्र हो जाते हैं। इण्टरकैलेरी कोशिकाएँ वियोजित कोशिकाएँ (distindi cells) भी कहलाती हैं।

परिपक्व अवस्था में एसियोस्पोर्स के दबाव के कारण पेरीडियम फट जाती है। एसीयम (aecium) एक प्याले के समान दिखाई देता है। इन स्पोर्स के विकिरण में वायु, वर्षा  तथा अन्य माध्यम सहायक होते हैं।

एसियोस्पो गोल, एककोशिकीय, द्विकेन्द्रीय तथा दोहरी भित्ति वाले होते हैं। बाहरी भित्ति चिकनी, कभी-कभी काँटेदार तथा एक्सोस्पोर कहलाती है। इसमें अंकुर छिद्र (garm pore) होते हैं। इनका रंग नारंगी होता है। आपसी दबाव की वजह से बहुकोणीय (polygonal) हो जाते हैं।

एसियोस्पोर जिस परपोषी पर बनते हैं, उसको कभी भी संक्रमित नहीं करते हैं। ये केवल गेहूँ को संक्रमित कर सकते हैं। अंकुरण की अनुकूल परिस्थितियों में अंकुरणनाल (अंकुरनाल), अंकुर छिद्र से निकलती है। रन्ध्र द्वारा परपोषी ऊतक में प्रवेश करती है। शीघ्र ही इण्टरकैलेरी, डाइकैरियोटिक, शाखित कवकजाल बनाती है, इसको द्वितीयक कवकजाल भी कहते हैं। इस पर गेहूँ में यूरीडोस्पोर तथा बाद में टेल्यूटोस्पोर बनते हैं।

 


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