BSc 2nd Year Botany V Cytology Genetics Evolution And Ecology Part D Notes

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खण्ड ‘य’

प्रश्न 1 – पारिस्थितिक पिरामिड से आप क्या समझते हैं? संख्या, ऊर्जा व जीवभार के पिरामिड का भी उल्लेख कीजिए। 

उत्तर- पारिस्थितिक पिरामिड

(Ecological Pyramids) 

पारिस्थितिक तन्त्र (Ecosystem) में विद्यमान विविध पारस्परिक सम्बन्धों को आलेखों की सहायता से सुगमतापूर्वक प्रदर्शित किया जा सकता है। इन आलेखों को पारिस्थितिक पिरामिड कहते हैं। ये पिरामिड पारिस्थितिक तन्त्र के प्रत्येक पोषी स्तर (trophic level); (a) जीवों की संख्या, (b) ऊर्जा की मात्रा और (c) जीवभार (biomass) आदि का चित्रण कर सकते हैं। इस प्रकार के आलेखों का सर्वप्रथम आलेखी निरूपण (graphic representation) एल्टन (Elton, 1927) ने किया था। इन आलेखों में सबसे नीचे का पोषी स्तर उत्पादक तथा सबसे ऊपर का पोषी स्तर मांसाहारी का होता है। मुख्य पिरामिड इस प्रकार के हैं

1. संख्याओं का पिरामिड (Pyramid of numbers)-इस पिरामिड में विभिन्न पोषी स्तरों पर मिलने वाले जीवों की अर्थात् उत्पादकों, शाकाहारियों, मांसाहारियों की प्रति इकाई क्षेत्रफल में मिलने वाली आपेक्षिक संख्याओं को प्रदर्शित करते हैं। घास तथा तालाब में पारिस्थितिक तन्त्रों में संख्या के पिरामिड सीधे (upright) होते हैं। तालाब के पारिस्थितिक तन्त्र में उत्पादकों की संख्या अधिकतम, शाकाहारी मछलियों तथा रोटीफरों (rotifers) की .. संख्या उनसे कम तथा शाकाहारियों की अपेक्षा मांसाहारियों की संख्या उनसे भी कम होती है। पिरामिड की चोटी पर सर्वभक्षी बड़ी मछली की संख्या सबसे कम होती है। वृक्ष पारिस्थितिक तन्त्र में उत्पादकों की संख्या सबसे कम, प्राथमिक उपभोक्ता (शाकाहारी पक्षी, गिलहरी आदि) की संख्या इससे अधिक तथा शाकाहारियों पर निर्भर द्वितीयक उपभोक्ताओं की संख्या प्राथमिक उपभोक्ताओं से अधिक होती है।

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प्रश्न 2 – निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए(i) पोषी स्तर, (ii) खाद्य श्रृंखला, (iii) खाद्य जाल। 

उत्तर – (i) पोषी स्तर (Trophic Level)

उपभोक्ता (consumers), उत्पादकों (producers) से अपना भोजन प्राप्त करते हैं इस प्रकार उत्पादक-उपभोक्ता-अपघटक भोजन से सम्बन्धित श्रृंखला बनाते हैं। जीवीय घटक के प्रत्येक स्तर को पोषी स्तर (trophic level) या ऊर्जा स्तर (energy level) कहते हैं।

(ii) खाद्य श्रृंखला (Food Chain) 

पौधों द्वारा भोजन को ऊर्जा के रूप में संचित करना तथा फिर पौधों से क्रमशः विभिन्न पोषी स्तरों (trophic levels) के जीवों में भोजन के साथ इस ऊर्जा के . स्थानान्तरण, उपयोग तथा हास को खाद्य श्रृंखला (food chain) कहते हैं। प्राकृतिक समुदायों के जीव अलग-अलग स्रोतों से भोजन प्राप्त करते हैं। भोजन के ये स्रोत पोषी स्तर कहलाते हैं। इसमें हरे पौधे जो भोजन का स्वयं निर्माण करते हैं प्रथम पोषी स्तर या उत्पादक स्तर (first trophic level or producer level) बनाते हैं। इसी प्रकार हरे पौधों को खाने वाले द्वितीय पोषी स्तर या प्राथमिक उपभोक्ता स्तर (second trophic level or .. primary consumer level) बनाते हैं।

शाकाहारी जन्तुओं को खाने वाले मांसाहारी जन्तु तृतीय पोषी स्तर या द्वितीय उपभोक्ता स्तर (third trophic level or secondary consumer level) को बनाते हैं। अन्त में पौधों तथा जन्तुओं को खाने वाले सर्वभक्षी (omnivores) चतुर्थ पोषी स्तर या .. तृतीय उपभोक्ता स्तर (fourth trophic level or tertiary. consumer level) बनाते हैं। प्रत्येक पोषी स्तर पर ऊर्जा की मात्रा में कमी होती है। इसलिए खाद्य श्रृंखला (food chain) जितनी छोटी होती है उतनी ही अधिक ऊर्जा उपलब्ध रहती है। खाद्य शृंखलाएँ निम्न तीन प्रकार की होती हैं –

(a) चारण खाद्य श्रृंखला (Grazing food chain)-एक खाद्य श्रृंखला जिसमें गाय या हिरन जैसे जीव जो घास चरते हैं अर्थात् पौधों पर निर्भर रहते हैं, इस प्रकार की खाद्य श्रृंखला के उदाहरण हैं। इसी प्रकार प्राणी प्लवकों एवं मछलियों द्वारा वनस्पति प्लवकीय शैवालों का भक्षण, चारण खाद्य श्रृंखला का एक दूसरा उदाहरण है। अधिकांश पारिस्थितिक तंत्रों में कुल सामूहिक ऊर्जा का केवल एक छोटा-सा भाग ही चारण खाद्य श्रृंखला में प्रवाहित होता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक स्तर पर कार्बनिक पदार्थों का एक बड़ा हिस्सा अपरद खाद्य श्रृंखला में (मृत्यु, अपरदन तथा जावा के उत्सर्जन द्वारा) प्रवेश करता रहता है। वन तथा सागर को चारण खाद्य शृंखलाएँ एक-दूसरे से अलग होती हैं। सागर-खाद्य शृंखलाएँ सबसे लम्बी होती हैं, (पाँच स्तरों तक की) वन खाद्य श्रृंखलाएँ तुलनात्मक रूप से छोटी रहती हैं। इनमें तीन या चार स्तर होते हैं। जलीय पारिस्थितिक तंत्रों में वनस्पतिप्लवक (phytoplanktons) एवं प्राणीप्लवक (Rooplanktons) पहले दो पोषण स्तरों का निर्माण करते हैं। यदि द्वितीय पोषण स्तर पर अनेकों छोटे-छोटे शाकाहारी हैं तो इसका अर्थ यह है कि तीसरे स्तर पर भी मांसाहारी तलनात्मक रूप से छोटे तथा अनेकों होंगे तथा एक अतिरिक्त मांसाहारी स्तर अन्तिम स्तर से पहले होगा। इस स्तर पर पहले की अपेक्षा बड़े मांसाहारी जीव कम संख्या में होंगे।

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(b) अपरद खाद्य श्रृंखलाएँ (Detritus food chain)-श्रृंखलाएं मृत काला पदार्थों से प्रारम्भ होती हैं, जो ऊर्जा के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। मृत पौधे तथा उनके भाग, मृत एवं जीवों के मल पदार्थ, कार्बनिक पदार्थों की एक बड़ी मात्रा को देते रहते हैं। इस प्रकार खाद्य श्रृंखलाएँ सभी पारिस्थितिक तंत्रों में व्याप्त हैं, किन्तु वन पारिस्थितिक तंत्रो एव जलीय समुदायों (shallow water communities) में ये शृंखलाएँ होती है।

कवकों (fungi), जीवाणुओं (bacteria) एवं मृतपोषियों (saprophytes, विभिन्न प्रजातियाँ अपनी अतिजीविता एवं वृद्धि के लिए आवश्यक ऊर्जा काबीनक पर अपघटन द्वारा प्राप्त करती हैं। इस प्रक्रिया में वे उन कार्बनिक पदार्थों के विभिन्न पोषक तत्वों

तालाब खाद्द ( Pond Food Chain)

पादपप्लवक (Phytoplankton) + जन्तु प्लवक (Zooplankton क्रस्टेशियन (Small crustaceans) → प्रिडेटर कीट (Predator insects) को मछली. (Small fish) → बड़ी मछली (Large fish) → क्रोकोडाइल (Crocodilal

(iii) खाद्य-जाल

(Food web) 

खाद्य श्रृंखला (food chain) में उत्पादक से उपभोक्ता तथा अपघटक तक ऊर्जा स्थानान्तरण को एक सीधी श्रृंखला के रूप में दिखाया गया है। प्रकृति में ऐसा नहीं मिलता है वरन् बहुत सी खाद्य श्रृंखलाएँ मिलकर एक जाल बनाती हैं जिसे ‘खाद्य जाल’ कहते हैं अर्थात् अनेक खाद्य श्रृंखलाओं (food chains) के परस्पर सम्बन्धित क्रम को खाद्य जाल (food web) कहते हैं।

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खाद्य श्रृंखला में विभिन्न पोषी स्तरों पर पाए जाने वाले जीवों में एक पारस्परिक सम्बन्ध होता है तथा एक जीव, एक से अधिक पोषी स्तरों के जीवों से अपने भोजन की पूर्ति करता इसी प्रकार एक जीव का भक्षण अनेक जीवों द्वारा किया जा सकता है उदाहरण के लिए है पौधों को खरगोश की अनुपस्थिति में कुछ कीट तथा चहे खा सकते हैं। फिर चूहो का बार (Hawk) खाकर ऊर्जा प्राप्त करते हैं। अन्य परिस्थिति में इन्हीं चूहों को पहले सॉप भाजन रूप में उपयोग करता है फिर साँप का उपयोग बाज कर सकता है। इस प्रकार प्रकृति म खास अनेक वैकल्पिक रास्तें (alternative pathway) होते हैं। ये रास्ते ही ईकोतन्त्र का । प्रदान करते हैं। जिस ईकोतन्त्र में जितने वैकल्पिक रास्ते होंगे वह उतना ही स्थिर होगा।

ईकोतन्त्र के सभी जीव परस्पर एक-दूसरे से जाल की भाँति जुड़े रहकर खाद्य बनाते हैं। खाद्य जाल (food .web) के प्रक्रम को निम्न कारक प्रभावित कर सकते हैं।

(i) खाद्य श्रृंखला की लम्बाई। 

(ii) खाद्य प्रवृत्तियों के कारण जीवों में मिलने वाली विविधताएँ। 

(iii) खाद्य श्रृंखला में विभिन्न उपभोक्ता स्तरों (consumer levels) पर भिन्न-भिन्न विकल्प।

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प्रश्न 3 – जैविक कारक का संक्षेप में वर्णन कीजिए। 

उत्तर – जैविक कारक

many (Biotic Factors) 

जीवित प्राणियों (पौधों तथा जानवरों) के वनस्पति पर प्रभाव का हम जैविक कारकों में – अध्ययन करते हैं। विभिन्न प्रकार के जानवर पौधों को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करते हैं जैसे चर कर या उनकी सामान्य वृद्धि को किसी भी प्रकार से रोककर। मनुष्य भी पौधों तथा अन्य वनस्पतियों को कई प्रकार से प्रभावित करता है। वह वनस्पतियों को अपनी इच्छानुसार बदलता रहता है। आग लगाकर भी वह वनस्पतियों को नष्ट करता रहता है। जैविक कारकों के कुछ विशेष प्रभावों का वर्णन निम्नवत् है।

(1) अधिकांश पौधों में परागण (pollination) बहुत-से जानवरों तथा कीड़े-मकोड़ों

जैसे—मधुमक्खी, मोथ, शहद की मक्खी आदि से ही होता है। 

(2) काफी संख्या में बड़े जानवर तथा आदमी फलों और बीजों के विकिरण में सहायता – करते हैं। 

(3) लाइकेन्स में एक सहयोगी सम्बन्ध स्पष्ट दिखाई देता है क्योंकि इनमें एक कवक

तथा एक शैवाल मिलकर एक लाइकेन बनाते हैं। 

(4) शैवालों के बहुत-से सदस्य विशेष रूप से साइनोफाइटा के (Nostoc,

Rivularia Oscillatoria, Scytonema, Anabaena, Gloeotrichia etc.) तथा कुछ जीवाणु वातावरण से नाइट्रोजन को स्थिर (fix) करने की क्षमता रखते हैं। इससे भूमि की उपजाऊ शक्ति में वृद्धि होती है।

(5) अधिकांश पौधों में कवक एक mycorrhizal सम्बन्ध के रूप में रहती है। 

(6) अधिकांश पौधे दूसरे पौधों पर epiphytes के रूप में रहकर उनको सीधे प्रभावित करते रहते हैं। 

(7) बहुत-से जानवर जैसे बन्दर, चिड़िया, कबूतर, साँप, कीड़े-मकोड़े आदि काफी पौधों को नष्ट करके पौधों पर अपना सीधा प्रभाव दिखाते हैं। 

(8) बहुत-से कवक पौधों में बीमारियाँ पैदा करते हैं तथा इस प्रकार अपना प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाते हैं। 

(9) जानवरों तथा मनुष्यों के द्वारा बहुत-से पेड़-पौधों को खाना, चरना तथा काटकर गिरा देना एक आम बात हो गई है। 

(10) जानवर अधिकांश बीजों तथा नवअंकुरित बीजों को उखाड़ देते हैं तथा पौधों पर – अपना सीधा प्रभाव दिखाते हैं। 

(11) आग लगाकर फसलों तथा जंगलों को नष्ट कर देना पौधों पर मनुष्य के सीधे प्रभाव का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। 

(12) वातावरण को प्रदूषित करके भी मानव पौधों पर अधिकांश मामलों में सीधा तथा अधिकांश मामलों में कुछ समय बाद दिखने वाला प्रभाव दिखाते हैं।

अत: यह सिद्ध होता है कि पौधों पर मनुष्यों, जानवरों तथा अन्य पौधों का काफी प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 4 – जलक्रमक पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए। 

उत्तर – जलक्रमक (Hydrosere) – 

एक तालाब के जल में अनुक्रमण की विभिन्न अवस्थाओं से विकसित होकर climaxरूप में पहुँचने की क्रिया को Hydrarch या Hydrosere कहते हैं। जलक्रमक की विभिन्नअवस्थाएँ निम्नवत् होती हैं –

  1. पादप-प्लवक अवस्था (Phytoplankton Stage)-छोटे तैरने वाले बहुत-स शैवाल, डायटम आदि जलक्रमक में pioneer vegetation के रूप में होते हैं। ये स्वतन्त्र रूप में तैरते रहते हैं। तैरते हुए अपने साथ रेत, मिट्टी आदि के कण इकट्ठा करके तालाब की सतह पर जमाते हैं। कुछ वर्षों के पश्चात् इस तालाब की सतह इन छोटे तैरने वाले पौधों के लायक नहीं रह जाती है। यहाँ अब rooted-submerged पौधे ही रह सकते हैं।
  2. जड़ीय जलनिमग्न अवस्था (Rooted Submerged Stage)-हाइड्रिला, पोटेमोजिटोन, वैलिसनेरिया आदि पौधे तालाब की सतह में रया आद पाध तालाब की सतह में उगते हैं। ये भी कछ रेत तथा मिट्टा की कोटे-छोटे कणों को इकट्ठा करके तालाब की सतह पर इकट्ठा करते रहते हैं। कुछ समय पश्चात् तालाब की सतह का यह भाग अब ऐसे पौधों के विकसित होने के लायक नहीं रह जाता । अब उसी जगह में केवल जलक्रमक की अगली अवस्था अर्थात rooted float plants के पौधे ही उग सकते हैं।

3. जडीय स्वतन्त्र तैरने की अवस्था (Rooted Free Floated Stage). की सतह में अब ऐसे पौधे ही उग सकते हैं जो कि तैरते भी रहें तथा इनकी जड़ें तालाब की

मिट्टी में धंसी रहें। ऐसे कुछ पौधों में Nymphaea, Nelumbium, Trapa, Wolffia आदि प्रमुख हैं। कुछ समय पश्चात् तालाब में इस स्थान पर पानी का स्तर फिर कम हो जाता है तथा यहाँ अब अगली अवस्था वाले पौधे ही रह सकते हैं।

  1. रीडस्वैम्प अवस्था (Reed Swamp Stage) – ये जल तथा मिट्टी दोनों में उगने वाले पौधे होते हैं; जैसे-Typha, Scirpus, Phragmitis आदि। इनमें rhizome काफी विकसित रहता है। इनकी काफी घनी आबादी अब तालाब में विकसित हो जाती है। तालाब के .. बचे हुए पानी के स्तर को कम करने में भी ये काफी संहायक होते हैं और काफी पानी को सोखते भी रहते हैं। इस प्रक्रिया के जारी रहने से तालाब का यह स्थान अब इन पौधों के लायक भी नहीं रह जाता। इस स्थान पर अब दूसरी अवस्था के पौधे ही उग सकते हैं।
  2. सेज-मीडो अवस्था (Sedge-meadow Stage) – यह बहुत ही कम पानी वाली : अवस्था है। इस अवस्था में तालाब में अब कुछ ऐसे पौधे ही उगते हैं, जो कि कीचड़ में रह सकते हैं; जैसे-Carer, Cyperus, Eleocharis आदि। ये पौधे भी वहाँ के बचे हुए पानी को सोखते रहते हैं तथा वाष्पोत्सर्जन के द्वारा उसे बाहर निकालते रहते हैं। इस प्रकार वहाँ पानी अब करीब-करीब सतह पर से समाप्त ही हो जाता है। ऐसी जगह में अब बहुत बड़ी घासें, फिर छोटे शाकीय पौधे, फिर झाड़ियाँ तथा अन्त में बड़ी झाड़ियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

6. वन अवस्था (Forest Stage) – तालाब की उसी जगह पर जहाँ एक समय काफी पानी था, अब बिलकुल भी नहीं रहता है तथा अब यहाँ कुछ बड़े पेड़ भी पैदा होने लगते हैं; जैसे-Ulmus, Acer, Quercus आदि। इनके काफी घने जंगल बन जाते हैं। इस वन अवस्था को climax अवस्था कहते हैं।

ऊर्जा प्रवाह की चौथी सीढ़ी में मांसाहारी जानवरों की 3 g-cal/cm21year ऊर्जा में से 1.8 g-cal/cm2 lyear ऊर्जा श्वसन में काम आती है, कुछ बचे हुए कण decomposition में काम आते हैं तथा 1 : 2 g-cal/cm2/year ऊर्जा फिर भी बिना किसी काम में आए व्यर्थ चली जाती है।

इससे यह सिद्ध होता है कि सौर ऊर्जा का अधिकतर भाग बिना किसी काम में आए रह – जाता है तथा ऊर्जा प्रवाह में ऊर्जा का बहुत थोड़ा-सा ही भाग काम में आता है।

उत्पादकता

(Productivity) 

उत्पादकता तीन प्रकार की होती है-

(1) प्राथमिक उत्पादकता (Primary Productivity) 

(2) द्वितीयक उत्पादकता (Secondary Productivity); 

(3) नेट उत्पादकता (Net Productivity).

  1. प्राथमिक उत्पादकता (Primary Productivity)—यह उत्पादकता की वह दर है जिस पर उत्पादक (Producers) photosynthetic तथा chemosynthetic क्रिया । द्वारा सौर ऊर्जा को एकत्र करते हैं। यह दो प्रकार की होती है

(i) ग्रोस प्राथमिक उत्पादकता—ग्रोस प्राथमिक उत्पादकता से आशय photosynthesis तथा chemosynthesis की सम्पूर्ण गति से है जिसमें मापन समय के अन्तर्गत वे कार्बनिक तत्त्व भी मिले रहते हैं, जो श्वसन में काम आते हैं।

(ii) नेट प्राथमिक उत्पादकता – पादप ऊतकों में कार्बनिक पदार्थों को संचित करने की वह दर जो कि श्वसन में काम आने के बाद में बच जाती है, नेट प्राथमिक उत्पादकता होती है।

  1. द्वितीयक उत्पादकता (Secondary Productivity)-यह ऊर्जा की वह गति है, जो कि consumers के स्तर पर काम में लायी जाती है। “
  2. नेट उत्पादकता (Net Productivity-यह कार्बनिक पदार्थों को संचित करने की वह गति है जो कि heterotrophs काम में नहीं लाते। . 

प्रश्न 6 – पारिस्थितिक अनुक्रमण (Ecological succession) से आप क्या समझते हैं? इसके लक्षण, कारण व प्रकारों का वर्णन कीजिए। – 

उत्तर – पारिस्थितिक अनुक्रमण –

(Ecological Succession)

समुदाय स्थायी नहीं होते हैं। इनमें समय के अनुसार परिवर्तन होते रहते हैं। इसका प्रमुख कारण जलवायु, भू-आकृतिक परिवर्तन तथा समुदाय की विभिन्न जीव-जातियों में होने वाली क्रियाएँ हैं। इन कारणों से समुदाय संरचना में परिवर्तन होते रहते हैं और प्रमुख जातियाँ अन्य जातियों द्वारा प्रतिस्थापित होती रहती हैं। यह परिवर्तन तब तक होता रहता है जब तक कि समुदाय की विभिन्न जीव-जातियों व पर्यावरण में अधिक स्थायी सन्तुलन स्थापित न हो जा पादप समुदायों के परिवर्द्धन में एक लम्बे समय (अनेक पीढ़ियों) से चले आ रहे हैं। तथा दिशात्मक प्रक्रम (cumulative and directional process) को पादप अनक्रमा (plant succession) कहते हैं।

क्लीमेन्ट्स (Clements) के अनुसार पादप अनुक्रमण एक प्राकृतिक प्रक्रम है जिन अनुसार पादप समुदायों के विभिन्न समूहों द्वारा क्रमिक रूप से एक ही क्षेत्र का उपनिवेश (colonization) होता है।

पादप अनुक्रमण एक जटिल प्रक्रिया है। ऊसर क्षेत्र (barren area) में सर्वप्रथम स्थापित समुदाय को पुरोगामी समुदाय (pioneer community) तथा अन्तिम समुदाय को चरम समुदाय (climax community) कहते हैं। पुरोगामी से चरम समुदाय के मध्य में निर्धारित दिशा में क्रमबद्ध रूप से प्रतिस्थापित समुदाय क्रमकी समुदाय (seral community) कहलाते हैं। 

अनक्रमण के अभिलक्षण (Characteristics of Succession) 

(1) अनुक्रमण एक जटिल जैविक-क्रम है। इसके अन्तर्गत होने वाले परिवर्तन की दर और परिवर्द्धन की सीमा भौतिक पर्यावरण के उन परिवर्तनों द्वारा निर्धारित व नियन्त्रित रहती है जो तत्कालीन समुदायों के कारण उस पर्यावरण में निरन्तर होते रहते हैं। 

(2) अनुक्रमण से एक चरम समुदाय का निर्माण होता है जो वातावरण के साथ गतिज सन्तुलन रखता है तथा अपेक्षाकृत स्थायी होता है। 

(3) चरम समुदाय जलवायु से नियन्त्रित होता है। अतः अनुक्रमण चट्टान या जल के – अन्दर हो, समान जलवायु में दोनों ही समुदायों में समान परिवर्तन होते हैं। 

अनुक्रमण के मुख्य कारण (Major Causes of Succession)

इसके मुख्य कारण निम्नवत् हैं__

(1) जलवायवीय (Climatic), (2) स्थलाकृतिक (Topographic), (3) जवाय (Biotic) अपरदन, हवा, आग आदि प्रारम्भिक कारण हैं जिनके द्वारा अनावृत (bare) क्षत्र बनता है, इसलिए इस प्रक्रम को न्यूडेशन (nudation) कहा जाता है। अन्य कारणाम माइग्रेशन (migration), स्पर्धा (competition), पेड़ों का काटना, पशुओं का चारण, भूस्खलन, ग्लेशियर आदि हो सकते हैं जो आवास तथा वनस्पति के मध्य आपसी क्रिया द्वार अनुक्रमिक परिवर्तनों को उत्पन्न करते हैं। इनके द्वारा मृदा की संरचना में भी परिवतन सम्भव है।

अनुक्रमण में होने वाले प्रक्रमा 

(Processes in Succession)

अनुक्रमण अनेक क्रमिक चरणों में पूरा होता है; जैसे-न्यूडेशन, आक्रमण, स्पर्धा, प्रतिक्रिया, स्थायीकरण आदि। 

  1. न्यूडेशन (Nudation)-इसमें अनावृत क्षेत्र की रचना होती है जिसमें जीवन किसी भी रूप में नहीं मिलता है। इसके अनेक कारण हो सकते हैं; जैसे-भूस्खलन (land slide), बाढ़, अपरदन, निक्षेपण (deposition), आग लगना, महामारी, सूखा (drought), अतिचारण (overgrazing), औद्योगीकरण, सड़क-निर्माण आदि।
  2. आक्रमण (Invasion)-अनावृत क्षेत्र (bare area) में किसी पादप जाति का सफलतापूर्वक स्थापित हो जाना, आक्रमण (invasion) कहा जाता है। इस प्रकार अनेक जातियों के आक्रमण का प्रक्रम लगातार या रुक-रुक कर चलता रह सकता है। किसी भी पादप जाति द्वारा किया गया आक्रमण तीन चरणों में पूरा होता है

(i) प्रकीर्णन या प्रवास (dispersal or migration), 

(ii) नए क्षेत्र में नई प्रवासी पादप जातियों का स्थापित होना . (Ecesis or establishment), . 

(iii) समुच्चयन (Aggregation)। . 

  1. स्पर्धा (Competition)-जब किसी क्षेत्र में भोजन, स्थान या जीवन उपयोगी कारक अपर्याप्त होते हैं तो उस क्षेत्र की विभिन्न पादप जातियों के बीच अथवा एक ही जाति के विभिन्न सदस्यों के मध्य जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्पर्धा होती है। इसमें प्रत्येक सदस्य अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निरन्तर प्रयास करता है।
  2. प्रतिक्रिया (Reaction)-किसी क्षेत्र में पादपों की विभिन्न जातियों द्वारा जो । परिवर्तन लाया जाता है, उसे प्रतिक्रिया कहते हैं। इससे उस क्षेत्र की मृदा, जल, ताप आदि पर्यावरण के कारक प्रभावित हो सकते हैं और एक ऐसी स्थिति आ सकती है जब ये सभी कारक उस क्षेत्र के प्रारम्भिक पादपों के लिए अनुपयुक्त हो जाते हैं तथा इस पादप समुदाय का स्थान एक नया पादप समुदाय (invader) आक्रमण द्वारा ले लेता है।
  3. स्थायीकरण (Stabilization)-इस अवस्था में चरम समुदाय बहुत लम्बे समय के लिए स्थायी हो जाता है। यह समुदाय अपने आपको वहाँ की जलवायु के प्रति अनुकूलित रखने का प्रयास करता है। इस अन्तिम समुदाय को प्रतिस्थापित (replace) नहीं किया जा सकता है। अत: इसको चरम समुदाय की चरम अवस्था कहते हैं।

अनुक्रमण के प्रकार

(Types of Succession) 

नए पादपों से लेकर चरम समुदाय बनने तक विकास की विभिन्न अवस्थाओं के सम्पूर्ण अनुक्रम (sequence) को क्रमक (sere) कहते हैं। अनुक्रमण की प्रत्येक विकासीय अवस्था क्रमकी अवस्था. (seral stage) कहलाती है। __

क्रमक (seres) दो प्रकार के होते हैं।

(1) प्राथमिक क्रमक या प्रारम्भिक अनुक्रमण (Prisere or Primary succession) (2) उपक्रमक या द्वितीयक अनुक्रमण (Subsere or Secondary succession)

प्रारम्भिक अनुक्रमण के लिए आधार क्षेत्र भी प्रारम्भिक होता है। इस प्रकार के क्षेत्र में पहले कोई वनस्पति नहीं थी। ऐसे क्षेत्र बन्ध्य (sterile) होते हैं तथा जीवन के प्रारम्भ के लिए प्रतिकूल होते हैं, जबकि द्वितीयक अनुक्रमण ऐसे स्थान में होता है जहाँ पहले वनस्पति थी, परन्तु किसी कारण जैसे आग लगना, बाढ़ आना, भूचाल, भूस्खलन आदि से उसके नष्ट होने से वह क्षेत्र नग्न हो गया है। इस प्रकार का क्षेत्र उर्वर (fertile) होता है जो जीवन के लिए अनुकूल होता है। अतः इसमें अनुक्रमण शीघ्र व सरलता से होता है। द्वितीयक अनुक्रमण में 50-100 वर्ष का समय (घास क्षेत्र) तथा 100-200 वर्ष का समय वन-क्षेत्र में लग जाता है। प्राथमिक अनुक्रमण में लगभग 1000 वर्ष का समय लगता है।

प्रश्न 7 – तालाब पारिस्थितिक-तन्त्र का चित्र बनाते हुए इसके जैविक तथा अजैविक घटकों का वर्णन कीजिए। 

उत्तर – तालाब पारिस्थितिक-तन्त्र

(Pond Ecosystem) 

तालाब पारिस्थितिक-तन्त्र के सामान्यत: दो घटक होते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है___

  1. अजैविक घटक (Abiotic Components)-इसके मुख्य घटक हैं–ताप, प्रकाश, पानी का पी-एच, कार्बनिक तथा अकार्बनिक तत्त्व।

(1) अकार्बनिक पदार्थ – ये पदार्थ पोषक तत्त्वों के रूप में पारिस्थितिक-तन्त्र में उपस्थित रहते हैं। इनका उपयोग पहले उत्पादक फिर उपभोक्ता के लिए होता है। खनिज चक्रण में ये जैविक घटकों से मुक्त होकर पर्यावरण में आ जाते हैं; जैसे-सल्फर, कार्बन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन आदि।

(2) कार्बनिक पदार्थ – कार्बनिक पदार्थ मुख्य रूप से कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन, वसा आदि हैं। इनके अपघटन से अकार्बनिक पदार्थ मिलते हैं।

(3) जलवायु – प्रकाश, ताप, वर्षा, जल, आर्द्रता आदि जलवायु के मुख्य घटक हैं। इन पर जैविक घटकों का जीवन तथा वितरण निर्भर करता है।

  1. जैविक घटक (Biotic Components)-ये निम्नलिखित प्रकार के होते हैं

(1) मैक्रोफाइट्स (Macrophytes)-तालाब में विभिन्न प्रकार के जड़ वाले, तैरने वाले तथा अलग-अलग प्रकार के पौधों को मैक्रोफाइट्स कहते हैं; जैसे-ट्रापा, टाइफा, निस्फिया. पोटेमोजिटोन, कारा, हाइड्रिला, वैलिसनेरिया, एजोला, साल्वीनिया, आइकॉर्निया, लेम्ना आदि।

(2) फाइटोप्लैंक्टन (Phytoplanktons)-छोटे-छोटे तैरने वाले पौधे जैसेजिग्निमा यलोथ्रिक्स, स्पाइरोगाइरा, क्लेंडोफोरा, ऊडोगोनियम, कोस्मेरियम. वॉलवॉक्स, डायटम्स आदि। ये सभी उत्पादक (producers) कहलाते हैं। उत्पादक सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में CO, तथा जल की सहायता से भोजन का निर्माण करते हैं।

(3) उपभोक्ता (Consumers) उपभोक्ता उत्पादक द्वारा निर्मित भोजन पर आश्रित हैं। उपभोक्ता निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

(i) प्राथमिक उपभोक्ता (Primary Consumers)-मछलियाँ, कीड़े-मकोड़े, लार्वा, बीटल, माइट्स, मोलस्क्स आदि पौधों को खाते हैं तथा प्राथमिक उपभोक्ता (primary consumers) कहलाते हैं। तालाब में कभी-कभी गाय, भैंस आदि भी उपभोक्ता . (consumers) की तरह से कार्य करते हैं।

(ii) द्वितीयक उपभोक्ता (Secondary Consumers)-ये मांसाहारी होते हैं तथा प्राथमिक उपभोक्ता को खाते हैं: जैसे—कीड़े-मकोड़े तथा कुछ मछलियाँ। – 

(iii) तृतीयक उपभोक्ता (Tertiary Consumers)—ये सभी मांसाहारी होते हैं माद्वितीयक उपभोक्ताओं (secondary consumers) को खाते हैं; जैसे-बड़ी मछलिया।

(4) अपघटक (Decomposers) इन्हें Microconsumers भी कहते हैं; जैसेजलस (Aspergillus), सिफैलोस्फेरियम (Cephalosphaerium), क्लैडोस्पोरियम cuadosporium), पिथियम (Pythium), राइजोपस (Rhizopus), पेनीसिलियम enuclium), आल्टरनेरिया (Alternaria), ट्राइकोडर्मा (Trichoderma), फ्यूजेरियम (Fusarium), कवुलेरिया (Curvularia), सैप्रोलेनिया (Saprolegnia) आदि।

क्रस्टोज लाइकेन नष्ट होने लगते हैं। धीरे-धीरे चट्टान का अपक्षय होने से मिट्टी का निर्माण होता है जो लाइकेन द्वारा ढकी रहती है।

  1. मॉस अवस्था (Moss stage)-लाइकेन के कारण मिट्टी की तह बन जाती है जो मॉस की वद्धि के लिए उपयुक्त होती है। मॉस में मूलाभास (rhizoids) मिलते हैं जो चट्टान में काफी

तक जा सकते हैं। मॉस की अधिकता में लाइकेन नष्ट हो जाते हैं। मॉस के नष्ट होने से मिट्टी में निक पदार्थ बढ़ते जाते हैं। इस अवस्था में नमी भी बनी रहती है। इसमें हिप्नम व ब्रायनम जैसे मॉस मिलते हैं।

  1. वार्षिक घास अवस्था (Annual grass stage)-इस अवस्था का प्रारम्भ नम मिटी की परत पर होता है। वर्षा के मौसम में वार्षिक घास के बीज उगते हैं; जैसे—पोआ, इल्यसीन, एरीस्टिडा आदि। घास की जड़ें चट्टानों में और भीतर तक जाकर उनका अपक्षय करती हैं। घास की जड़ों से मिट्टी बँधी रहती है जिससे यह मिट्टी हवा में नहीं उड़ पाती है। __
  2. शाकीय अवस्था (Herbaceous stage)-चट्टान धीरे-धीरे मिट्टी में बदल जाती है तथा उस पर उगने वाले पौधों के नष्ट होने पर उस मिट्टी में ह्यूमस व कार्बनिक पदार्थ बढ़ते रहते हैं जिससे वह उपजाऊ बन जाती है, तथा उसमें शाकीय पौधे उगना आरम्भ होते हैं। प्रारम्भ में एकवर्षी, फिर द्विवर्षीय तथा अन्त में वर्षानुवर्षी पौधे उगते हैं। इन पौधों की जड़ें काफी गहराई तक चट्टानों में जाती हैं जिससे चट्टानों का विघटन होता रहता है। पादप के नष्ट हुए भागों से ह्यमस व लिटर बनता है। भूमि में नमी बढ़ जाती है। सामान्यतः इस अवस्था में मिलने वाले पौधे सिम्बोपोगोन, हेटरोपोगोन आदि हैं।
  3. झाड़ी अवस्था (Shrub stage)-शाकीय अवस्था के पश्चात् झाड़ी अवस्था आती है। इसमें पौधे बड़े व ऊँचे होने के कारण इनके नीचे की छाया में शाक नष्ट हो जाते हैं। झाड़ी जैसे जिजिफस, रस, रूबस आदि इस अवस्था में ही मिलते हैं।
  4. चरम अवस्था (Climax stage)-इस अवस्था में जल-सह्य वृक्ष उगते हैं जो छाट व जलवायु पर आधारित होते हैं। कम वर्षा वाले क्षेत्र घास-क्षेत्र बनते हैं, अधिक वर्षा वाले क्षत्र वर्षा वनों में रूपान्तरित होते हैं। इस अनुक्रमण में चट्टान हरे-भरे क्षेत्र में बदल जाती है।

प्रश्न 10 – मरुद्भिद् तथा समोद्भिद् पादपों के उदाहरणसहित लक्षण लिखिए। 

उत्तर – मरुद्भिद् (Xerophytes; Xeros = dry, phyton = plant) 

ये पोधे पानी की कमी वाले स्थानों पर उगते हैं। इनको चार भागों में विभक्त किया • गया है-

1. अल्पकालिक या जलाभाव पलायनी पौधे (Ephemerals or drought escaping xerophytes) इन पौधों का जीवन-चक्र छोटा होता है तथा ये सूखे से बच कलने वाले पौधे हैं। ये शुष्क क्षेत्रों (arid zones) में मिलते हैं। इन पौधों में जड़ों की तुलना

में प्ररोह (shoot) की लम्बाई अधिक होती है। ये एकवर्षीय होते हैं। इनके बीज वर्षा के प्रारम्भ में अंकुरित होते हैं। शीघ्र ही इन पर फल. फल तथा बीज बनते हैं। वर्षा के अन्त में पौधों की मृत्यु हो जाती है। बीज भूमि पर रह जाते हैं जो अगले वर्ष, वर्षा के प्रारम्भ में अंकुरित होते हैं; जैसे-सोलेनम जैन्थोकार्पम (Solanum tranthocarpum), आर्जीमोन मेक्सीकाना (Argemone mexicana) आदि।

  1. मांसलोद्भिद् या जलाभाव सहमरुद्भिद् (Succulents or drought resisting xerophytes)-मांसलोद्भिद् वर्षानुवर्षी (perennial) पौधे हैं जो अपने ऊतकों में पानी का संग्रह करते हैं। ये पौधे शुष्क वाताव वाष्पोत्सर्जन को कम करने के लिए इनमें पत्तियाँ काँटों में रूपान्तरित हो जाती हैं। जड, तना मांसल होकर पानी का संग्रह करते हैं जिससे ये जल के अभाव को आसानी से सहन कर लेते हैं; जैसे-नागफनी (Opuntia), घीग्वार (Aloe), ब्रायोफिलम (Bryophyllum) आदि।
  2. मांसलहीन वर्षानुवर्षी (Non-succulent perennials)-इनको जलाभाव सहिष्णु (drought enduring) भी कहते हैं। इनमें जलसंग्रह की कोई विशेष व्यवस्था नहीं होती, परन्तु ये जल की कमी के लम्बे समय को भी सहन करने में सक्षम होते हैं। ये ही वास्तविक मरुद्भिद् (true xerophytes) होते हैं; जैसे-कनेर (Nerium), मदार (Calotropis) आदि। ___
  3. वार्षिक या सूखाहार (Annuals or drought evading)—इन पौधों को पानी की कम आवश्यकता होती है। अत: इनको जलाभाव से बचने वाले मरुद्भिद् (drought evading xerophytes) कहते हैं। वाष्पोत्सर्जन को कम करने तथा नमी को संरक्षित रखने के लिए इनमें आवश्यक रूपान्तरण मिलते हैं; जैसे-एकाइनोप्स (Echinops) आदि।

समोदभिद (Mesophytes; Mesos = intermediate, phyton = plant) :

ये पौधे आर्द्रता तथा तापमान की सामान्य परिस्थितियों में भूमि की सतह पर उगते हैं। ये जलोद्भिद् तथा मरुद्भिद् के बीच की श्रेणी के पौधे हैं। ये पौधे शाक (herb), झाड़ी (shrub) तथा वृक्ष (tree) रूप में मिल सकते हैं। खेतों तथा बाग की सामान्य फसलों के पौधे, पतझड़ वाले तथा सदाबहार वन, झाड़ियाँ तथा चरागाह (meadows) आदि इनके उदाहरण हैं। इनके मुख्य लक्षण अग्र प्रकार हैं।

(1) इन पौधों का मूलतन्त्र (root system) सुविकसित होता है। इनमें द्वितीयक तथा

तृतीयक मूल शाखाएँ बनती हैं। मूल में रूट कैप (root cap) तथा एककोशिकीय

मूलरोम (unicellular root hairs) निकलते हैं। 

(2) इनके तने एरियल (aerial) तथा शाखित होते हैं।

(3) इनकी पत्तियाँ लम्बी, चौड़ी, पतली तथा विभिन्न आकार-प्रकार की हो सकती हैं। 

(4) इनकी बाह्य त्वचा विकसित होती है। सामान्यतः इनमें क्लोरोप्लास्ट नहीं होते हैं। 

(5) बाह्य त्वचा क्यूटिकिल से ढकी रहती है। 

(6) पत्तियों की दोनों सतहों पर स्टोमेटा मिलते हैं। 

(7) पत्तियों की मीसोफिल (mesophyll), पेलीसेड (palisade) तथा स्पंजी ऊतक से बनी होती है। 

(8) इन पौधों में संवहन ऊतक (conducting tissues) तथा यान्त्रिक ऊतक (mechanical tissues) भली प्रकार विकसित होते हैं। 

(9) कोशिकाओं के कोशिकाद्रव्य का परासरण दाब कम होता है। 

(10) ये पौधे ऐसे स्थानों पर उगते हैं जहाँ पर्याप्त वर्षा होती है या लगातार वर्षभर पानी – उपलब्ध होता है। पानी न मिलने पर ये पौधे मुरझा जाते हैं। इन पौधों में कुछ लक्षण मरुद्भिद् पौधों के समान होते हैं जिससे ये पानी की कमी होने पर भी जीवित रह – सकते हैं।

प्रश्न 11 – तापीय कारक का वर्णन कीजिए। पौधों पर ताप के प्रभाव का उल्लेख कीजिए। 

उत्तर – तापीय कारक

(Temperature Factor). 

ताप एक अति महत्त्वपूर्ण कारक हैं जिससे बीजों का अंकुरण, वृद्धि, पुष्पन, बीज व फल का बनना, प्रकाश संश्लेषण, श्वसन, पुष्पों का खिलना आदि क्रियाएँ प्रभावित होती हैं। ताप से जलवायु, वातावरण की आर्द्रता, वनस्पति आदि भी प्रभावित होती हैं।

प्रत्येक जीव को अनुकूलतम (optimum) तापमान की आवश्यकता होती है। इसके … अलावा तापमान सहन (tolerance) करने की अधिकतम (maximum) तथा निम्नतम – (minimum) सीमा होती है। तापमान के आधार पर वनस्पति (vegetation) को चार वर्गों में वर्गीकृत किया गया है_

  1. महातापी (Megatherms)-इन पौधों को अपनी वृद्धि व विकास के लिए लगातार आधिक तापमान चाहिए; जैसे उष्ण कटिबन्धीय वनों की वनस्पति (tropical rain forest)।
  2. मध्यतापी (Mesotherms)-इस क्षेत्र में अधिक तथा कम तापमान का एकान्तरण हाता है; जैसे उपउष्णकटिबन्धीय पर्णपाती वनों की वनस्पति (subtropical deciduous forest)

3. न्यूनतापी (Microtherms)-इस क्षेत्र में तापमान सदा कम रहता है। इन पौधों में भाधक ताप सहन करने की क्षमता नहीं होती है; जैसे मिश्रित शंकुवृक्षी वन (mixed • coniferous forest)

  1. अतिन्यूनतापी (Hekistotherms)-इसमें केवल पर्वतीय (alpine) एवं उत्तरीध्रुव (arctic) क्षेत्रों में उगने वाले पौधे आते हैं। इन पौधों में बहुत कम तापक्रम सहन करने की क्षमता होती है। मिट्टी की तलना में जलाशयों के तापमान में कम उतार-चढ़ाव होता है तथा : जलाशयों के रात और दिन के तापमान में अधिक अन्तर नहीं होता है।

ताप पौधे की वृद्धि को दो प्रकार से नियन्त्रित करता है –

(1) वायुताप (Air temperature) पौधों के तनों, पत्तियों तथा अन्य वाययीव भागों पर प्रभाव डालता है।

(2) भूमि ताप (Soil temperature) भूमिगत भागों की वृद्धि पर प्रभाव डालता है। तापमान तथा वातावरण की आर्द्रता वनस्पति के वितरण पर अपना प्रभाव डालती है। भूमध्य रेखा (equator) से उत्तर-दक्षिण की तरफ या मैदानों से पहाड़ की तरफ तापमान घटता है। भूमध्य रेखा पर तापमान अधिक रहता है तथा ध्रुवों की तरफ घटता जाता है।

ताप का पौधों पर प्रभाव 

(1) ताप का प्रभाव पौधों की शारीरिक बनावट, समस्त जैविक क्रियाओं तथा भौगोलिक वितरण पर पड़ता है। 

(2) कभी-कभी पुष्पों तथा रन्ध्रों का खुलना व बन्द होना ऊष्मा (heat) के कारण ही होता है।

(3) पौधों की उपापचयी क्रियाएँ (metabolic activities) ताप बढ़ने के साथ-साथ निश्चित सीमा के पश्चात् कम भी होने लगती हैं। तापमान में बहुत अधिक नदि होने से कभी-कभी पौधों की मृत्यु हो जाती क्योंकि कोशिकाओं में उपस्थित जीवद्रव्य व बीनों का स्कन्दन (coagulation) हो जाता है। अचानक तापमान में अधिक कमी होने से कोशिकाओं में बर्फ के क्रिस्टल बन जाते हैं। जलभराव व शुष्कन (desiccation) के कारण या रुक जाती हैं तथा कभी-कभी पौधे की मृत्यु तक हो सकती है। कम ताप पर अधे जल का अवशोषण नहीं कर पाते हैं।

(4) प्रकाश संश्लेषण तथा श्वसन पर भी ताप का प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक 10°C ताप नाटने से श्वसन की दर दोगुनी (एक निश्चित सीमा व ताप तक) हो जाती है।

(5) ताप नवोदभिद् (seedling) की वृद्धि को उद्दीपित (stimulate) करता है। 

(6) अधिक ताप से वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है जिससे पानी की हानि अधिक होती है। ताप के प्रभाव से हवा में गति, जल से वाष्प का बनना, वर्षा, समुद्री धाराओं का संचालन, पथ्वी की चट्टानों के टूटने से मिट्टी के कणों का निर्माण आदि बहुत-सी क्रियाएँ होती हैं।

प्रश्न 12 – जलोद्भिद् के मुख्य लक्षणों का उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए। 

उत्तर – जलोद्भिद्

(Hydrophytes) 

जल में मिलने वाले पौधों को जलोद्भिद् कहते हैं। इन पौधों की जड़, तने व पत्ती की बाह्य परत जल तथा जल में घुले हुए पदार्थों के लिए पारगम्य होती है। इन पौधों के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं

(1) जड़ सामान्य तौर पर कम विकसित या अनुपस्थित होती है; जैसे-वोल्फिया

(Wolffia) तथा सिरैटोफिलम (Ceratophyllum)। जड़ों में शाखाओं, मूलरोम (root hair) तथा रूटकैप (root cap) का अभाव होता है; जैसे-लेम्ना (Lemna) तथा पिस्टिया (Pistia)। कुछ जलीय पौधों में रूटकैप के स्थान पर रूट पॉकेट (root pocket) मिलती है; जैसे—समुद्र-सोख (Eichhornia) तथा .

सिंघाड़ा (Trapa) आदि। रूट पॉकेट से पौधों को तैरने में सहायता मिलती है। 

(2) जलीय पौधों के तने कोमल, लचीले (flexible) व स्पंजी (spongy) होते हैं। इन

पर रोम अनुपस्थित होते हैं। 

(3) कुछ जलीय पौधों की पत्तियों के पर्णवृन्त (petiole) लम्बे व स्पंजी (spongy)

होते हैं जिससे पत्तियाँ आसानी से जल की सतह पर तैरती हैं; जैसे—निम्फिया . (Nymphaea), आइकोर्निया (Eichhornia) आदि में पर्णवृन्त फूला — (bulbous) होता है। 

(4) कुछ पौधों की पत्तियों पर मोटी मोम की परत. (waxy coating) मिलती है।

पत्तियाँ फीतेनुमा, लम्बी तथा कटी-फटी हो सकती हैं; जैसे-हाइड्रिला (Hydrilla), पोटेमोजिटोन (Potamogeton) आदि।

(5) कुछ जलीय पौधों में दो प्रकार की पत्तियाँ मिलती हैं। इसको हेटरोफिल्ली ” (heterophylly) कहते हैं। जल के अन्दर मिलने वाली पत्तियाँ, कटी हुई, संकीर्ण – व लम्बी होती हैं, जबकि जल के बाहर मिलने वाली पत्तियाँ अधिक चौड़ी व सम्पूर्ण

होती हैं; जैसे—रेननकुलस एक्वेटिलिस (Rannunculus aquatilis)। 

(6) पौधे बहुवर्षी (perennial) होते हैं। इनमें कायिक जनन (vegetative .

reproduction) होता है। कुछ पौधों में जनन विशेष विधि द्वारा होता है;

जैसे-इलोडिया (Elodea) में खण्डन (fragmentation) द्वारा। 

(7) बाह्य त्वचा (epidermis) पतली भित्ति वाली कोशिकाओं से निर्मित होती है। इसमें

क्लोरोप्लास्ट भी मिलते हैं। कभी-कभी बाह्य त्वचा क्यूटिकिल (cuticle) से

ढकी रहती है। 

(8) कॉर्टेक्स चौड़ा होता है। इसमें सुविकसित वायु स्थान (air space) होते हैं। इसके

कारण पौधे हल्के हो जाते हैं तथा श्वसन व प्रकाश संश्लेषण में गैसीय विनिमय की सुविधा मिलती है।

(9) प्रकाश की कमी के कारण पौधे कमजोर, हल्के तथा पतले. होते हैं। जल के अन्दर मिलने वाले पौधों (submerged hydrophytes) में मीसोफिल (mesophyll), पेलीसेड (palisade) व स्पंजी पैरेनकाइमा (spongy parenchyma) में विभाजित नहीं होती है। इनकी पत्तियों पर निष्क्रिय रन्ध्र (vestigial stomata) मिलते हैं। 

(10) संवहन ऊतक (vascular tissue) कम विकसित होता है। जाइलम व फ्लोएम

संवहन पूल में कम मात्रा में मिलते हैं। जाइलम (xylem) एक या दो वाहिकाओं का बना होता है। कभी-कभी इसमें केवल एक केन्द्रीय गुहा (central cavity)

मिलती है। 

(11) यान्त्रिक ऊतक (mechanical tissue) बहुत कम विकसित या अनुपस्थित होता है। 

(12) द्वितीयक वृद्धि (secondary growth) नहीं मिलती है। जलीय पौधों को निम्नलिखित वर्गों में बाँटा गया है

(i) जलनिमग्न जलोद्भिद् (Submerged hydrophytes) – वे पौधे जो जल के अन्दर रहते हैं तथा एक स्थान से दूसरे स्थान को गति करते रहते हैं, उन्हें जल निमग्न व अजडित जलोद्भिद् कहते हैं; जैसे-सिरैटोफिलम (Ceratophyllum) |

(क) स्वतन्त्र तैरने वाले जलोदभिद (Free floating hydrophytes)-इस वर्ग के पौधे जल की सतह पर स्वतन्त्र रूप से एक स्थान से दूसरे स्थान तक तैरते हैं; जैसे-लेम्ना (Lemna), पिस्टिया (Pistia), एजोला (Azolla), साल्वीनिया (Salvinia), समुद्रसोख (Eichhornia) आदि।

(ख) स्थिर तैरने वाले पौधे (Fixed floating hydrophytes)-इस प्रकार के पौधों में पत्तियाँ पानी की सतह पर तैरती हैं, परन्तु जड़ या राइजोम (rhizome) द्वारा ये तली में । लगे रहते हैं; जैसे-ट्रापा (Trapa), जूसिया (Jussiaea), निम्फिया (Nymphaea), नीलम्बो (Nelumbo) आदि। 

(iii) जलस्थलीय जलोद्भिद् (Amphibious hydrophytes)—ये पौधे. अपेक्षाकृत कम पानी वाले स्थानों में मिलते हैं। इनके भूमिगत भाग प्रायः जल में अथवा जल संतृप्त (water saturated) भूमि में मिलते हैं। पौधों का तना व पत्तियाँ भूमि से ऊपर होती हैं। इन पौधों में जलोद्भिद् व शुष्कोद्भिद् पौधों के लक्षण मिलते हैं। इन पौधों की पत्तियों में भी भिन्नता मिलती है; जैसे-टाइफा (Typha), इलियोकेरिस (Eleocharis), रेननकुलस (Ranunculus) आदि।

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