BSc 1st Year Botany Cercospora Question Answer Notes
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प्रश्न 5 – सर्कोस्पोरा का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर –
सर्कोस्पोरा (Cercospora)
इस कवक से लीफ स्पॉट रोग होता है। स० पर्मोनेटा (C. personata) तथा स० अरैकिडीकोला (C. arachidicola) से मूंगफली का टिक्का रोग होता है। संक्रमण फली बनने से पूर्व मूंगफली उगाने वाले सभी भागों में होता है। उत्तर प्रदेश में इस रोग को चितवा या हल्दई भी कहते हैं। ये नाम रोग के बाह्य चिह्नों की वजह से रखे गए हैं।
रोग के लक्षण (Symptoms of Disease) Notes
पौधे के वायवीय भागों पर रोग का संक्रमण होता है। आरम्भ में रोग के चिह्न जो दोनों कवकों द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं, उनमें कोई विशेष अन्तर नहीं मिलता है. परन्तु बाद में अन्तर स्पष्ट होने लगता है। स० पर्मोनेटा द्वारा उत्पन्न पत्ती के धब्बे अधिक गोलाकार होते हैं। इनका व्यास 1-6 mm होता है। धब्बों के ऊतक मृत क्षेत्र (necrotic regions) कत्थई या काले रंग के होते हैं जो पत्ती की दोनों सतहों पर मिल सकते हैं। आरम्भ में धब्बों के चारों तरफ प्रभा मण्डल (halo) नहीं बनते हैं, परन्तु परिपक्व धब्बों के चारों तरफ हेलो बनते हैं। स० अरैकिडीकोला द्वारा बने धब्बे पर्ण गोलाकार नहीं होते हैं। ये अपेक्षाकृत बड़े होते हैं। इनका व्यास 4-10 mm होता है। प्रत्येक धब्बे के चारों तरफ पीले रंग का प्रभामण्डल (halo) मिलता है। ये निचली सतह पर अधिक स्पष्ट होते हैं। स० सोलेनेसिएरम से मकोय (Solanum nigrum) में रोग होता है। पत्ती पर बड़े धब्बे (spot) मिलते हैं तथा धीरे-धीरे पत्ती सूख जाती है। कोनीडिया बहुत लम्बे होते हैं तथा इनमें पटों (septa) की संख्या भी अधिक होती है।
हेतकी तथा कवक का जीवन–चक्र
(Etiology and Life-cycle of Fungus) Notes
स० पोनेटा में कवकजाल इण्टरसेलुलर (intercellular) स्थानों में मिलता है। कवकजाल से चूषकांग (haustoria) बनते हैं जो शाखित होते हैं। ये पत्ती की मीसोफिल ऊतक में घुसकर भोजन लेते हैं। कवकजाल शाखित, रंगहीन या कत्थई तथा पटयुक्त होते हैं। कोनीडिया उत्पन्न होने पर कवक की पहचान आसानी से हो सकती है। स० पर्सेनेटा के कोनीडियोफोर 24-54u लम्बे तथा 5-8u चौड़े होते हैं। ये पटहीन (कभी-कभी एक या दो पट मिल सकते हैं) होते हैं। जिन स्थानों पर कोनीडिया बन चुके होते हैं, वे आसानी से स्कार (scar) के कारण पहचान में आ जाते हैं। कोनीडियोधर समूह में बाह्य त्वचा को भेदकर बाहर
निकलते हैं। आधार पर ये घनकायी (stromatic) होते हैं। कोनीडिया प्राय: अभिमुग्दराकार (obclavate) अथवा बेलनाकार (cylindrical) होते हैं। ये 18-60u लम्बे तथा 6-11 1 चौड़े हो सकते हैं। प्रत्येक कोनीडियम पटयुक्त (septate) हो सकते हैं इसमें 1-7 तक पट मिल सकते हैं।
स० अरैकिडीकोला का कवकजाल इण्टरसेलुलर तथा इण्ट्रासेलुलर (inter or intracellular) होता है। इसमें चूषकांग नहीं मिलते हैं। कोनीडियोधर पत्ती की दोनों सतहों पर मिलते हैं। कोनीडियोधर हल्का पीला रंग लिए हुए कत्थई रंग के होते हैं। इनके सिरे पर कोनीडिया
विकसित होते हैं। जिस स्थान से कोनीडिया अलग होते हैं, वहाँ एक निशान (scar) शेष रह जाता है। कोनीडियोफोर 22-40 । लम्बे तथा
3-5u चौड़े होते हैं। कोनीडियोफोर जेनीकुलेट (geniculate) होते हैं। ये पटयुक्त तथा पटहीन हो सकते हैं। कोनीडिया अभिमुग्दराकार (obclavate) हल्के पीले रंग के या रंगहीन हो सकते हैं। इनकी लम्बाई 38-104u तथा चौड़ाई 4-6॥ तक हो सकती है। पटों की संख्या 4-12 तक होती है। चित्र में सकोस्पोरा के जीवन-चक्र को रेखांकित किया गया है।
पूर्ण अवस्था (Perfect Stage) Notes
अमेरिका में इस कवक की पूर्ण अवस्था मिली है। स० पसीनेटा की पूर्ण अवस्था माइकोस्फीरिला बरकेलियाई (Mycosphaerella berkeleiyii_W.A. Jenkins) तथा स० अरैकिडीकोला की पूर्ण अवस्था माइकोस्फीरिला अरैकिडीकोला (Mycosphaerella arachidicola-W.A. Jenkins) है। इस रोग का प्रकोप सर्वाधिक सितम्बर माह में होता है। 6-20% फलियाँ रोगग्रस्त हो जाती हैं जिससे उपज 5-25% तक कम हो सकती है।
BSc 1st Year Botany Cercospora Question Answer Notes
रोग का प्रत्यावर्तन
(Recurrence disease) Notes
यह रोग मृदा से उत्पन्न अथवा मृदाजनित रोग (soilborn disease) है। भूमि में पड़े कोनीडिया हवा, कीड़ों, पानी द्वारा पत्ती पर पहुंचकर संक्रमण करते हैं। संक्रमण स्थानसीमित (localized) होता है।
नियन्त्रण (Control)
इसके नियन्त्रण के लिए निम्नलिखित उपाय करने चाहिए _
(1) शस्य आवर्तन (crop rotation), सफाई, खरपतवार, उखाड़ने की क्रिया लाभकारी है। ___
(2)2 :.2 : 50 का बोर्डेक्स मिश्रण, 0.15% पेरीनॉक्स,0-15% क्यप्राविट के छिड़काव से रोग का नियन्त्रण करने में सहायता मिली है। छिड़काव 10-15 दिन के अन्तराल के पश्चात् कई बार होना चाहिए।
(3) रोग प्रतिरोधी जातियों का प्रयोग होना चाहिए; जैसे-12-15A, 11-11, 12-11B PART 14 आदि।
(4) रोगी पादपों को नष्ट कर देना चाहिए।
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