BSc 1st Year Inorganic Long Question Answer Notes
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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
परीक्षा प्रश्न–पत्र में इस खण्ड में चार इकाइयाँ दी जाएंगी। प्रत्येक इकाई में दो प्रश्न होंगे। प्रत्येक इकाई से एक प्रश्न चुनते हुए, कोई चार प्रश्न हल कीजिए।
Unit I
प्रश्न 1. श्रोडिंगर तरंग समीकरण को व्युत्पन्न कीजिए। यह किस प्रकार बोर सिद्धान्त को समझाने में सहायक है? फलन 𝛙 तथा 𝛙2 की सार्थकता को समझाइए।
अथवा श्रोडिंगर तरंग समीकरण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर: श्रोडिंगर तरंग समीकरण
दे-ब्रॉग्ली के विचार से आरम्भ करते हुए श्रोडिंगर ने तरंग-यान्त्रिकी (wave mechanics) सिद्धान्त का प्रतिपादन किया तथा एक गणितीय समीकरण प्रस्तुत की जो इलेक्ट्रॉन की अवस्था को उसकी संहति (m), कुल ऊर्जा (E), नाभिक के सापेक्ष स्थितिज ऊर्जा (प्लांक स्थिरांक (h) तथा एक संख्या ψ जिसको इलेक्ट्रॉन का तरंग फलन कहते हैं, के पदो में बताती है। इस समीकरण को श्रोडिंगर तरंग समीकरण कहते हैं। इसको हम एक अक्ष (X-अक्ष) में तरंग गति के सामान्य अवकलन समीकरण से प्राप्त कर सकते हैं।
तरंग गति का समीकरण निम्नलिखित है
Bsc 1st Year Inorganic Long Question Answer Notes
फलन ψ तथा ψ2 की सार्थकता-यदि हम कम्पन करती हुई एक डोरी ले जा निकाय में कम्पन का आयाम (amplitude) भिन्न-भिन्न समय पर डोरी की स्थिति दिखान इसी प्रकार के प्रत्येक गतिक निकाय में फलन ψ प्रत्येक समय पर निकाय की विभिन्न रिया को दिखाता है। यदि अलग-अलग समयों पर कम्पन करती हुई डोरी का आयाम बनाया जा चित्र अंतरिक्ष (space) में उस आयाम को दिखाएगा जिसमें डोरी किसी भी समय पर जाती है।
तरंग समीकरण में E का प्रयोगात्मक मान रखकर x,y,z के मानों को आलेखित । से नाभिक के चारों ओर अंतरिक्ष में बिन्दुओं का एक त्रिविमीय चित्र प्राप्त होता है, जो इलेक के किसी जगह पर पाए जाने की सम्भावना को व्यक्त करता है। इसे कक्षक (orbital) इलेक्ट्रॉन का सम्भावित भाग कहते हैं।
स्वतन्त्र इलेक्ट्रॉन कितनी भी ऊर्जा अवशोषित या उत्सर्जित कर सकता है। अत: उस तरंगदैर्घ्य तथा आयाम का कोई भी मान हो सकता है। जब इलेक्ट्रॉन परमाणु का भाग होता है – नाभिक का आकर्षण उस पर परिसीमा प्रतिबन्ध लगा देता है तथा कुछ ही कम्पन मोड़ सकते हैं। तरंग फलन के आयाम के लिए निम्नलिखित परिसीमा प्रतिबन्ध हैं
(1) किसी भी बिन्दु पर आयाम का मान न तो अपरिमित हो और न ही निर्देशांकों के सभी मानों के लिए शून्य ही हो।
(2) सभी बिन्दुओं के लिए मान एक ही हो।
इन परिसीमा-प्रतिबन्धों के कारण E के केवल कुछ मान ही सम्भव हैं, जिन्हें इलेक्ट्रॉ प्राप्त कर सकता है।
फलन ψ2-मैक्स बॉर्न के अनुसार, 12 किसी कण के एक निश्चित स्थान पर दि गए समय पर पाए जाने की सम्भावना को बताता है। दूसरे शब्दों में, ψ2 एक इकाई आयतन इलेक्ट्रॉन के पाए जाने की सम्भावना को बताता है। किसी छोटे से आयतन (dx, dy, dz) इलेक्ट्रॉन की उपस्थिति की सम्भावना ψ2 dx,dy,dz = ψdV होती है (जहाँ dV = नाभिक के चारों ओर छोटा-सा आयतन है जो r तथा r + dr त्रिज्या वाले गोलों के मध्य में है)। इलेक्ट्रॉन के भिन्न-भिन्न स्थानों पर पाए जाने की सम्भावनाएँ भिन्न-भिन्न होंगी। इ सभी को जोड़ने पर योग इकाई आएगा।
किसी भी इलेक्ट्रॉन के नाभिक से दूरी r पर पाए जाने की सम्भावना pr सदैव ψ2 r2 समानुपाती होती है।
प्रश्न 2. इलेक्ट्रॉन की द्वैती प्रकृति से आप क्या समझते हैं? दे–ब्रॉग्ली समीकरण की व्यत्पत्ति कीजिए। घूमने वाले इलेक्ट्रॉनों की द्वैती प्रकृति का प्रयोगात्मक सत्यापन कैसे करेंगे?
अथवा दे–ब्रॉग्ली का समीकरण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : आइन्स्टाइन (1905) ने बताया कि प्रकाश की प्रकृति द्वैती (dual) होती है अर्थात यह कण तथा तरंग दोनों की तरह व्यवहार करता है। दे-ब्रॉग्ली (1924) ने बताया कि गति करने वाले सभी कणों; जैसे-इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, परमाण, अणु इत्यादि की प्रकति भी द्वैती होती है। दे-ब्रॉग्ली के अनुसार, किसी परमाणु में घूमने वाला प्रत्येक इलेक्ट्रॉन द्रव्य कण है जिसमें तरंग के गुण पाए जाते हैं तथा इन्होंने इलेक्ट्रॉन की तुलना फोटॉन से की।
दे-ब्रॉग्ली के अनुसार, किसी कण जिसकी संहति m तथा वेग υ है, की तरंगदैर्घ्य λ निम्नलिखित सम्बन्ध के द्वारा दी जाती है
जहाँ h प्लांक स्थिरांक तथा mυ कण का संवेग है।
दे–बॉग्ली समीकरण की व्युत्पत्ति— किसी इलेक्ट्रॉन की कण तथा तरंग प्रकृति के बीच का सम्बन्ध दे–ब्रॉग्ली सम्बन्ध कहलाता है। प्लांक के अनुसार, किसी विकिरण के एक क्वान्टम की ऊर्जा निम्नलिखित सम्बन्ध के द्वारा दी जाती है
E = hυ
आइन्स्टाइन के अनुसार, संहति तथा ऊर्जा निम्नलिखित प्रकार से सम्बन्धित होते हैं
E = mc2
जहाँ c प्रकाश का वेग है।
उपर्युक्त दोनों समीकरणों को संयुक्त करने पर—
जहाँ p कण का संवेग है। इसकी सहायता से परमाणु तरंगों की तरंगदैर्घ्य ज्ञात की जा सकती है।
इलेक्ट्रॉनों की द्वैती प्रकृति का प्रयोगात्मक सत्यापन
इलेक्ट्रॉनों की कण तथा तरंग प्रकृति का प्रयोगात्मक सत्यापन निम्नलिखित प्रयोगों के द्वारा किया जाता है—
- 1.कण प्रकृति— इलेक्ट्रॉनों में कणों की विशेषताएँ पायी जाती हैं। इनकी संहति, गतिज ऊर्जा, संवेग तथा आवेश निश्चित होता है। जब कोई इलेक्ट्रॉन जिंक सल्फाइड स्क्रीन से टकराता है तो यह प्रतिदीप्ति उत्पन्न करता है। यह देखा गया है कि टकराने वाला प्रत्येक इलेक्ट्रॉन केवल ही स्थान पर प्रतिदीप्ति उत्पन्न करता है। इससे यह प्रदर्शित होता है कि टकराने वाला इलेक्ट्रॉन पड ही स्थान पर निहित है तथा तरंग की तरह फैला हुआ नहीं है, अत: इलेक्ट्रॉन कण की तरह व्यवहार करता है। इलेक्ट्रॉनों की कण प्रकृति इस तथ्य से भी प्रकट होती है कि कैथोड किरणें (इले काना का पुंज) इनके मार्ग में रखे हल्के पदक पहिये को घुमा देती हैं।
- तरंग प्रकृति— इलेक्ट्रॉनों की तरंग प्रकृति का सत्यापन डेविसन तथा जर्मर (1972 के प्रयोग द्वारा किया जाता है (चित्र-6)। इन्होंने इलेक्ट्रॉनों के एक पुंज को गर्म टंगस्टन तन्तु । प्राप्त करके इनकी गति को प्रबल चुम्बकीय क्षेत्र की सहायता से त्वरित किया। जब ये इलेक्ट्रॉन निकिल क्रिस्टल से टकराते हैं तो स्क्रीन पर समकेन्द्रीय काले तथा चमकदार वलय प्राप्त हो हैं। क्रिस्टल के द्वारा इलेक्ट्रॉनों की सहायता से प्राप्त ये वलय X-किरणों से प्राप्त वलय के समान थे। X-किरणों की प्रकृति क्योंकि तरंगीय होती है, अत: इलेक्ट्रॉनों की भी प्रकृति तरंगीत होगी। अत: यह प्रयोग इलेक्ट्रॉनों की तरंग प्रकृति का स्पष्ट प्रमाण है।
प्रश्न 3. क्वान्टम संख्या से आप क्या समझते हैं? चारों क्वान्टम संख्याओं की जना कीजिए तथा परमाणु में इलेक्ट्रॉन की विवेचना में इनके महत्त्व को भी समझाइए।
उत्तर : क्वान्टम संख्या
परमाणु में इलेक्ट्रॉन नाभिक से एक विशेष दूरी पर स्थित होता है तथा इसमें ऊर्जा की एक निश्चित मात्रा निहित होती है। इलेक्ट्रॉन की विभिन्न सम्भव अवस्थाएँ क्वान्टम यांत्रिकी के नियमा द्वारा स्पष्ट की जाती हैं तथा इन अवस्थाओं को पहचानने के लिए जो संख्याएँ प्रयुक्त होती हैं, उन्हें स्वान्टम संख्याएँ कहते हैं। ये निम्नलिखित चार प्रकार की होती हैं
- मुख्य क्वान्टम संख्या (n)- इस क्वान्टम संख्या से इलेक्ट्रॉन की कक्षाओं के आकार का ज्ञान होता है। यह संख्या इलेक्ट्रॉन का उसकी कक्षा में स्थान तथा उसकी ऊर्जा को प्रदर्शित करती है। n का मान 1, 2, 3, 4, … आदि कोई भी पूर्णांक हो सकता है जिन्हें क्रमश: K.L.M.N….. आदि कक्षाएँ भी कहते हैं। n का मान बढ़ने के साथ इलेक्ट्रॉन की कक्षा का आकार भी बड़ा होता जाता है। दूसरे शब्दों में, नाभिक से इलेक्ट्रॉन की दूरी बढ़ने के साथ-साथ इसकी ऊर्जा भी बढ़ती जाती है। किसी कक्षा में इलेक्ट्रॉनों की अधिकतम संख्या 2n2 के बराबर होती है अर्थात् K, L,M कक्षों में 2, 8, 18, … इलेक्ट्रॉन होते हैं। गणितानुसार,
mυr = nh/2π
- दिगंशी या एजीमूथल क्वान्टम संख्या (1)— इस क्वान्टम संख्या को सहायक या गौण क्वान्टम संख्या भी कहते हैं। इस क्वान्टम संख्या से कक्षक के आकार का ज्ञान होता है अर्थात् यह ज्ञात होता है कि कक्षक गोलाकार, डम्बल या किसी और प्रकार का है। इससे किसी कोश के उपकोशों की संख्या तथा उनके आकारों का भी ज्ञान होता है। ι = 0, 1, 2, 3, वाले उपकोश प्रायः 8, p. d तथा f द्वारा प्रकट किए जाते हैं। दिगंशी क्वान्टम संख्या का मान मुख्य क्वान्टम संख्या (n) के मान पर आधारित होता है। n के किसी मान के लिए ι का मान 0 से लेकर (n – 1) तक हो सकता है।
n के किसी मान के लिए s इलेक्ट्रॉनों में, p इलेक्ट्रॉनों की अपेक्षा थोड़ी कम ऊर्जा होती है और इसी प्रकार p में d से कम व d में f इलेक्ट्रॉनों से कम ऊर्जा होती है। दूसरे शब्दों में, किसी ऊर्जा स्तर में उप-ऊर्जा स्तरों का क्रम s < p < d < f होता है।
मुख्य क्वान्टम संख्या (n) | दिगंशी क्वान्टम संख्या (1)| | उपकोश |
1 | 0 | s |
2 | 0,1 | s,p |
3 | 0,1,2 | s,p,d |
4 | 0,1,2,3 | s,p,d,f |
- चुम्बकीय क्वान्टम संख्या (m)- यह क्वान्टम संख्या किसी उपकोश में क.. की संख्या का ज्ञान कराती है। चुम्बकीय क्षेत्र में तत्वों के स्पेक्ट्रम से सिद्ध हुआ है 8-उपकोश के अतिरिक्त अन्य उपकोश कम ऊर्जा अन्तर वाले कक्षको से मिलकर , होते हैं जैसे । उपकोश px, py, pz, तीन कक्षकों में विभाजित होता है जो क्रमशः x,y z-अक्ष की ओर निर्देशित होते हैं। इसी प्रकार, d-उपकोश पाँच तथा f-उपकोश : कक्षकों में बँटा होता है। इन कक्षकों की व्याख्या चुम्बकीय क्वान्टम संख्या द्वारा व्यक्त , जाती है। m का – ι से+ ι तक, शून्य को सम्मिलित करके कोई भी मान हो सकता है अर्थात m के कुल मान = (2 ι + 1)।
ι के मान | उपकोश | m के मान | m के कुल मान |
0 | s | 0 | 1 |
1 | p | -1,0,+1, | 3 |
2 | d | -2,-1,0,+1,+2, | 5 |
3 | f | -3,-2,-1,0,+1,+2,+3 | 7 |
गणितानुसार; m= ι cos 𝛉
- चक्रण क्वान्टम संख्या (s)- नाभिक के चारों ओर विभिन्न कक्षाओं में घूमने व इलेक्ट्रॉन अपनी अक्ष पर लटू की भाँति चक्कर लगाते रहते हैं जिस कारण इलेक्ट्रॉन में – कोणीय संवेग उत्पन्न हो जाता है। इस कोणीय संवेग का प्रभाव इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा – पड़ता है। इस कोणीय संवेग (जिसको चक्रण ऊर्जा भी कहते हैं) को व्यक्त करने के चक्रण क्वान्टम संख्या का प्रयोग किया जाता है। इलेक्ट्रॉन का घूमना कभी भी पूर्ण नहीं है। वह आधा या तो दक्षिणावर्त (clockwise ↑) दिशा में अथवा वामावर्त (anticlockwise ↓) दिशा में घूमता है। अतः s के दो मान होते हैं, दक्षिणावर्त s का मान + 12 और वामावर्त s का मान – 12माना जा सकता है। (यद्यपि इसका विपरीत भी सम्भव है।)
गणितानुसार, कोणीय संवेग,
निम्नांकित तालिका में चारों क्वान्टम संख्याएँ तथा इलेक्ट्रॉन का वितरण दिया गया है
प्रश्न 4. (अ) हाइजेनबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धान्त पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : हाइजेनबर्ग का अनिश्चितता सिद्धान्त
हमारे दैनिक जीवन में समस्त गतिशील वस्तुओं का सुस्पष्ट पथ अथवा प्रक्षेप-पथ होता है। किसी वस्तु का पथ अथवा प्रक्षेप-पथ विभिन्न समयान्तरालों पर इसकी स्थिति तथा वेग को ज्ञात करके जाना जा सकता है। यद्यपि सन् 1927 ई० में जर्मन भौतिकशास्त्री वर्नर हाइजेनबर्ग ने बताया कि हम इलेक्ट्रॉन के समान किसी भी सूक्ष्म कण की स्थिति एवं वेग दोनों को यथार्थ रूप में कभी माप नहीं सकते। अत: इलेक्ट्रॉन का प्रक्षेप-पथ ज्ञात करना सम्भव नहीं है।
इस आधार पर हाइजेनबर्ग ने एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसे ‘हाइजेनबर्ग का अनिश्चितता सिद्धान्त’ कहते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार,
“किसी गतिशील सूक्ष्म–कण जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन आदि की स्थिति तथा संवेग (या वेग ) दोनों का एक साथ परम यथार्थ अथवा निश्चित रूप से मापन करना असम्भव है।”
गणितीय रूप में, अनिश्चितता सिद्धान्त को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है तथा संवेग में अनिश्चितता का गुणनफल सदैव नियत होता है।
स्थिरता का अर्थ है
- यदि ∆x कम है अर्थात् कण की स्थिति को यथार्थता के साथ मापा गया है तो ∆p अधिक होगा अर्थात् कण के संवेग में अधिक अनिश्चितता होगी।
- यदि ∆p कम है अर्थात् कण के संवेग को यथार्थता के साथ मापा गया है तो ∆x अधिक होगा अर्थात् कण की स्थिति में अधिक अनिश्चितता होगी।
अन्य शब्दों में, यदि कण की स्थिति को यथार्थता के साथ मापा जाता है, तब संवेग के मापन में अधिक त्रुटि होगी। इसके विपरीत, यदि संवेग को यथार्थता के साथ मापा जाता है, तब स्थिति के मापन में अधिक त्रुटि होगी।
चूँकि संवेग p= mυ, इसलिए ∆p = m∆υ) क्योंकि द्रव्यमान नियत होता है। इस प्रकार हम उपर्युक्त समीकरण को निम्नलिखित प्रकार से लिख सकते हैं—
इसका भी यह अर्थ है कि किसी वस्तु के वेग तथा उसकी स्थिति को एक साथ यथार्थ रूप में नहीं मापा जा सकता।
प्रश्न 4. (ब) पाउली का अपवर्जन सिद्धान्त क्या है? उदाहरण सहित समझाइए। अथवा पाउली के अपवर्जन नियम पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : पाउली का अपवर्जन नियम
सन् 1925 ई० में ऑस्ट्रियन वैज्ञानिक वोल्फगांग ई० पाउली (Wolfgang E. Pauli) ने स्पेक्ट्रम विज्ञान के तथ्यों के आधार पर इलेक्ट्रॉनों की क्वान्टम संख्याओं से
सम्बन्धित एक नियम प्रस्तुत किया था। इसी कारण इस नियम को पाउली का अपवर्जन नियम कहा गया। इस नियम के अनुसार—
“एक ही परमाणु के किन्हीं दो इलेक्ट्रॉनों की चारों क्वान्टम संख्याएँ समान नहीं होती हैं।”
इस नियम के अनुसार, यदि किसी परमाणु के दो इलेक्ट्रॉनों की मुख्य क्वान्टम संख्या (n), दिगंशी क्वान्टम संख्या (ι), चुम्बकीय क्वान्टम संख्या (m) समान भी हैं तो चौथी चक्रण क्वान्टम संख्या (s) का मान अवश्य ही उनमें भिन्न होगा। इस क्वान्टम संख्या में पहले इलेक्ट्रॉन के लिए s का मान + 1/2 तथा दूसरे इलेक्ट्रॉन के लिए s का मान -1/2 होता है क्योंकि दोनों इलेक्ट्रॉन एक-दूसरे के विपरीत दिशा में (↑↓) चक्रण करते हैं।
उदाहरण– K-कोश में अधिकतम दो इलेक्ट्रॉन s-उपकोश में रहते हैं। इस K-कोश के पहले इलेक्ट्रॉन (1s1) हेतु मुख्य क्वान्टम संख्या (n) का मान = 1, दिगंशी क्वान्टम संख्या (ι) का मान = 0 तथा चुम्बकीय क्वान्टम संख्या (m) का मान = 0 तथा चक्रण क्वान्टम संख्या (s) मान = 1/ι का मान = 0, m का मान = 0 होता है, परन्तु s का मान = – 1/2 होता है, अतः इस कोश के दोनों इलेक्ट्रॉनों के लिए n, ι व m के मान बराबर हैं, परन्तु s के मान एक-दूसरे से भिन्न हैं जिससे सिद्ध होता है कि किसी भी परमाणु के किन्हीं दो इलेक्ट्रॉनों के लिए चारों क्वान्टम संख्याओं के मान समान नहीं होते हैं।
इस नियम की सहायता से मुख्य ऊर्जा-स्तर (कोश या शैल), उपऊर्जा-स्तर (सबशैल या उपकोश) तथा ऑर्बिटल (कक्षक) में उपस्थित इलेक्ट्रॉनों की अधिकतम संख्या और उन इलेक्ट्रॉनों की चारों क्वान्टम संख्याएँ निर्धारित की जा सकती हैं।
पाउली के अपवर्जन नियम की सहायता से L-कोश के लिए n = 2 है, अतः । के दो मान होंगे, जो ι = 0 व 1 हैं इस प्रकार, m के तीन मान होंगे, जो m = – 1, 0, +1 हैं तथा m के प्रत्येक मान हेतु s के दो मान + 1/2 व -1/2 होंगे। इसी प्रकार, यदि एक परमाणु के किन्हीं दो इलेक्ट्रॉनों के n. I, s के मान समान हैं तो उनके m मान भिन्न होंगे। इस प्रकार अपवर्जन के आधार पर चारों क्वान्टम संख्याओं के आठ क्रमचय (permutation) बन सकते हैं।
n=2 | ι+0 | m=0 | s=+1/2 |
n=2 | ι+0 | m=0 | s=-1/2 |
n=2 | ι+1 | m=-1 | s=+1/2 |
n=2 | ι+1 | m=-1 | s=-1/2 |
n=2 | ι+1 | m=0 | s=+1/2 |
n=2 | ι+1 | m=0 | s=-1/2 |
n=2 | ι+1 | m=+1 | s=+1/2 |
n=2 | ι+1 | m=+1 | s=-1/2 |
इस प्रकार L-कोश में आठ इलेक्ट्रॉन रह सकते हैं जिसमें दो इलेक्ट्रॉन ι = 0 उपकोष (s-उपकोश) में तथा 6 इलेक्ट्रॉन ι = 1 उपकोश (p-उपकोश) में होंगे।
प्रश्न 5. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए
(अ) ऑफबाऊ का नियम।
(ब) हुण्ड का उच्चतम बहुलता का नियम।
उत्तर : (अ) ऑफबाऊ का नियम– परमाणुओं के विकास के अन्तर्गत प्रत्येक तल । एक इलेक्ट्रॉन की वृद्धि होती है तथा इलेक्ट्रॉन कक्षाओं में एक क्रम से भरते जाते हैं। इस क्रम । समझाने के लिए एक नियम है, जिसे ऑफबाऊ का नियम कहते हैं ( ऑफबॉ= बनाने वाला )।
इस नियम के अनुसार, विभिन्न कक्षकों में इलेक्ट्रॉन का प्रथम प्रवेश उपल न्यूनतम ऊर्जा वाले कक्षकों में होता है और इलेक्ट्रॉन एक–एक करके ऊर्जा के वन क्रम वाले कक्षकों में प्रवेश पाते हैं। विभिन्न कक्षकों में इलेक्ट्रॉनों का प्रवेश । इलेक्ट्रॉनों के सुरक्षित रूप से कक्षकों में स्थान पाने तक जारी रहता है। कक्षको में इलेकर का भरना मुख्य क्वान्टम संख्या (n) तथा दिगंशी क्वान्टम संख्या (ι) पर निम्नलिखित प्रक से निर्भर करता है
(1) वह कक्षक जिसके लिए (n + ι) का मान न्यूनतम होता है, सर्वप्रथम भरता है।
(2) यदि दो कक्षकों के (n + ι) के मान समान होते हैं तो वह कक्षक पहले भरता है जिसके लिए n का मान न्यूनतम है।
विभिन्न कक्षकों के लिए (n + ι ) के मान इस प्रकार हैं
(n+ 1) | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 |
कक्षक |
1s | 2s | 2p
3s |
3p
4s |
3d
4p 5s |
4d
5p 6s
|
4f
5d 6p 7s |
5f
6d 7p |
अत: कक्षकों या उपऊर्जा स्तरों के इलेक्ट्रॉन के भरने का क्रम निम्नांकित है 1s < 2s < 2 p< 3s < 3p<4s <3d<4p<5s<4d <5p<6s <4f<5d <6p< 7s <5f<6d <7p
उदाहरण- 4p तथा 3d दोनों के लिए (n + ι) का मान क्रमशः (4 + 1) = 5 तथा (3 + 2) = 5 है। यहाँ 3d में n का मान कम है, अतः इलेक्ट्रॉन पहले 3 d-कक्षक में प्रवेश करेगा।
ऑफबाऊ सिद्धान्त के अनुसार जब 3s तथा 3p-कक्षक पूरे भर जाते हैं तो अगला इलेक्ट्रॉन 3d-कक्षक में प्रवेश करने की अपेक्षा 4s-कक्षक में प्रवेश करता है क्योंकि 3d कक्षक की अपेक्षा 4s-कक्षक निम्न ऊर्जा स्तर पर होता है जैसे पोटैशियम तथा कैल्सियम का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास इस प्रकार है—
19K = 1s2,2s2, 2p6, 3s2 ,3p6, 4s1 (एक अयुग्मित इलेक्ट्रॉन)
20Ca = 1s2 2s2 2p6, 3s2 3p6, 4s2 (कोई अयुग्मित इलेक्ट्रॉन नहीं है)
(ब) हुण्ड का उच्चतम बहुलता का नियम
हुण्ड के नियम के अनुसार, “किसी उपकोश के विभिन्न कक्षकों में इलेक्ट्रॉन तभी युग्मित होते हैं, जब उस उपकोश के सभी सम्भव कक्षकों में एक–एक इलेक्ट्रॉन भर जाता है। इलेक्ट्रॉन जब युग्मित होते हैं तो युग्म के दोनों इलेक्ट्रॉन विपरीत चक्रण वाले होते हैं।“
इस नियम के अनुसार s- कक्षक में दूसरे इलेक्ट्रॉन के प्रवेश पर, p-कक्षक में चौथे इलेक्ट्रॉन के प्रवेश पर. d-कक्षक में छठे इलेक्ट्रॉन के प्रवेश पर तथा f-कक्षक में आठवें इलेक्ट्रॉन के प्रवेश पर युग्मन आरम्भ होता है।
किसी उपकोश के कक्षकों में इलेक्ट्रॉनों की व्यवस्था को आयताकार आरेखों द्वारा प्रदर्शित करते हैं। इन आरेखों में उपकोशों को आयतों से, कक्षकों को बॉक्सो से तथा इलेक्ट्रॉन को उनके चक्रण के अनुसार विपरीत दिशा में बनाए गए तीर (↑↓) (arrow) के चिह्नों से प्रदर्शित करते हैं।
प्रश्न 6. (अ) हाइड्रोजन परमाणु में-(i) त्रिज्य प्रायिकता घनत्व, (R2) तथा (ii) त्रिज्य प्रायिकता फलन, (4πr2-R2) से क्या जानकारियाँ प्राप्त होती हैं? हाइड्रोजन परमाणु के 1s-कक्षक के लिए r के साथ ये किस प्रकार परिवर्तित होते हैं? चित्र द्वार प्रदर्शित कीजिए।
उत्तर : (i) त्रिज्य प्रायिकता घनत्व (R2)-यह एक निश्चित त्रिज्य रेखा के अनुदि किसी बिन्द पर इलेक्ट्रॉन के पाए जाने की प्रायिकता को व्यक्त करता है। 1s-कक्षक के लिए r के साथ इसका परिवर्तन चित्र-8 (A) में प्रदर्शित है।
प्रश्न 6. (ब) (i) एक वस्तु 100 मीटर–सेकण्ड –1 के वेग से घुम रही है। इसकी द–बाग्ली तरंग लम्बाई 5 x 10-10 ” मीटर है। वस्त का द्रव्य मान ज्ञात कीजिए |
(ii) 1. 66 x 10-27 किग्रा द्रव्यमान तथा 5 x 10-27 जुल गतिज ऊर्जा वाले गतिशील प्रोटॉन से सम्बन्धित दे–बॉग्ली तरंग की तरंगदैर्घ्य की गणना कीजिए।
प्रश्न 7. विद्यत ऋणात्मकता को समझाइए। यह आवर्त व वर्ग में कैसे परिवर्तित होती है? पोलिंग स्केल से आप क्या समझते हैं? आयनन विभव और इलेक्ट्रॉन–बन्धुता से इसका क्या सम्बन्ध है?
अथवा विद्यत ऋणीयता से आप क्या समझते हैं? इसे किस प्रकार ज्ञात किया जाता है? इसे प्रभावित करने वाले कारक कौन–कौन से हैं तथा समूह में एवं आवर्त में यह कैसे परिवर्तित होती है?
उत्तर : विद्युत ऋणात्मकता
किसी परमाण द्वारा किसी अणु में बन्धित इलेक्ट्रॉन युग्म को अपनी ओर आकर्षित करने का क्षमता को उस परमाण की विद्यत ऋणात्मकता कहते हैं।
दो भिन्न विद्यत ऋणात्मकता वाले तत्वों के सहसंयोजक बन्ध बनाने पर यौगिक (जैसे-H-CI) ध्रुवीय होता है अर्थात् इलेक्ट्रॉनों का बन्धित युग्म अधिक विद्युत ऋणात्मक तत्व (Cl) की तरफ आकर्षित हो जाता है।
Hδ+−CIδ–
विद्युत ऋणात्मकता के मान में आवर्त सारणी के आवर्त और वर्ग में परिवर्तन
आवर्त में बायीं से दायीं ओर जाने पर विद्युत ऋणात्मकता का मान बढ़ता जाता है क्योंकि परमाणु क्रमांक में वृद्धि के साथ परमाणु त्रिज्याएँ घटती हैं।
II आवर्त | Li | Be | B | C | N | O | F |
1.0 | 1.5 | 2.0 | 2.5 | 3.0 | 3.5 | 4.0 |
समूह में ऊपर से नीचे की ओर आने पर (परमाणु आकार बढ़ने के कारण) इसका म कम होता जाता है।
I-A वर्ग | Li | Na | K | Rb | Cs | Fr |
1.0 | 0.9 | 0.8 | 0.8 | 0.7 | 0.7 |
अक्रिय या उत्कृष्ट गैसों में इलेक्ट्रॉनों को आकर्षित करने की प्रवृत्ति नहीं होती है 3 उनकी विद्युत ऋणात्मकता शून्य होती है।
पोलिंग का विद्युत ऋणात्मकता पैमाना– पोलिंग (1932) ने कुछ मुख्य तत्वों के बन्ध ऊर्जाओं की सहायता से तत्वों के परमाणु के लिए एक विद्युत ऋणात्मकता पैमाना बन्ध ऊर्जा मापन से विद्युत ऋणात्मकता अन्तरों की गणना की जा सकती है।
यदि द परमाणुओं A तथा B के मध्य बना बन्ध शुद्ध सहसंयोजक है तो A – B बन्ध की ऊर ‘A – A तथा B – B बन्ध को ऊर्जाओं का माध्य होगा, परन्तु निरीक्षण से पता चलता है कि उर्जा A – B बन्ध ऊर्जा गणना से प्राप्त ज्यामितीय माध्य से अधिक होती है। यह अन्तर A – B बन्ध के शुद्ध सहसंयोजक बन्ध से विचलन को प्रकट करता है। पोलिंग ने ऊर्जा के इस अन्न को आयनिक अनुनाद (∆) ऊर्जा कहा। गणितीय रूप में,
तत्वों को निश्चित विद्युत ऋणात्मकता मान देने के लिए निश्चित तत्वों का चुनाव कर अनिवार्य है। पोलिंग ने हाइड्रोजन के लिए इसका मान 2. 1 माना। पोलिंग स्केल (पैमाना 10 – 7 से 4 . 0 तक अग्रांकित सारणी के अनुसार बदलता है—
वर्ग→I-A | II-A | III-A | IV-A | V-A | VI-A | VII-A |
Li
1.0 |
Be
1.5 |
B
2.0 |
C
2.5 |
N
3.0 |
O
3.5 |
F
4.0 |
Na
0.9 |
Mg
1.2 |
Al
1.5 |
Si
1.8 |
P
2.1 |
S
2.5 |
Cl
3.0 |
K
0.8 |
Ca
1.0 |
Ga
1.8 |
Ge
1.8 |
As
2.0 |
Se
2.4 |
Br
2.8 |
Rb
0.8 |
Sr
1.0 |
In
1.7 |
Sn
1.7 |
Sb
1.8 |
Te
2.1 |
I
2.5 |
Cs
0.7 |
Ba
0.9 |
आयनन विभव और इलेक्ट्रॉन बन्धुता से इसका सम्बन्ध
मुलिकन के अनुसार किसी एक संयोजक (monovalent) परमाणु की विद्युत ऋणात्मकता का मान (X), आयनन विभव (I) और इलेक्ट्रॉन-बन्धुता (E) के औसत मान के बराबर होता है।
विद्युत ऋणात्मकता को प्रभावित करने वाले कारक
विद्युत ऋणात्मकता को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं
(1) उच्च ऑक्सीकरण अवस्था में विद्युत ऋणात्मकता अधिक होती है।
(2) परमाणु आकार बढ़ने पर विद्युत ऋणात्मकता का मान घटता है क्योंकि नाभिक के दूर होने से इलेक्ट्रॉनों को आकर्षित करने की क्षमता कम होती जाती है। ।
(3) नाभिकीय आवेश बढ़ने से विद्युत ऋणात्मकता बढ़ती है।
(4) संकरण- s-कक्षक का गुण बढ़ने पर विद्युत ऋणात्मकता का मान बढ़ता है।
प्रश्न 8. (अ) आयनिक त्रिज्या से आप क्या समझते हैं? आवर्त सारणी के समूह तथा आवर्त में यह कैसे परिवर्तित होती है? रासायनिक व्यवहार को समझाने में इसके अनुप्रयोग क्या हैं?
उत्तर : आयनिक त्रिज्या
आयनिक त्रिज्या किसी आयन के नाभिक के केन्द्र तथा बाह्यतम कक्षा के इलेक्ट्रॉन मेघ के बीच की दूरी होती है। इलेक्ट्रॉन मेघ की निश्चित सीमा ज्ञात करना संभव नहीं है, अत: किसी आयनिक यौगिक में आयनिक त्रिज्या एक्स-किरण विधि से दो नाभिकों के बीच की दूरी ज्ञात करके निकालते हैं। यह दूरी दोनों आयनों की आयनिक त्रिज्याओं का योग होती है। यदि एक आयन की त्रिज्या ज्ञात हो तो दूसरे आयन की त्रिज्या ज्ञात की जा सकती है।
समूह में आयनिक त्रिज्या में परिवर्तन- किसी अन्तराअणुक समूह में परमाणु क्रमांक के बढ़ने के साथ-साथ क्योंकि दूरी परमाणु त्रिज्या नियमित रूप से बढ़ती है, अत: आयनिक त्रिज्या भी समूह में ऊपर से नीचे की ओर जाने पर बढ़ती है। उदाहरण के लिए, क्षार धातु की आयनिक त्रिज्या निम्नलिखित प्रकार है—
क्षार धातु आयन | Li+ | Na+ | K+ | Rb+ | Cs+ |
आयनिक त्रिज्या | 0.68 Å | 0.95 Å | 1.33 Å | 1.48Å | 1.69 Å |
आवर्त में आयनिक त्रिज्या में परिवर्तन— किसी आवर्त में परमाणु क्रमांक के बढ़ने साथ-साथ परमाणु त्रिज्या घटती है, परिणामत: आयनिक त्रिज्या भी उसी प्रकार घटती क्योंकि प्रभावी नाभिकीय आवेश बढ़ता है। आवर्त में समूह I-III के तत्वों के धनायनों तथा V-VII के तत्वों के ऋणायनों की त्रिज्या परमाणु क्रमांक के बढ़ने के साथ घटती है।
समूह | I | II | III | समूह | IV | V | VI |
धनायन | Na+ | Mg2+ | Al 3+ | ऋणायन | N3- | O2- | F– |
आयनिक
त्रिज्या |
0.95 Å |
0.65 Å |
0.50 Å |
आयनिक
त्रिज्या |
1.71 Å |
1.40 Å |
1.36 Å |
रासायनिक व्यवहार को समझाने में आयनिक त्रिज्या के अनुप्रयोग
रासायनिक व्यवहार को समझाने में आयनिक त्रिज्या के निम्नलिखित अनुप्रयोग हैं
(1) धनायन व ऋणायन की त्रिज्या के अनुपात से क्रिस्टल संरचना के विषय में जानक प्राप्त होती है।
(2) धनायन व ऋणायन की त्रिज्याओं से दो आयनों के बीच बनने वाले बन्ध की प्रवृ ज्ञात होती है। सामान्य रूप से बड़ा धनायन व छोटा ऋणायन मुख्य रूप से आयनिक बन्ध त छोटा धनायन व बड़ा ऋणायन मुख्य रूप से सहसंयोजक बन्ध बनाते हैं।’
(3) विलयनों की अम्लीयता धनायनों के जलयोजन के कारण होती है जो कि इन त्रिज्या से सीधे सम्बन्धित है। सामान्य रूप से छोटे धनायन बड़े धनायनों की अपेक्षा आध जलयोजित होते हैं, अत: अधिक अम्लीय विलयन देते हैं।
प्रश्न 8. (ब) इलेक्ट्रॉन बन्धुता से आप क्या समझते हैं? किसी आवर्त में आगे की आर जान पर तत्वा का इलक्ट्रान बन्धुता पर क्या प्रभाव पड़ता है |
अथवा इलेक्ट्रॉन बन्धुता किसे कहते हैं? आवर्त सारणी के किसी वर्ग में इलेक्ट्रॉन बन्धुता के क्रमिक परिवर्तन का वर्णन कीजिए। अथवा इलेक्ट्रॉन बन्धुता किसे कहते हैं? समझाइए।
उत्तर : इलेक्ट्रॉन बन्धुता— “किसी उदासीन गैसीय परमाणु के बाह्यतम कक्ष में एक अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन प्रवेश करने के फलस्वरूप ऋणायन बनने पर उत्सर्जित ऊर्जा को उस तत्व की इलेक्टॉन बन्धुता कहते हैं।” ऊर्जा का उत्सर्जन जितना अधिक होगा, इलेक्ट्रॉन बन्धुता उतनी ही अधिक होगी। हैलोजेनों की इलेक्ट्रॉन बन्धुता सबसे अधिक होती है। इलेक्ट्रॉन बन्धुता इलेक्ट्रॉन वोल्ट (eV) प्रति परमाणु में व्यक्त की जाती है तथा E या EA अक्षरों द्वारा व्यक्त की जाती है।
Cl+e– → Cl– + E [यहाँ E= 3 • 61 eV]
किसी आवर्त में परमाणु क्रमांक बढ़ने (बाएँ से दाएँ जाने) पर इलेक्ट्रॉन बन्धुता बढ़ती है, जबकि वर्ग में परमाणु क्रमांक बढ़ने (ऊपर से नीचे आने) पर इलेक्ट्रॉन बन्धुता घटती है। यद्यपि स्थायी विन्यास वाले तत्वों की इलेक्ट्रॉन बन्धुता अपवाद रूप से शून्य या बहुत कम होती है।
वर्ग | I-A | II-A | III-A | IV-A | V-A | VI-A | VII-A |
तृतीय आवर्त | Na | Mg | Al | Si | P | S | Ci |
इलेक्ट्रॉन बन्धुता (ev) | 0.56 | 00 | 0.53 | 1.39 | 0.80 | 2.07 | 3.6 |
सप्तम वर्ग | F | CI | Br | I | At | ||
इलेक्ट्रॉन बन्धुता (eV) | 3.45 | 3.61 | 3.36 | 3.06 | 2.69 |
इस प्रकार नाभिकीय आकर्षण बल और परमाणु आकार बढ़ने से प्रायः इलेक्ट्रॉन बन्धुता कम होती है।
प्रश्न 8. (स ) NH3 तथा NF3 में से किस अणु का द्विध्रुव आघूर्ण अधिक है और क्यों?
उत्तर : NH3 तथा NF3 दोनों अणुओं की आकृति पिरामिडी होती है तथा दोनों NH3 (3 • 0 – 2 • 1 = 0 • 9) तथा NF3 (4 • 0 – 3 • 0 = 1 • 0) अणुओं में विद्युत ऋणात्मकता अन्तर भी लगभग समान होता है, परन्तु NH3 का द्विध्रुव आघूर्ण (1 • 46 D), NF3 (0 • 24 D) की तुलना में अधिक होता है।
इसकी व्याख्या द्विध्रुव आघूर्णों की दिशा में अन्तर के आधार पर की जा सकती है। NH3 में नाइट्रोजन परमाणु पर उपस्थित एकाकी इलेक्ट्रॉन-युग्म का कक्षक द्विध्रव आघर्ण तीन
N-H आबन्धों के द्विध्रुव आघूर्णों के परिणामी द्विध्रुव आघूर्ण की समान दिशा में होता है जबकि NF3, में यह तीन N—F आबन्धों के द्विध्रुव आघूर्णों के परिणामी द्विध्रुव आघूर्ण की विपरीत दिशा में होता है। यह कक्षक द्विध्रुव आघूर्ण एकाकी इलेक्ट्रॉन-युग्म के कारण N—F आबन्ध-आघूर्णों के परिणामी द्विध्रुव आघूर्ण के प्रभाव को कम कर देता है। इसके फलस्वर, NF3 अणु का द्विध्रुव आघूर्ण कम हो जाता है।
प्रश्न 9. आयनन विभव से आप क्या समझते हैं? इसको कैसे ज्ञात किया जा सकता है? यह किन–किन कारकों के द्वारा प्रभावित होता है तथा यह किस प्रकार आवन सारणी में परिवर्तित होता है?
अथवा आवर्त सारणी के किसी आवर्त में बायीं से दायीं ओर तथा वर्ग में ऊपर से नीचे के ओर तत्वों के आयनन विभवों में क्रमिक परिवर्तन को इलेक्ट्रॉनिक विन्यास के आधार पर समझाइए।
उत्तर : आयनन विभव-“किसी तत्व के एक विलगित गैसीय परमाणु की तलस्थ र आद्य अवस्था (ground state) में उसकी बाह्यतम कोश से एक इलेक्ट्रॉन पृथक् करने के लिए जितनी ऊर्जा की आवश्यकता होती है, उसे उस तत्व का आयनन विभव या आयन ऊर्जा (ionization energy) या प्रथम आयनन विभव (first ionization potentia कहते हैं।”
परमाणु (g) → धनायन (g) + e– ; IE (∆i H)
Na → Na+ (g) + e– ; IE (∆i H) )
ऊर्जा की इस आवश्यक मात्रा को आयनन एन्थैल्पी के रूप में भी व्यक्त किया = सकता है।
आयनन विभव ज्ञात करना— किसी तत्व की आयनन ऊर्जा का मापन करने हेतु विधुत निरावेशन नलिका (electric discharge tube) का प्रयोग किया जाता है जिसमें विद्युत धारा से प्राप्त तीव्रगामी इलेक्ट्रॉन तत्व के गैसीय विलगित परमाणु से संघट्ट करके उसमें से बाह्य – इलेक्ट्रॉन को बाहर निकाल देते हैं। इस इलेक्ट्रॉन को बाहर निकालने में प्रयुक्त ऊर्जा ही उ. तत्व की आयनन ऊर्जा कहते हैं। जब इसे इलेक्ट्रॉन वोल्ट में परिवर्तित कर दिया जाता है, तक यह आयनन विभव कहलाता है।
आयनन विभव की इकाई किलोजूल प्रति मोल (kJ mol-1) अथवा इलेक्ट्रॉन वोल (eV) होती है। ये इकाइयाँ परस्पर अग्र प्रकार सम्बन्धित होती हैं—
एक इलेक्ट्रान वोल्ट (eV) प्रति परमाणु = 1∙602 x 10-19 जूल प्रति परमाणु
= 1 ∙ 602 x 10-19 x 6∙022 x 1023 जूल प्रति मोल
= 96472 जूल प्रति मोल
= 96.472 किलोजूल प्रति मोल।
- क्रमिक आयनन विभव
यदि गैसीय परमाणु एक से अधिक इलेक्ट्रॉनों का त्याग करता है तो ये क्रमिक अर्थात् एक-एक करके ही निकलते हैं (एक साथ नहीं)। इस स्थिति में एक-एक करके इलेक्ट्रॉन पथक करने में प्रयुक्त ऊर्जाएँ क्रमिक आयनन विभव कहलाती हैं। वास्तव में जब गैसीय परमाण एक इलेक्ट्रॉन त्यागकर एकल संयोजी धनायन बनाता है, तब उससे इलेक्ट्रॉन पृथक् करना कठिन है क्योंकि अब इलेक्ट्रॉन का पृथक्कीकरण उदासीन परमाणु से न होकर धनावेशित आयन से होता है।
धनायन में प्रभावी नाभिकीय आवेश बढ़ जाने के कारण बाह्यतम इलेक्टॉन और नाभिक के मध्य आकर्षण बल बढ़ जाता है, फलस्वरूप दूसरे इलेक्ट्रॉन को पृथक् करने के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इस कारण द्वितीय आयनन विभव का मान सदैव प्रथम आयनन विभव से अधिक होता है।।
इसी प्रकार तृतीय इलेक्ट्रॉन को निकालने के लिए और अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। गैसीय परमाणु से प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय इलेक्ट्रॉन निकालने के लिए आवश्यक
आयनन विभव क्रमश: प्रथम (I1), द्वितीय (I2) तथा तृतीय (I3) आयनन विभव कहलाते हैं।
M(g) → M+(g) + e– ; I1
M+ (g) → M2+ (g)+ e– ; I2
M2+ (g) → M3+ (g) + e– ; I3
इनमें निम्नलिखित क्रम होता है- .
I < I2 < I3 <……
उदाहरण– Al (g) परमाणु के लिए क्रमिक आयनन विभव निम्नलिखित हैं ____
Al (g) → Al+ (g)+e– ; (I1) = 6 • 00 eV प्रति मोल
Al + (g) → AI2+ (g)+ e– ; (I) = 18 • 82 eV प्रति मोल
AI2+ (g) → Al3+ (g)+ e– ; (I3) = 28 • 44 eV प्रति मोल
इस प्रकार स्पष्ट है कि तत्वों का तृतीय आयनन विभव द्वितीय आयनन विभव से अधिक होता है तथा द्वितीय आयनन विभव, प्रथम आयनन विभव से अधिक होता है, अर्थात
I3 > I2 > I1
अर्थात् In+I > In
- आयनन विभव को प्रभावित करने वाले कारक
आयनन विभव, नाभिक तथा इलेक्ट्रॉनों के मध्य लगने वाले आकर्षण बल से सम्बन्धित होता है। अतः कोई भी कारक, जो इस आकर्षण बल को बढ़ा देता है, वह आयनन विभव को भी बढ़ा देगा। इसी प्रकार इस आकर्षण बल में कमी कर देने वाला कारक आयनन विभः। . भी कम कर देगा। इन महत्त्वपूर्ण कारकों का वर्णन निम्नलिखित है
- परमाण आकार– परमाण आकार बढ़ने पर इलेक्ट्रॉन कोशों की संख्या का जाती है, फलस्वरूप बाह्यतम कोश के इलेक्ट्रॉन की नाभिक से दूरी बढ़ती है। तु. इलेक्ट्रॉनों को नाभिक की ओर आकर्षित रखने वाले आकर्षण बल का मान कम हो जा अत: उस इलेक्ट्रॉन को पृथक् करने लिए कम ऊर्जा की आवश्यकता होगी।
स्पष्ट है कि एक परमाणु का आकार जितना अधिक होगा, आयनन विभव उतना ही । होगा। उदाहरणार्थ—
तत्व ( I-A वर्ग) | Li | Na | K | Rb | Cs |
प्रथम आयनन विभव (ev) | 5.40 | 5.14 | 4.33 | 4.17 | 3.90 |
- प्रभावी नाभिकीय आवेश– जब परमाणु के नाभिक पर धनावेश का पति बढ़ता है, तब प्रभावी नाभिकीय आवेश भी बढ़ता है (आवर्त में) जिससे बाह्यतम कोश के इलेक्ट्रॉनों पर नाभिक की ओर आकर्षण बल भी बढ़ जाता है। इसका अर्थ है कि परमाणु । संयोजी कोश में उपस्थित इलेक्ट्रॉनों को पृथक् करने के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यक होगी। इस कारण आयनन विभव, नाभिकीय आवेश का परिमाण बढ़ने पर बढ़ता है।
किसी विशिष्ट आवर्त में बाएँ से दाएँ चलने पर नाभिकीय आवेश (परमाणु क्रमांक बढ़ के कारण) एक-एक इकाई बढ़ता जाता है तथा बाह्यतम कोश में इलेक्ट्रॉन भी क्रमश: बढ़ते (परन्तु कोश संख्या स्थिर रहती है) और इसी क्रम में संयोजक इलेक्ट्रॉनों का नाभिक . आकर्षण बढ़ता जाता है क्योंकि प्रभावी नाभिकीय आवेश बढ़ता है; अतः इलेक्ट्रॉन को बार निकालने के लिए आवश्यक ऊर्जा की मात्रा भी क्रमश: बढ़ती है, फलस्वरूप आयनन विभव भी बढ़ता जाता है। उदाहरणार्थ—
द्वितीय आवर्त के तत्व | Li | Be | B | C | N | O | F | Ne |
परमाणु क्रमांक | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 |
प्रथम आयनन विभव (eV) | 5.40 | 9.3 | 8.3 | 11.3 | 14.3 | 13.6 | 17.4 | 21.6 |
नोट-प्रथम आयनन विभव Be > B तथा N> O होता है।
नाभिकीय आवेश अधिक हो जाने के कारण से ही द्वितीय, तृतीय तथा अन्य आय विभव ऊँचे होते हैं; जैसे—Li के प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय आयनन विभव क्रमश 5.4, 75.6 व 122.4 ev हैं।
वर्ग में ऊपर से नीचे की ओर चलने पर तत्वों के परमाणु क्रमांक बढ़ने पर नाभिक धनात्मक आवेश बढ़ता है तथा कोशों में इलेक्ट्रॉन की संख्या बढ़ती है (कोश संख्या में साथ-साथ बढ़ती है), फलस्वरूप बाह्यतम कोश के इलेक्ट्रॉनों की नाभिक से दूरी भी बड़ा जाती है जिससे बाह्तम कोश के इलेक्ट्रान का नाभिक की और आकर्षित घटता है अत: इसके कारण आयनन विभव का मान भी घटता जाता है (उपर्युक्त उदाहरण IA उपवर्ग में देखिए)।
2. आन्तरिक कोश इलेक्ट्रॉनों का आवरण अथवा परिरक्षण प्रभाव– बहु-इलेक्ट्रॉन परमाण में आन्तरिक कोशों में उपस्थित इलेक्ट्रॉन, संयोजी कोश के इलेक्टॉनों को, नाभिक के आकर्षण बल से परिरक्षित कर देते हैं अथवा ये इलेक्ट्रॉन नाभिक तथा बाह्यतम कोश के इलेक्ट्रॉनोंके मध्य आवरण का कार्य करते हैं जिससे बाह्यतम कोश के इलेक्ट्रॉन को पृथक् करने के लिए कम कर्जा की आवश्यकता होती है। अत: आयनन विभव कम हो जाता है
अतः संयोजी कोश और नाभिक के मध्य जितने अधिक इलेक्ट्रॉन कोश होंगे, उतना ही कम उस परमाणु का आयनन विभव होगा। किसी वर्ग में ऊपर से नीचे जाने पर आन्तरिक कोशों की संख्या बढ़ती जाती है, फलस्वरूप परिरक्षण प्रभाव बाह्यतम कोश के इलेक्ट्रॉनों पर नाभिक का आकर्षण कम कर देता है जिसके कारण आयनन विभव घटता जाता है। किसी आवर्त में सामान्य तत्वों के लिए परिरक्षण प्रभाव समान रहता है; क्योंकि आन्तरिक कोशों में इलेक्ट्रॉनों की संख्या समान रहती है। अत: आवर्त में परिरक्षण प्रभाव, आकर्षण को प्रभावित नहीं करता है।
अतः इस प्रभाव का परिमाण अधिक होने पर, आयनन विभव का मान कम हो जाता है।
- इलेक्ट्रॉनों का भेदन प्रभाव– आयनन विभव इलेक्ट्रॉनों के भेदन प्रभाव से भी प्रभावित होता है। इसका अर्थ यह है कि नाभिक के समीप इलेक्ट्रॉनों के पाए जाने की प्रायिकता अधिक होने पर, इनका नाभिक की ओर आकर्षण अधिक होगा तथा इनका परमाणु से निकलना कठिन होगा। किसी निश्चित कोश में (n के समान मान सहित), 8-इलेक्ट्रॉनों की नाभिक के समीप होने की प्रायिकता अधिकतम होती है, जबकि f-इलेक्ट्रॉनों की न्यूनतम। दूसरे शब्दों में, विभिन्न-प्रकार के इलेक्ट्रॉनों की भेदन क्षमता का क्रम इस प्रकार होता है
s > p > d > f
अतः 8-इलेक्ट्रॉनों के लिए आयनन विभव अधिकतम तथा f-इलेक्ट्रॉनों के लिए न्यूनतम होगा। सामान्य रूप में, परमाणु के नाभिक की ओर इलेक्ट्रॉनों का भेदन अधिक होने पर, आयनन विभव भी अधिक होगा।
उदाहरण– Be (9. 3 ev) का प्रथम आयनन विभव B(8. 3 eV) के प्रथम आय विभव से अधिक होता है। Be का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 1s2, 2s2 तथा B का इलेक्टा विन्यास 1s2, 2s2 2p1 होता है। प्रथम आयनन हेतु Be से एक इलेक्ट्रॉन पृथक करने, हेतु अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होगी क्योंकि यह इलेक्ट्रॉन s-उपकोश से पृथक् होता है, जबकि B में पृथक् होने वाला यह इलेक्ट्रॉन p उपकोश से सम्बन्धित है।
समान कोश के विति उपकोशों के इलेक्ट्रॉन पर नाभिक के आकर्षण का प्रभाव s > p > d > f क्रम से होना । अत: द्वितीय कोश के s-उपकोश से, p-उपकोश के सापेक्ष इलेक्ट्रॉन पृथक् करने हेतु अभि., ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इस कारण Be का प्रथम आयनन विभव, B के प्रथम आयनन विभव से उच्च होता है।
- इलेक्ट्रॉनिक विन्यास की सममितता— किसी परमाणु के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास , सममित होना भी आयनन विभव को प्रभावित करता है। सममितता अधिक होने पर स्थापि अधिक होगा तथा इस कारण स्थायी कोश से इलेक्ट्रॉन पृथक् करने हेतु अधिक ऊर्जा , आवश्यकता होती है, फलस्वरूप आयनन विभव का परिमाण भी उच्च होगा। उत्कृष्ट गैसा । परमाणुओं का विन्यास पूर्णतया सममित होता है, चूँकि इनके उपलब्ध सभी कक्षक पूर्ण-पूति होते हैं। अत: इस कारण इनका आयनन विभव अधिकतम होता है। सामान्य रूप . इलेक्ट्रॉनिक विन्यास पूर्णतया सममित होने पर आयनन विभव भी अधिक होगा।
- पूर्ण या अर्द्धपूर्ण कक्षक– पूर्ण या आधे भरे हुए इलेक्ट्रॉन कक्षक अपूर्ण कक्षको – अपेक्षा अधिक स्थायी होते हैं। हुण्ड के नियम से किसी कोश के एकसमान उपकोश के इलेक्ट्रॉनिक आधार पर स्थायित्व क्रम निम्नलिखित होता है
पूर्ण > अर्द्धपूर्ण > अपूर्ण
इस प्रकार के स्थायी कक्षकों से इलेक्ट्रॉनों को हटाने के लिए अधिक ऊर्जा आवश्यकता होती है। अतः ऐसे परमाणुओं का आयनन विभव उसकी आवर्त सारण उपस्थिति के ठीक विपरीत होता है।
उदाहरणार्थ– नाइट्रोजन का प्रथम आयनन विभव ऑक्सीजन के प्रथम आयनन विभव से उच्च इसी कारण होता है क्योंकि N के इलेक्ट्रॉ विन्यास 1s2, 2s2 2p3 के आधार पर 2p-उपकोश अर्द्धपूर्ण है, अर्थात् अधिक स्थायी जबकि ऑक्सीजन (O) के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 1s2, 2s2 2p4 के आधार पर 2p-उपक अपूर्ण है, अर्थात् कम स्थायी है। इस कारण 2p3 से एक इलेक्ट्रॉन पृथक् करने हेतु आ ऊर्जा की आवश्यकता होगी, अपेक्षाकृत 2p4 से, अर्थात् N का प्रथम आयनन विभव ऑक्सीजन के प्रथम आयनन विभव से उच्च होता है, परन्तु ऑक्सीजन का द्वितीय आय विभव नाइट्रोजन के द्वितीय आयनन विभव से अधिक होता है।
आयनन विभव (एन्थैल्पी में आवर्तिता)
(i) आवर्त में आवर्तिता– आवर्त के अनुदिश, आयनन विभव, बाएँ से दाएँ जाने बढ़ता है; क्योंकि नाभिकीय आवेश बढ़ता है तथा परमाणु आकार घटता है। अत’ इलेक्ट्रॉनों को नाभिक से बाँधने वाला बल बढ़ता है तथा इसलिए आयनन विभव भी बढ़ता है। द्वितीय आवर्त में उपस्थित तत्वों की प्रथम आयनन विभव (I1) के मानों में उपनति नीचे चित्र-12 में दर्शायी गई हैं।
यद्यपि तत्वों के प्रथम आयनन विभव का मान आवर्त में बायीं ओर से दायीं ओर जाने पर सामान्यतया बढ़ता है, परन्तु इसमें कुछ अनियमितताएँ भी पायी जाती हैं; जैसे-बोरॉन का प्रथम आयनन विभव बेरिलियम से कम है तथा ऑक्सीजन का प्रथम आयनन विभव नाइट्रोजन के प्रथम आयनन विभव से कम है (जिसका वर्णन किया जा चुका है)।
(ii) वर्ग में आवर्तिता– तत्वों के आयनन विभव वर्ग में ऊपर से नीचे जाने पर घटते हैं। वर्ग में नीचे जाने पर आयनन विभव के मान में होने वाली कमी से सम्बन्धित कारक निम्नलिखित हैं
(1) वर्ग के एक तत्व से दूसरे तत्व तक आने में मुख्य ऊर्जा कोशों (n) की संख्या में वृद्धि होती है।
(2) आन्तरिक इलेक्ट्रॉनों की संख्या में सतत वृद्धि के परिणामस्वरूप परिरक्षण या ओवरण प्रभाव का मान भी बढ़ता है।
तत्व (वर्ग-2) | Be | Mg | Ca | Sr | Ba |
प्रथम आयनन विभव (ev में) | 9.3 | 7.64 | 6.11 | 5.69 | 5.21 |
तत्व (वर्ग-17) | F | CI | Br | I | At |
प्रथम आयनन विभव (ev में) | 17.4 | 12.96 | 11.81 | 10.45 | 9.64 |
प्रथम संक्रमण श्रेणी, 3d (Sc से Zn तक) के तत्वों का आकार लगभग स्थिर रहता , क्योंकि परिरक्षण या आवरण प्रभाव नाभिकीय आकर्षण बल को लगभग सन्तुलित कर देता है इस कारण प्रथम संक्रमण श्रेणी के तत्वों के आयनन विभव भी लगभग स्थिर रहते हैं। दिली तथा तृतीय संक्रमण श्रेणी क्रमश: (4d) और (5d)] में भी तत्वों के आयनन विभवा का मान लगभग समान रहता है। उदाहरणार्थ—
तत्व | Sc | Ti | V | Cr | Mn | Fe | Co | Ni | Cu |
परमाणु क्रमांक | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 |
प्रथम आयनन विभव (eV में) | 6.5 | 6.8 | 6.7 | 6.8 | 7.4 | 7.9 | 7.8 | 7.6 | 7.7 |
Inorganic Chemistry Notes